पुरुषोत्तमजी की यह बात मुझे तब अजीब लगी थी किन्तु सुशील भाई की वजह से उसका बड़ा कारण समझ में आया। माध्यम बनी - वह थैली (केरी बेग) जो सुशील भाई साथ में लाए थे। उस थैली पर सब कुछ चीनी में भाषा में लिखा था। बस, संस्थान् के नामवाली एक पंक्ति अंग्रेजी में थी। याने, जिसे समझना हो वह या तो चीनी भाषा का ज्ञान प्राप्त करे या फिर किसी चीनी की या चीनी भाषा जाननेवाले किसी व्यक्ति की सहायता ले।
सुशील भाई घूमने-फिरने नहीं, शुद्ध रूपेण व्यापारिक यात्रा पर गए थे। सुशील भाई का अंग्रेजी ज्ञान भी इतना और ऐसा नहीं है कि वे धाराप्रवाह अंग्रेजी में अपनी बात कह सकें। जाहिर है, सुशील भाई की सारी व्यापारिक बातें किसी हिन्दी दुभाषिये की मदद से ही हुई। अपनी भाषा के दम पर कोई देश, अपनी शर्तों पर किस तरह व्यापार कर सकता है, इसका यह अप्रतिम उदाहरण है। अंग्रेजी न जानने के भय से व्यापार से हाथ धोने की हिम्मत वही देश कर सकता है जिसे अपनी भाषा पर, अपनी संस्कृति पर आत्माभिमान और विश्वास हो। चीन यह खतरा लेते हुए यदि सफलता के झण्डे गाड़ रहा है तो इसका एक रहस्य-सूत्र निश्चय ही अपनी मातृ भाषा का सम्मान भी है।
यहाँ दिया चित्र सारी कहानी खुद कह रहा है। चित्र में पहली थैली, सुशील भाई की, चीन से लाई हुई है और दूसरी थैली, इन्दौर के एक व्यापारिक संस्थान की। चीनी थैली में सब कुछ चीनी में है जबकि इन्दौरी थैली पर हिन्दी का एक अक्षर भी नहीं।
सच ही कहा है कि जो देश अपनी भाषा की अवहेलना करता है, वह गूँगा हो जाता है।
सच ही कहा है कि जो देश अपनी भाषा की अवहेलना करता है, वह गूँगा हो जाता है।
हम गूँगे ही नहीं, बहरे भी हो गए हैं। नहीं होते तो सुन रहे होते और इस सुने हुए को गुन रहे होते - ‘‘निज भाषा निज संस्कृति, अहै उन्नति मूल।’’
एक कहावत है When money talks, nobody checks the grammer. दक्षिण भारत यात्राओं के दौरान मैंने महसूस किया है कि लेन-देन में मैं ही देनदार होता था और अपने उस अनुभव से कहूं, तो पूरे दक्षिण भारत में शायद ही ऐसा कोई मिला, जिसे हिन्दी न आती हो.
ReplyDeleteसंभवतः यही अन्तर हमको खाये जा रहा है।
ReplyDeleteजो देश अपनी भाषा की अवहेलना करता है, वह गूँगा हो जाता है।
ReplyDeleteयह बात तो सही है।
ई-मेल पर, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteसही है। इसराइल भी ऐसा ही एक देश है जिसकी आबादी बमुश्किल दिल्ली के बराबर है मगर वहां चिकित्सा, अभियान्त्रिकी, समस्त प्रकार के विज्ञानं, भौतिकी, रसायन, जीवशास्त्र, गणित, भू-भौतिकी, जैव यान्त्रिकी आदि आदि सब हिब्रू मैं हैं। १४ मुस्लिम राष्ट्र उसे नेस्तनाबूद करना चाहतें हैं मगर वह छोटी सी आबादी, मातृभाषा,और राष्ट्र भक्ति के सहारे सबको टक्कर दे रहा है। इतना ही नहीं, रेगिस्तान में गुलाब की खेती करना, गुप्तचर प्रणाली का विकास, मिसाइलों की उन्नत तकनीक आदि में वह सिरमौर है। दिक्कत यह है की हिन्दी के विकास मैं हिन्दी की पेंगे भरनेवाले नेताओं की औलादें विदेशों मैं जाकर पढ़ती हैं और देश मैं आकर नेतागिरी करती हैं। उत्तर प्रदेश के चुनावों में ही देख लीजिए। हिन्दी के नाम पर सियासत करनेवाले बडे-बडे नेताओं की औलादें, जो हिंदी के नाम पर सियासत करते थे, उन्हें ही देख लीजिये।
सार्थक बात कही है .. काश हिंदी को महत्व दिया जाता ..
ReplyDelete‘‘निज भाषा निज संस्कृति, अहै उन्नति मूल।’’
ReplyDeleteबात तो ठीक है लेकिन जहाँ हर चीनी की निजभाषा एक ही है वहाँ भारतीयों के साथ ऐसा नहीं है। जिस दिन निज की सीमाओं से से उठने वालों का आदर होने लगेगा नया युग आ जायेगा। किशोरावस्था की एक कविता पेश है:
सीमा में सिमटा मैं अब तक
था कितना संकीर्ण हुआ
अज्ञ रहा जब तक असीम ने
मुझको नहीं छुआ।