खुशियों की खीर में ‘पुरवाई’ का नींबू

नगर निगमों, नगर पालिकाओं, नगर परिषदों और ग्राम पंचायतों के कर्मचारी बने हुए लगभग पौने तीन लाख अध्यापक अब पक्के सरकारी कर्मचारी बन गए। अब ये सब शिक्षा विभाग के अधीन, अध्यापक हो गए। मुख्यमन्त्री शिवराज ने घोषणा कर दी। ये सब खुश तो हैं लेकिन इसे सरकार की महरबानी न मानें तो ताज्जुब क्या? ये लोग इस प्राप्ति को अपने लम्बे संघर्ष के दौरान भुगती उपेक्षा, प्रताड़ना, वेतन कटौती, अवमानना, पिटाई, जेल यात्राओं जैसी पीड़ाओं का प्रतिफल क्यों न मानें? यह सब इन्हें मुफ्त नहीं मिला। इसके लिए इन्होंने क्या कुछ नहीं झेला? क्या कुछ नहीं सहा? ये लोग खुश भी हैं और सन्तुष्ट भी।

मेरी उत्तमार्द्धजी अध्यापक रही हैं। वर्ष 2012 में उन्होंने स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति ले ली। लेकिन उससे पहले ही प्रबुद्ध मुनीन्द्र दुबे और जुझारू सुरेश यादव से मरा सम्पर्क बन गया। सुरेश इस संघर्ष में, प्रदेश स्तर पर पहली पंक्ति के योद्धाओं में शरीक रहा है। बाद में मुनीन्द्र और सुरेश जैसे और लोगों से सम्पर्क बन गया। इसीलिए मुझे इस समूचे संघर्ष की दैनिक जानकारी ‘आँखों देखा हाल’ की तरह मिलती रही। इन अध्यापकों की खुशी मैं भली प्रकार अनुभव कर पा रहा हूँ। कच्चे गारे से  बनाई अपनी काली-भूरी ईंटों को ताम्बई रंग में, भट्टे से निकलते देख कर कुम्हार जिस तरह खुश होता है, उसी तरह ये लोग खुश हैं। 

1995 में, दिग्विजय सिंह काल में, शिक्षाकर्मियों की नियुक्तियाँ शुरु हुई थीं। तब इन्हें वर्गानुसार क्रमशः 500, 800 और 1000 रुपये वेतन (केवल 10 महीनों का) मिलता था। गुरुजी योजना के अधीन, 500 सौ रुपये मानदेय वाले स्कूल खोले गए।  2001 में संविदा शाला शिक्षकों की भर्ती, पूर्णतः अस्थायी भर्ती हुई। महिलाओं को प्रसूति अवकाश नहीं मिलता था।  एक अप्रेल 2007 में अध्यापक संवर्ग बनाकर सबको अध्यापक नाम दिया गया। तब शिक्षाकर्मी नियमित थे। संविदा शिक्षकों को नियमित किया गया। गुरुजी को पात्रता परीक्षा उत्तीर्ण करने पर नियमित किया गया। तभी, 1995 की, शिक्षाकर्मियों की भर्ती को सर्वोच्च न्यायालय ने रद्द कर दिया। वर्ष 1998 में, 2256 रुपये मासिक वेतन पर शिक्षाकर्मियों की नियमित भर्ती हुई। 2007 आते-आते यह वेतन 2550 रुपये मासिक हुआ। अपनी कुछ माँगों को लेकर इन लोगों ने 1998 में तत्कालीन केन्द्रीय मन्त्री अर्जुनसिंह और मुख्यमन्त्री दिग्विजयसिंह की मौजूदगी में बड़ी रैली निकाली। तेरह दिनों के आकस्मिक अवकाश के लिए इन्होंने 1998 के बाद फिर प्रदर्शन किया। 

2002 और 2003 में इन लोगों ने  हड़तालें की जो एक-एक महीने चलीं लेकिन दोनों ही बार हाथ खाली रहे। तब भाजपा विपक्ष में थी। 2003 के अपने चुनावी घोषणा-पत्र में भाजपा ने वादा किया कि यदि उसकी सरकार बनी तो वर्ग भेद समाप्त कर समान वेतन दिया जाएगा। लेकिन जैसा कि होता है, सरकार बनने के बाद भाजपा अपना वादा भूल गई। तब ये लोग 2004 में 23 और 2005 में 53 दिनों तक आन्दोलनरत रहे। हजारों अध्यापकों ने दिल्ली में तीन दिन तक प्रदर्शन किया। तत्कालीन प्रधानमन्त्री मनमोहन सिंह से एक घण्टा बात हुई। उनसे मिले आश्वासन के बाद दिल्ली में तो आन्दोलन खत्म हो गया लेकिन भोपाल में चलता रहा।

