तुम-हम नहीं पाल सकते कबूतर


सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोट ने दुनिया को गाँव में बदल दिया। अंगुलियों के पोरों पर दुनिया सिमट आई। ‘सात समन्दर पार’ वाले जुमले आज के बच्चों के लिए चुटकुले से अधिक नहीं रह गए। किन्तु उलटबासियाँ शायद सर्वकालिक होती हैं। यह अलग बात है कि कबीर ने इन्हें इस तरह प्रयुक्त किया कि हम उन्हें उलटबासियों का आविष्कारक माने बैठे हैं।

अभी-अभी मुझे चरम तकनीकी विकास की एक उलटबाँसी से रु-ब-रु होने का अवसर मिला।

रविवार, 30 मई को शामगढ़ से सक्तावतजी ने फोन पर पूछा - ‘तुझे दादा कोई खबर मिली या नहीं?’ मुझे लगा, दादा को राज्यपाल बनाने की अफवाह ने एक बार फिर जोर मार लिया है। मैंने कहा -‘आप इन बातों के चक्कर में मत पड़िए। इनमें कोई दम नहीं है। जिस दिन बन जाएँ, उस दिन मानिएगा।’ सक्तावतजी ने डाँट दिया -‘तू कभी तो संजीदा होकर बात किया कर! दादा के बाँए हाथ में फ्रेक्चर हुआ है। उनकी कार, खड़े ट्रैक्‍टर से टकरा गई थी। मैंने उनसे बात की थी। गम्भीर या चिन्तावाली बात तो नहीं है किन्तु इस उम्र में (दादा इस समय अस्सीवें वर्ष में चल रहे हैं) छोटी परेशानी भी बड़ा दुख देती है।’ मैं न केवल सकपका गया, घबरा भी गया। मैंने कहा -‘मैं फोन बन्द कर रहा हूँ। पहले दादा से बात करता हूँ। उसके बाद आपसे बात करूँगा।’

मैंने अविलम्ब दादा को फोन लगाया। वे भोपाल में थे। उन्होंने बताया कि 24 मई की रात, कवि सम्मेलनी-प्रवास में उनकी कार दुर्घटनाग्रस्त हो गई। ड्रायवर को खड़ा टैक्टर दिखाई नहीं दिया और टक्कर हो गई। दादा की बाँयी बाँह में, कोहनी और कन्धे के बीच फ्रेक्चर हुआ। हड्डी चार जगह से टूटी है और उसी दिन ऑपरेशन होनेवाला है। दादा सहज और संयत स्वरों मे बात कर रहे थे। पीड़ा की कोई आहट नहीं थी वहाँ। हाँ, उन्हें कष्ट इस बात का था कि उनका लिखना बन्द हो गया है क्योंकि वे बाँये हाथ से ही लिखते हैं। फ्रेक्चर की सूचना से अधिक पीड़ा इस सूचना में टपक रही थी।

प्रथमदृष्टया मैंने अनुमान लगाया कि फ्रेक्चर साधारण है और कन्धे-कोहनी का संचालन यथावत् बना रहेगा। निश्चय ही जो भी हुआ, अच्छा नहीं हुआ किन्तु अच्छी बात यह है कि इससे भी बुरा हो सकता था जिससे ईश्वर ने बचा लिया। ईश्वर की महती कृपा है कि दादा स्वस्थ-प्रसन्न हैं। ‘स्वस्थ’ इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि वे ‘दुर्घटनाग्रस्त’ हैं, ‘अस्वस्थ’ नहीं। बाद में गोर्की ने बताया कि दादा का ऑपरेशन सफल रहा। उनकी बाँयी भुजा में स्टील प्लेट लगा दी गई है। एक जून की शाम उन्हें अस्पताल से छुट्टी मिल गई है और समुचित चिकित्सकीय देखभाल के दृष्टिगत उन्हें, गोर्की के निवास के पास स्थित डॉक्टर पंकज अग्रवाल के अस्पताल में रखा गया है।

इतनी सारी सूचनाएँ मिल जाने के बाद, मुझे अलग-अलग स्थानों से दादा के दुर्घटनाग्रस्त होने की सूचना मिलनी शुरु हुई। कुछ लोगों ने सूचना की पुष्टि करने के लिए फोन लगाए। जिन्होंने मुझे सूचित करने के लिए फोन लगाया था, उन सबको मैंने
‘ताजा समाचार’ का ‘प्रति उपहार’ (रिटर्न गिट) दिया। तीन जून की शाम को डॉक्टर तय करेंगे कि दादा को अभी भोपाल ही रखा जाए या छुट्टी देकर, घर (नीमच) भेज दिया जाए।

किन्तु इस सबमें तकनीकी विकास की उलटबाँसी कहाँ? यही कहने के लिए तो मैं यह सब लिख रहा हूँ। उल्लेखनीय बात यह है कि मुझे सूचना देनेवालों को यह सूचना किसी अखबार या स्थानीय चेनल या अन्य किसी सार्वजनिक संचार माध्यम से नहीं मिली। प्रत्येक को किसी न किसी व्यक्ति से मिली।