भोपाल में बड़ी रैली निकलनी थी। इन्हें भोपाल पहुँचने से रोकने के लिए घरों, बस स्टैण्डों, रेल्वे स्टेशनों से गिरफ्तार किया गया। करीब 500 महिला-पुरुष शिक्षाकर्मियों को भोपाल केन्द्रीय जेल में अपराधियों के साथ तीन दिन बन्द रखा गया। शिवराज की मध्यस्थता से आन्दोलन खत्म हुआ। रिटायर्ड आईएएस डीपी दुबे वाली एक सदस्यीय समिति बनाई गई। समिति ने अनेक सिफारिशें कीं लेकिन एक भी नहीं मानी गई। 2007 में भोपाल के सुभाष मैदान में करीब 50 हजार शिक्षाकर्मियों, संविदा शिक्षकों, गुरुजियों से, शिवराज ने दुबे समिति की सभी माँगें मानने का वादा किया। लेकिन कुछ ही मानी गईं। 

अपनी माँगों के लिए ये लोग मानो सपनों में भी रणनीति ही बनाते रहे। 2009 में ऐन शिक्षक दिवस के दिन भोपाल में प्रदर्शन के दौरान महिला-पुरुष अध्यापकों को पुलिस ने दौड़ा-दौड़ा कर पीटा। 40 को गिरफ्तार किया गया। प्रदेश भर में 200 को निलम्बित किया गया। (वे 6 महीने निलम्बित रहे।) उस दिन मेरे कस्बे रतलाम में, शिक्षामन्त्री का पुतला जलाते हुए तीन अध्यापक झुलस गए थे। 2013 में ये लोग 23 दिनों तक आन्दोलनरत रहे। प्रदेश में कई जगहों पर अनशन किए गए। देवास में, अनशनरत एक महिला अध्यापक इलाज के दौरान चल बसी।

सरकार ने 2013 से छठा वेतनमान देने की घोषणा की जिसमें कई कमियाँ थीं। इसे लेकर 2015 में 13 दिन की हड़ताल हुई। तब भोपाल में हुई रैली पर भीषण लाठीचार्ज हुआ। प्रत्यक्षदर्शियों में से एक ने कहा था -‘ऐसा लग रहा था सर! मानो पुलिस किसी को जिन्दा वापस नहीं जाने नहीं देगी।’ ‘लाज बचाने’ के मुकाबले ‘जान बचाने’ की चिन्ता में महिलाएँ अधनंगी दशा में भागीं। सरकार के मुताबिक 12000 लोगों पर धारा 110 की कार्रवाई की गई। प्राण बचाने के लिए भाग रही अधनंगी महिलाओं के चित्र देखकर मेरी उत्तमार्द्धजी उस दिन खूब रोई थीं।

22 जनवरी को मैं कोई 23 शिक्षाकर्मियों से मिला। वे सब खुश तो थे लेकिन उनकी खुशी में खनक कम और कसक, पीड़ा,  कराहें अधिक थी।  एक ने कहा - ‘सर! 1995 में शिक्षाकर्मी की नौकरी कहने को जरूर नियमित थी लेकिन सुविधा कुछ नहीं थी। एक दिन का अवकाश लेने पर वेतन कटता था।’ दूसरे ने कहा - ‘2005 और 2015 में जब पुलिस घरों पर दबिश देकर हमें पकड़ रही थी तो आस-पड़ोसवाले हमें अपराधी समझते थे।’ तीसरे ने तनिक उग्र होकर कहा - ‘सर! आज शिवराजजी भले ही कुछ भी कहें। लेकिन मेरे कुछ साथी उस दौर में एक समय भोजन करते थे ताकि बच्चों को दूध पिला सकें।’ एक और ने कहा - ‘यह लड़ाई हमने अपनी एक-एक साँस होम कर जीती है सर! हमारे कई साथी चले गए। उनके अन्तिम संस्कार के लिए अनुग्रह राशि भी नहीं मिली।’ एक और ने कहा - ‘बैरागी सर! हमारी दशा देख-देख कर लोग हमारा मजाक उड़ाते थे। किसी अफसर से बहस करते हुए कभी अखबार में फोटू छप जाता तो घरवाले ही डाँटते-फटकारते थे।’ एक बहुत ही धीर-गम्भीर और प्रबुद्ध अधेड़ शिक्षक ने कड़वाहटभरी फीकी हँसी हँसते हुए कहा - ‘यह क्षण हमारी पीड़ाओं, हम पर हुए जुल्मों का आनन्द लेने का क्षण है सर! हमें याद है कि प्रदर्शन के लिए भोपाल जाते हुए हमें बसों, रेलों में छापामारी कर डाकुओं, आतंकियों की तरह उतार लिया गया, कोसों दूर जंगलों में छोड़ दिया गया था। रेकार्ड पर लिए बिना हमें गिरफ्तार रखा गया। अंग्रेज भी यही करते थे। हमारे कई लोग सप्ताहों तक लापता रहे जो रोते-गाते, जैसे-तैसे अपने घरों पहुँचे।’ शादी लायक हो रही बेटी के बाप एक अध्यापक ने कहा - ‘मुख्यमन्त्रीजी इस तरह बात कर रहे हैं जैसे उन्होंने हमारे खानदानों पर उपकार कर दिया हो। वे कह रहे हैं कि 21 वर्षों का यह अन्याय खत्म करने का सौभाग्य उन्हें मिला। लेकिन सर! 21 वर्षों के इस अन्याय में 12 वर्ष तो उनके अन्याय के ही हैं! यह उन्हें याद नहीं आता? कोई न्याय-व्याय नहीं सर! ये तो चुनाव में हमारे वोट लेने के लिए किया गया है। वर्ना उनका बस चलता तो वो तो अभी कुछ नहीं देते।’ एक और ने कहा - ‘हम शिवराजजी की इस देन की खुशियाँ मनाना चहते हैं सर! लेकिन उनकी ऐसी बातें हमारी खुशियों की खीर में नींबू निचोड़ देती हैं सर!’

इस अन्तिम टिप्पणी से मुझे नीरजा (मेरे छोटे भतीजे गोर्की की उत्तमार्द्ध) द्वारा सुनाया किस्सा याद आ गया जो उसके पिताजी ने उसे सुनाया था। उत्तर प्रदेश के पहले मुख्य मन्त्री (और भारत के चौथे गृह मन्त्री) पण्डित गोविन्द वल्लभ पन्त के हाथ और गरदन लगातार काँपते-हिलते रहते थे। 1928 में, साइमन कमीशन के विरोध में प्रदर्शन के दौरान पुलिस ने लाठियों से उनकी पिटाई की थी। यह उसीका परिणाम था। एक दौरे में, एक पुलिस दरोगा उनके सामने आया तो वे मुस्कुरा पड़े। दरोगा खुश हो, जोरदार सेल्यूट देकर बोला - ‘सरकार! आपने हमें पहचाना?’ पन्तजी की मुस्कुराहट चौड़ी हो गई। बोले - ‘आपको तो चाह कर भी नहीं भूल सकते भाई! जब-जब पुरवाई चलती है, आप याद आ जाते हो।’ दरोगा झेंप गया। पन्तजी पर लाठियाँ भाँजनेवाला वही था।

सोच रहा हूँ, विधान सभा के चुनावों ने दस्तक दे दी है। ये चुनाव शिवराज और भाजपा के लिए जीवन-मरण जैसी लड़ाई है। खुद शिवराज या उनके सिपहसालार भाषणों, वक्तव्यों में जब शिक्षकों पर किया गया यह ‘उपकार’ याद दिलाएँगे तो इन अध्यापकों की दशा, मनोदशा क्या होगी? ‘पुरवाई’ इन्हें सताएगी या गुदगुदाएगी?

सच में, इन पौने तीन लाख अध्यापकों के विवेक, बुद्धि, संयम और संस्कारों की परीक्षा लेंगे ये चुनाव।
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वह धर्म जताता रहा, बीमे चले गए

और आखिकार वह हो ही हो गया जिसके लिये मैं मन ही मन मना रहा था कि ऐसा न हो। कभी न हो।

अपने धार्मिक आग्रहों का आक्रामक प्रकटीकरण आदमी को भले ही आत्म-सन्तुष्ट करे किन्तु वह अन्ततः हानिकारक ही होता है। इसका प्रभाव व्यापक होता है। आदमी का दायरा सिकुड़ता जाता है। वह अपने धर्म के अनुयायियों के बीच ही सिमटता जाता है। अपनों के बीच ही रहना आदमी की लोकप्रियता कम करता है। उसके चाहनेवालों की संख्या अपवादस्वरूप ही बढ़ती है। इसके विपरीत उसके न चाहनेवालों की संख्या बढ़ती जाती है। एक तो अपनेवालों को अपनेवाले की कमियाँ और अवगुण मालूम होते हैं और दूसरे, अपनेवालों के बीच एक अघोषित प्रतियोगिता सदैव बनी ही रहती है। ऐसे में, पराये तो पराये ही रहते हैं, सारे क सारे अपनेवाले भी अपनेवाले नहीं रह पाते। इन्हीं बातों के चलते मैं इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ कि मेरे धार्मिक आग्रह सामनेवाले को जाने-अनजाने आहत न कर दें।

यह बात मैं अपने साथी बीमा अभिकर्ताओं को निरन्तर कहता रहता हूँ। अभिकर्ताओं के प्रशिक्षण सत्रों मे जब भी मुझे बोलने का अवसर मिलता है तो मैं यह बात विशेष रूप से उल्लेखित करता हूँ। मैं बार-बार कहता हूँ हम हम अभिकर्ता व्यापारी/व्यवसायी हैं। हमारी जमात में और ग्राहकों में सभी धर्मों, जातियों के लोग शामिल हैं। इसलिए हमें पानी की तरह बने रहना चाहिए - जिसमें मिलें, हमारा रंग वैसा ही हो जाए। हमारे साथियों और ग्राहकों को लगना चाहिए कि हम उनके ही जैसे हैं। वे हमें अपने जैसा ही अनुभव करें। कुछ बरस पहले जब ‘कॉलर ट्यून’ का फैशन उफान पर था तब मेरे अनेक अभिकर्ता साथियों ने अपने-अपने धर्मों से जुड़े गीत, सबद, आरतियाँ आदि को अपनी कॉलर ट्यून बना रखी थीं। मैं उनसे कहता था कि ऐसा करना उनके लिए फायदेमन्द हो न हो, नुकसानदायक जरूर हो सकता है। लेकिन मेरी बात सुनने को न तब कोई तैयार था न अब है। लेकिन अभी-अभी वह हो ही गया। धार्मिक आग्रहों के आक्रामक प्रकटीकरण ने एक अभिकर्ता से दो बीमे छीन लिए।