तकनीकी विकास की सहायता पाकर सारे अखबार स्थानीय हो गए। सब जिला स्तर के संस्करण छाप रहे हैं। दादा चूँकि नीमच रहते हैं सो यह समाचार (यदि छपा भी होगा तो) अखबारों के नीमच जिला संस्करण में ही छपा होगा। सक्तावतजी शामगढ़ रहते हैं जो मन्दसौर जिले में आता है। मुझे सूचना देनेवालों में से अधिकांश को भी यह समाचार किसी अखबार से नहीं, किसी न किसी व्यक्ति से ही मिला। 24 मई वाली इस दुर्घटना का समचार मुझे भी सातवें दिन, 30 मई को मिला, वह भी व्यक्तिशः, किसी अखबार से नहीं। गोया, अखबारों की प्रसार संख्या भले ही बढ़ रही हो किन्तु वास्तव में वे सिमट रहे हैं। ‘कोस-कोस पर पानी बदले, पाँच कोस पर बानी’ वाली मालवी कहावत अखबारों पर लागू हो गई है। ये भी पाँच कोस पर वाणी (याने कि खबरें) बदल रहे हैं।

इस सबको क्या माना जाए? सूचना प्रौद्योगिकी के विस्फोटवाले इस समय में, एक दूसरे का कुशल क्षेम जानने के लिए हमें एक बार फिर अपने पारम्परिक साधन/माध्यम अपनाने पड़ेंगे? तकनीकी विकास के चरम को छूने को प्रति पल लालायित बने हुए इस समय में, अपने सन्देश पहुँचाने के लिए हमें कबूतर पालने पर विचार शुरु कर देना चाहिए?

सम्भव है, यह उलटबाँसी न हो। किन्तु उलटबाँसी के कच्चे प्ररुप की हैसियत पाने की अधिकारिणी तो यह घटना है ही।

नहीं?
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मेरा उपरोक्त आलेख, साप्ताहिक उपग्रह के दिनांक 03 जून 2010 वाले अंक में, ‘कबूतर पालने का समय’ शीर्षक से मेरे स्तम्भ ‘बिना विचारे’ में छपा था। अगले दिन, 04 जून 2010 को मुझे एक पत्र मिला जिसने मुझे धरती पर ला पटका। पत्र प्रेषक ने अपना नाम-पता नहीं लिखा किन्तु कुछ मजमून ऐसे होते हैं जो अपने लिखनेवाले का अता-पता दे देते हैं। यह भी वैसा ही था। पत्र भेजनेवाले को मैं तो पहचान गया किन्तु उसकी पहचान मैं भी उजागर नहीं कर रहा हूँ। मेरी असलियत उजागर करनेवाला जब खुद ही ‘गोपन’ रहना चाहता है तो शराफत का तकाजा यही बनता है कि मैं भी खुद को नियन्त्रित कर, सामनेवाले की भावनाओं का सम्मान करूँ।

बहरहाल, पत्र इस प्रकार है -

‘प्रिय विष्णु,

‘कबूतर पालने का समय’ पढ़कर दो खुशियाँ एक साथ हुईं। पहली - तेरे लिखे में भले ही तन्त (‘तन्त’ मालवी बोली का शब्द है जो ‘प्राण’ अथवा ‘तत्व’ के समानार्थी के रूप मे प्रयुक्त होता है) न हो किन्तु पढ़ने में मजा आता है। दूसरी - यह अच्छी बात है कि तू बिलकुल नहीं बदला। अभी भी वैसा ही है जैसा कि हायर सेकेण्डरी में पढ़ते समय था। तू न तब कुछ समझता था न अब समझता है। समझता होता तो कबूतर पालने की सलाह नहीं देता। कोई जमाना रहा होगा जब घर-घर की छत पर कबूतर पाले जा सकते रहे होंगे। आज तो कबूतर पालना विलासिता हो गया है। अम्बानी, टाटा या मनमोहनसिंह की आर्थिक नीतियों के सौजन्य से जन्मा कोई नव कुबेर ही कबूतर पाल सकता है। औसत आदमी नहीं पाल सकता।

‘आज कबूतर की जगह मोबाइल ने ले ली है। तेरे-मेरे जैसों के घर में तीन-तीन, चार-चार मोबाइल तो होंगे ही। दादा के एक्सीडेण्ट की खबर तुझे मोबाइल से ही मिली होगी। अब तो ये ही आज के जमाने के कबूतर हैं। लेकिन तेरी समझ में यह बात नहीं आई। आई होती तो कबूतर पालने की बात तुझे नहीं सूझती। तू अभी भी वहीं का वहीं है, ग्यारहवीं में पढ़ते समय जैसा मनासा में था। मुझे कोई ताज्जुब नहीं होगा यदि मेरी इस बात पर भी खुश हो जाए।’

पत्र पढ़कर मेरी बोलती बन्द है।

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