एक रविवार सुबह एक अपरिचित ने, मेरे एक परिचित का हवाला देते हुए फोन किया। वे मुझसे फौरन ही मिलना चाहते थे। मैं फुरसत में तो नहीं था किन्तु जो काम हाथ में था, उसे बाद में भी किया जा सकता था। मैंने कहा - ‘फौरन पधार जाइए।’ बीस मिनिट बीतते-बीतते वे मेरे सामने थे। लेकिन अकेले नहीं, अपने दो बेटों के साथ। 

मुझे लगा, कोई सिफारिश का मामला होगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। उन्होंने मुझे ऐसा सुखद आश्चर्य दिया कि मैं अन्दर से हिल गया। आते ही बोले - ‘हम लोग बहुत जल्दी में हैं। दोनों बच्चों को अपनी-अपनी नौकरियों पर जाना है। आप फटाफट इन दोनों के बीमे कर दीजिए।’ मैंने कहा कि मुझे दोनों बच्चों से बात करनी पड़ेगी, उनका जानकारियाँ लेनी पड़ेंगी, थोड़ा वक्त तो लगेगा। उन्होंने कहा - ‘दोनों प्रायवेट कम्पनियों में नौकरी कर रहे हैं। एक तीन साल से दूसरा साढ़े चार साल से। बीमारी के बहाने एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है। दोनों का कोई अंग-भंग नहीं है। कोई शारीरिक विकृति नहीं है। हमारी फेमिली हिस्ट्री बढ़िया है। इनकी कोई बहन नहीं है। हम पति-पत्नी और ये दोनों पूर्ण स्वस्थ और सामान्य हैं। और क्या जानना है आपको?’ जिस तेजी से और धाराप्रवाह रूप से वे बोले और तमाम जानकारियाँ एक साँस में दे दीं, मुझे लगा, मैं बीमा प्रशिक्षण केन्द्र में एक कुशल व्याख्याता को सुन रहा हूँ। तनिक कठिनाई से, लगभग हकलाते हुए मैंने कहा - ‘लेकिन इन्हें कौन सी पालिसी देनी है, यह तो तय करना पड़ेगा।’ उसी अन्दाज में उन्होंने फटाफट दो बीमा योजनाओं के नाम बता दिए। कितने का बीमा करना है, यह भी बता दिया। बात जारी रखते हुए बोले - ‘मुझे किश्त की रकम भी मालूम है। आप तो फार्म निकालिए और फटाफट दोनों के सिगनेचर लीजिए। सारे कागज पूरे के पूरे साथ हैं।’ मैं चक्कर में पड़ गया था। कहाँ तो एक-एक ग्राहक के लिए पाँच-पाँच चक्कर लगाने पड़ते हैं, उसे और उसके पूरे परिवार को पॉलिसी के ब्यौरे बार-बार समझाने पड़ते हैं। तब भी, जब तक दस्तखत न कर दे और प्रीमीयम की रकम न दे-दे, तब तक धुकधुकी बनी रहती है कि कहीं आखिर क्षण में इंकार न कर दे और कहाँ ये सज्जन हैं जो खरीदने की उतावली में बेचनेवाले के घर चलकर आए हैं! 

मेरे लिए बोलने की तनिक भी गुंजाइश नहीं रही थी। मैंने दोनों के कागज देखे। सब बराबर थे। मैंने दोनों के शारीरिक माप लिए, वजन लिया, दस्तखत कराए और कहा - ‘इन दोनों का काम तो हो गया। आप चाहें तो इन्हें भेज दें और इनकी जानकारियाँ लिखवाने के लिए आप रुक जाएँ।’ उन्होंने ऐसा ही किया। 

बच्चों के जाने के बाद मैंने ब्यौरे लिखने शुरु किए तो नाम और पिता का नाम लिखने के बाद जैसे ही पता लिखने लगा तो मेरा हाथ रुक गया। मैं बीमा अभिकर्ताओं का छोटा-मोटा नेता भी हूँ। अधिकांश अभिकर्ताओं की फौरी जानकारियाँ मुझे हैं। जैसे ही उन्होंने पता बताया, मुझे याद आया कि उनके मकान के ठीक दो मकान आगे ही एक अभिकर्ता का निवास है। मैंने कहा - ‘आपके पड़ौस में ही एक बीमा ऐजेण्ट रहता है। उसे छोड़ आप करीब दो किलो मीटर दूर मेरे पास आए! क्या उसने आपसे कभी सम्पर्क नहीं किया?’ वे तनिक उग्र होकर बोले - ‘देखिए मैं तो आपको जानता भी नहीं। आपका नाम-पता तो मुझे उन्होंने (मेरे परिचित का नाम लिया) बताया। उन्होंने आपके काम की तारीफ भी। मैं आप पर नहीं, उन पर भरोसा करके आपके पास आया। हाँ! आपने सही कहा कि मेरे पास ही एक एजेण्ट रहता है। सच्ची बात तो यह है कि ये दोनों बीमे उसी से करवाने थे। सारी बातें और पॉलिसियाँ मुझे उसी ने समझाईं। लेकिन उसकी बार-बार की एक हरकत ने मुझे चिढ़ा दिया। इसी कारण आपके पास आया।’

मैं सतर्क हो गया। बीमा एजेण्ट में क्या खूबियाँ होनी चाहिएँ और कौन-कौन सी बातें नहीं होनी चाहिएँ, इसकी न तो कोई अन्तिम सूची होती है न ही कोई सीमा। ऐसी बातें जानने के लिए मैं सदैव उत्सुक और उतावला बना रहता हूँ। ऐसी जानकारियाँ मुझे सुधारने और बेहतर बनाने में बड़ी मददगार होती हैं। बीमे तो मुझे मिल ही गए थे, अब जो मिलनेवाला था वह मेरे लिए अतिरिक्त लाभ था। मैंने अपना पूरा ध्यान अब उनकी बात पर लगा दिया। बड़ी ही उग्रता और खिन्नता से बोले - ‘मैंने उसको बार-बार इशारों ही इशारों में समझाया लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं हुआ। मैं उसे नमस्कार करूँ और वह जवाब में अभिवादन करने के बजाय अपने धर्म-देव का जयकारा लगाए। मैंने कम से कम पाँच बार उससे नमस्कार किया लेकिन उसने जवाब में एक बार भी नमस्कार नहीं किया। हर बार अपने धर्म-देव की जय बोलता रहा। मैंने देखा कि इसमें इतनी भी सूझ-समझ और कॉमन सेंस नहीं कि ग्राहक की भावना की चिन्ता करे। उसे तो अपने धर्म की और अपने भगवान की ही चिन्ता है। तो मैंने तय किया कि जो मेरी, मेरी भावना की चिन्ता नहीं करे, उससे मुझे बीमे नहीं कराना। फिर मैं भी क्यों नहीं किसी अपने धर्मवाले से बीमा कराऊँ? इसलिए मैंने उन्हें (मेरे परिचित को) फोन किया। उन्होंने आपका नाम, अता-पता बताया और मैं आपके पास चला आया।’

मुझे काटो तो खून नहीं। बिना कोशिश के, घर बैठे बीमे (और बीमे भी अच्छे-खासे, बड़े) मिलने की खुशी उड़ गई। ये बीमे मुझे मेरे व्यावसायिक कौशल, ज्ञान, मेरे व्यवहार, मेरी उत्कृष्ट ग्राहक सेवाओं के दम पर नहीं, धर्म के नाम पर मिले थे। और वह भी अपने धर्म के प्रति प्रेम-भाव से नहीं, किसी और के धर्म के प्रति उपजी चिढ़, वितृष्णा के कारण मिले थे। उन्हें अपना धर्म याद नहीं आया था, किसी ने अपने धार्मिक आग्रहों का निरन्तर प्रकटीकरण कर, उन्हें उनका धर्म याद दिला दिया। वे पड़ोसी-धर्म के अधीन उससे बीमे कराना चाह रहे थे लेकिन वह पड़ोसी धर्म के मुकाबले अपने रूढ़ धर्म पर अड़ा रहा और न केवल दो बीमे खो दिए बल्कि एक अच्छे पड़ोसी की सद्भावनाएँ भी खो दीं। 

सच कह रहा हूँ, मुझे घर बैठे मिले इन दो बीमों की खुशी उतनी नहीं हो रही जितना कि एक बीमा एजेण्ट द्वारा अपना व्यावसायिक धर्म भूलने का और इसी कारण धन्धा खोने का दुख हो रहा है। पता नहीं, उस एजेण्ट ने धर्म की कीमत चुकाई या अपने धर्म की रक्षा की।

पता नहीं हम कब समझेंगे कि धर्म हमारा नितान्त व्यक्तिगत मामला होता है। जब हम अपने धार्मिक आग्रह सार्वजनिक करते हैं तो उसके नकारात्मक प्रभाव हमारी सार्वजनिकता पर होता है। यह बहुत बड़ा नुकसान है - व्यक्ति का भी, समाज का भी और देश का भी।
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फिक्र तो स्कूल ही करेंगे, हम फिक्र का जिक्र करेंगे

मेरा यह आलेख, दैनिक ‘सुबह सवेरे’ (भोपाल/इन्दौर) में 11 जनवरी 2017 को प्रकाशित हुआ था। 

इन्दौर में स्कूल बस की भीषण दुर्घटना में चार अबोध बच्चों के मरने की हृदय विदारक खबर की मर्मान्तक पीड़ा से उबरा भी नहीं हूँ कि बुधवार (दस जनवरी) के अखबारों ने घावों पर नमक छिड़क दिया है। मैं इतना असहज हूँ कि अपनी बात सिलसिले से शायद ही कह पाऊँ।

मंगलवार, नौ जनवरी को इन्दौर में हुई बैठक की सरकारी घोषणाएँ इस अन्दाज में छापी गई हैं मानो ऐसे रामबाण की व्यवस्था कर दी गई है जिससे अब ऐसी दुर्घटना कभी हो ही नहीं सकती। जबकि हकीकत यह है कि ऐसा कोई उपाय नहीं बताया गया है जो पहले से ही सरकार के पास उपलब्ध न रहा हो। बैठक के निष्कर्ष-समाचार पढ़-पढ़कर, सरकारी दफ्तरों का चिरपरिचित, लोकप्रिय जुमला याद आए बगैर नहीं रहता - ‘काम मत कर, काम की फिक्र कर, फिक्र का जिक्र कर।’ सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। ‘फिक्र का जिक्र’ कर रही है। 

दृढ़ निश्चयी मुद्रा में कठोरतापूर्वक लिए गए ऐतिहासिक निर्णयों को देखिए - 

(1) स्कूल वेन, ऑटो रिक्शा और मेजिक वाहनों में क्षमता से अधिक बच्चे न ले जाएँ। (अब तक यह व्यवस्था नहीं थी? यदि थी तो अब तक उसकी अनदेखी कौन करता रहा? अनदेखी करनेवाले पर कोई कार्यवाई की गई?) 

(2) स्कूल इन वाहनों के विकल्प तलाशें और तदनुरूप व्यवस्था करें। (याने, खुद सरकार इनके विकल्प नहीं जानती। निर्णय स्कूलों पर ही छोड़ दिया गया। विकल्प कब तक प्रस्तुत किए जाएँ, सुझाने पर उन पर निर्णय कब लिया जाएगा, यह सरकार भी नहीं जानती। जब तक विकल्प का निर्णय न हो तब तक बच्चे स्कूल कैसे जाएँगे, यह भी किसी को पता नहीं।) 

(3) प्रत्येक स्कूल शपथ-पत्र प्रस्तुत करे, याने सहमति दे कि स्कूल/स्कूल बस में कोई कमी मिली तो मान्यता निरस्त कर दी जाएगी। (मान्यता निरस्त करने के इन पैमानों की यह व्यवस्था अब तक नहीं थी?)

(4) बच्चों के परिवहन की व्यवस्था स्कूल खुद करें। (यह निर्णय सरकारी स्कूलों पर भी लागू होगा? केन्द्रीय विद्यालयों में यह व्यवस्था नहीं है। यह निर्णय उन पर भी लागू होगा? चौथी कक्षा तक सरकारी मान्यता की आवश्यकता नहीं। गली-गली में ऐसे स्कूल खुले हुए हैं। ऐसे स्कूलों के पास बस खरीदने की क्षमता नहीं होती। उनका क्या होगा?) 

(5) पन्द्रह वर्षों से पुरानी बसों को परिमिट नहीं दिए जाएँगे। ऐसी बसों को परमिट देनेवाले आरटीओ पर कार्यवाई की जाएगी। (वाहन का जीवनकाल शुरु से ही पन्द्रह वर्ष ही है। वाहनों का पंजीयन भी पन्द्रह वर्षों के लिए ही होता है। मेरे कस्बे के उदाहरणों के आधार पर कह रहा हूँ कि ‘वोट की राजनीति’ के चलते सरकार खुद ही इस निर्णय का उल्लंघन करती है। आरटीओ पर, तबादले के सिवाय किस तरह की कार्यवाई की जाएगी?) 

(6) स्पीड गवर्नर और जीपीएस उपकरण गुणवत्तापूर्ण होने चाहिए। (‘गुणवत्ता’ का कोई ब्यौरा नहीं दिया गया। स्कूलवाले दावा करेंगे कि उन्होंने तो गुणवत्तापूर्ण उपकरण ही लगाए थे। तब क्या होगा?) 

(7) तीस जनवरी तक वाहन चेकिंग का प्रदेशव्यापी अभियान चलाया जाएगा। (उसके बाद? क्या मान लिया गया है कि उसके बाद प्रदेश के तमाम स्कूलों की बसें निर्धारित मानकों का पालन कर चुकी होंगी और आगे भी करेंगी ही? या, 30 जनवरी के बाद फिर से पूर्वानुसार चलते रहने की छूट दे दी जाएगी? वाहनों की चेकिंग बारहों महीने क्यों नहीं? यह जिम्मेदारी से भागना नहीं?) 

(8) जिला स्तर पर कलेक्टर, एसपी की और अनुभाग स्तर पर एडीएम, एसडीओपी की कमेटी बनेगी जो पालकों से चर्चा कर, बच्चों की सुरक्षा के समुचित कदम उठाएगी और स्कूल बसों के लिए तय पैमानों का पालन कराएगी। (पालकों की सुनता ही कौन है? वे अफसरों के पास जाते हैं। लेकिन अफसरों के पास समय ही नहीं हैं कि चेम्बर से बाहर आकर उनकी बात सुनें। पूरी बात सुने बगैर ही नमस्कार कर लेते हैं। बहुत हुआ तो ‘नेक सलाह’ दे देते हैं - ‘इतनी तकलीफ है तो अपने बच्चों को ऐसे स्कूल से निकाल लें।’ स्कूलों की मान्यता के पैमाने, नियम, कायदे-कानून कितने पालकों को पता है?)

इस बैठक की दो विशेषताएँ रहीं। पहली - बसों में स्पीड गवर्नर, सीसीटीवी केमरे, जीपीएस उपकरण, सीट बेल्ट लगाने तथा अपडेटेड फर्स्ट एड बॉक्स रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 6 वर्ष पहले ही निर्देश दिए थे। कलेक्टर ने पूछा, उन्हें (स्कूलवालों को) आश्चर्य नहीं होता कि स्कूलवाले 6 वर्ष बाद भी इस आदेश का पालन नहीं कर रहे? कलेक्टर की कुर्सी पर आदमी भले ही बदला हो, कुर्सी तो सलामत थी! आश्चर्य है कि इन 6 वर्षों में किसी भी कलेक्टर को स्कूलों की इस लेतलाली पर आश्चर्य नहीं हुआ। 

दूसरी विशेषता - बैठक में प्रदेश के परिवहन मन्त्री और तमाम सरकारी अधिकारी मौजूद थे। नहीं थे तो केवल स्कूल मालिक। वे सब गैर हाजिर थे। किसी ने स्कूल के जन सम्पर्क अधिकारी को, किसी ने ट्रांसपोर्ट मेनेजर को तो किसी ने प्रशासनिक अधिकारी को भेज दिया। सावधानी का आलम यह कि एक ने  स्कूल के प्राचार्य को भी नहीं भेजा। यह गैर हाजरी न तो परिवहन मन्त्री के ध्यान में आई न ही कलेक्टर या अन्य किसी अधिकारी के। इस गैर हाजरी पर किसी को गुस्सा भी नहीं आया। तमाम स्कूल मालिकों का एक साथ गैरहाजिर रहना और इस गैरहाजरी पर सबका चुप रहना मात्र संयोग समझा जाए? यह सब योजनाबद्ध नहीं लगता? हो भी क्यों नहीं? राजनीतिक रैलियों के लिए स्कूल बसें कब्जे में की जाती रही हैं। इन बसों में नेताओं, अफसरों के परिवारों को पिकनिक पार्टियों में जाते मैंने देखा है। स्कूल परिसरों, संसाधनों का उपयोग राजनीतिक सम्मेलनों, बैठकों के लिए किया जाता है। परोक्ष राजनीतिक रैलियों के लिए इनके बच्चों का उपयोग किया जाता है। बच्चा-बच्चा जानता है कि केन्द्रीय स्तर से लेकर वार्ड स्तर तक के नेताओं के स्कूलों की भरमार है। उन स्कूलों की तरफ आँख उठाकर देखना याने अपनी नौकरी से हाथ धोना। 

सारी दुनिया जानती है कि यह गोरख धन्धा व्यापारियों, नेताओं और अफसरों की जुगलबन्दी से चल रहा है। मेरे कस्बे के एक सरकारी स्कूल के दिवंगत प्राचार्य के लिए कहा जाता है कि उन्होंने सरकारी स्कूल से एक निजी स्कूल निकाला, उसे पाला-पोसा, पुष्ट और स्थापित कर दिया। लेकिन तमाम सम्बन्धित मासूमों को इसकी जानकारी कभी नहीं हो पाई।

इन्दौर की इस बैठक में सारी जिम्मेदारी स्कूलों पर डाल कर सरकार बरी-जिम्मे हो गई है। जो भी करना है, स्कूल ही करेंगे। अपनी जिम्मेदारी निभाने में सरकारी अमला कितना लापरवाह है इसका नमूना, आठ लाख रुपये कीमत का वह स्पीड राडार है जो निर्धारित गति से तेज चलनेवाले वाहनों को पकड़ने के लिए मँगवाया गया था लेकिन एक साल से दफ्तर के सन्दूक में पड़ा-पड़ा खराब हो गया। किसी ने खोल कर देखा भी नहीं। 

मृतक हरप्रीत कौर की बिलखती माँ जसप्रीत कौर के उलाहने पर मुख्य मन्त्री बमुश्किल बोल पाए थे - ‘व्यवस्था सुधारेंगे।’ अपने कहे का मतलब तो खुद शिवराज ही जानें। लेकिन जहाँ स्कूली मान्यता का गुड़ रिश्वत की अँधेरी कोठरियों में फोड़ा जाता हो, वहाँ बसें, ऐसे ही, इसी तरह चलती रहेंगी। मँहगे स्पीड राडार सन्दूकों में पडे़-पड़े खराब होते रहेंगे। हरप्रीतें मरती रहेंगी। जसप्रीतें बिलखती रहेंगी। सरकार इसी तरह श्मशान वैराग्य के बोल बोलती रहेगी। और व्यवस्था? व्यवस्था इसी तरह चलती रहेगी। मनुष्य नश्वर है। व्यवस्था अजर-अमर है। ताज्जुब मत कीजिएगा यदि कल कोई मन्त्री कहे - ‘मनुष्य तो नाशवान है। बच्चों को तो मरना ही था। मौत को तो बहाना चाहिए।’

अपना यह वर्तमान खुद हमने ही चुना-बुना है। हमें अपने कर्म-फल तो भुगतने ही हैं।
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अनूठा नजदीकी रिश्तेदार

पूरे एक बरस पहले, 11 जनवरी 2017 को उन्हें देखा था। उस दिन सुबह ग्यारह बजे मेरे दा साहब माणक भाई अग्रवाल का दाह संस्कार था। उससे बहुत पहले से लोग आने शुरु हो गए थे। अधिकांश आगन्तुक परस्पर परिचित थे। सो, दो-दो, चार-चार के समूहों में बँटकर बातें कर रहे थे। कड़ाके की ठण्ड थी। मल्टी के पार्किंग एरिया में छाया का साम्राज्य कुछ ऐसा था कि था कि टिकने के लिए धूप को भी जगह मुश्किल से मिल रही थी। हर कोई धूप में आने का जतन कर रहा था। ‘वे’ भी अपनी कुर्सी उठाकर धूपवाले हिस्से में आ गए।

 वे किसी से बात नहीं कर रहे थे। चुपचाप, अपने आप में बैठे थे। उनका इस तरह चुपचाप बैठना, भीड़ में अपने एकाकीपन के साथ सहज बने रहना अब सबको जिज्ञासु बना चुका था। पूछा तो जवाब आया - ‘आय एम क्लोज रिलेटिव ऑफ माणक भाई।’ (मैं माणक भाई का नजदीकी रिश्तेदार हूँ।) जितने लोगों तक उनकी बात पहुँची वे सबके सब चौंके। दा साहब के अनेक ‘क्लोज रिलेटिव’ वहाँ मौजूद थे। वे सब एक दूसरे का मुँह देखने लगे। एक ने पूछा - ‘लेकिन आप उनके यहाँ किसी काम में कभी नजर नहीं आए।’ वे बोले - ‘यस। यू आर राइट।’ (हाँ। आप ठीक कह रहे हैं।) पूछा गया - ‘कभी उनके साथ बैठे हुए, उनसे बात करते हुए भी आप नजर नहीं आए।’ वे बोले - ‘आई नेव्हर मेट, नेव्हर सा माणक भाई।’ (मैं न तो माणक भाई से मिला हूँ न ही उन्हें देखा है।) 

मैं उनसे बहुत दूर नहीं था। सारा संवाद सुन पा रहा था। उनकी यह बात सुन मैं उनके पास पहुँचा और बोला - ‘आपकी बात लोगों को समझ में नहीं आ रही है। यदि आपको आती हो तो हिन्दी में बात कीजिए ना!’ वे बोले - ‘अरे! हिन्दी क्यों नहीं आएगी मुझे? आती है। आती है। आफ्टर ऑल आय एम इन्दौरी।’ मैंने पूछा - ‘आपने माणक भाई को कभी देखा नहीं, उनसे मिले नहीं और कह रहे हैं कि आप उनके नजदीकी रिश्तेदार हैं। मैं भी उनके परिवार का सदस्य जैसा ही हूँ। उनके अधिकांश रिश्तेदारों को जानता हूँ। लेकिन आप न तो कभी नजर आए न ही कभी दा’ साहब से आपका नाम, आपके बारे में कुछ सुना।’ उन्होंने मुझे घूर कर देखा। बोले - ‘अरे! आपने सुना नहीं मैंने क्या कहा? मैंने कहा है कि मैं उनसे न तो कभी मिला न ही मैंने उन्हें कभी देखा। वे भी मुझे नहीं जानते। तो मैं कैसे उनके साथ कभी नजर आता और कैसे वे कभी मेरा जिक्र करते?’ अब तक, वहाँ मौजूद लगभग सारे के सारे लोग उनके आसपास आ चुके थे। एक छोटी-मोटी भीड़ के बीच वे आकर्षण और कौतूहल का केन्द्र बन चुके थे। सबका कौतूहल चरम पर पहुँच चुका था। वे कभी हिन्दी तो कभी अंग्रेजी में बात कर रहे थे। हम सब जानने को अधीर थे - ‘दा साहब का यह ऐसा कैसा, कौन रिश्तेदार है जो उनसे कभी मिला नहीं, जिसने उन्हें कभी देखा नहीं?’ अब मुझसे नहीं रहा गया। संवाद सूत्र मैंने थाम लिया था। अजीजी से कहा - ‘आप बाकी सब कुछ कह रहे हैं लेकिन अपने बारे में कुछ नहीं कह रहे। प्लीज! अपना परिचय दीजिए।’ वे हँस कर बोले - ‘आपने जो-जो बात पूछी, सबका जवाब दिया। अब मेरा परिचय पूछा है तो बता रहा हूँ। आय एम डॉक्टर डी एस कापसे। रिटायर्ड डिप्टी डायरेक्टर ऑफ वेटेरनरी सर्विसेस।’ कहने को तो उन्होंने अपना परिचय दे दिया था लेकिन बात सुलझने के बजाय और उलझ गई। अब मैंने हथियार डाल दिए। कुछ चिढ़ और कुछ गिड़गिड़ाहट के मिलेजुले स्वरों में कहा - ‘थैंक्यू डॉक्टर साब। लेकिन आप उनके नजदीकी रिश्तेदार कैसे हुए?’ अपने आसपास घिरे हुए उत्सुक चेहरों पर नजर मारकर वे मुस्कुराकर बोले - ‘यस। आय एम हिज क्लोज रिलेटिव। बोथ ऑफ अस आर फ्रीडम फायटर्स।’ (हाँ। मैं उनका नजदीकी रिश्तेदार हूँ। हम दोनों ही स्वतन्त्रता संग्राम सेनानी हैं।) 

कापसे साब का जवाब सुनकर वहाँ सन्नाटा फैल गया। किसी के मुँह से बोल नहीं फूटा। हम सब एक-दूसरे की शकल देखने लगे। आपस में हम सब, दा’ साहब से अपनी नजदीकी जताने का हर सम्भव प्रयत्न कुछ  इस कर रहे थे मानो होड़ लगी हुई हो। लेकिन कापसे साहब ने ‘नजदीकी’ और ‘रिश्तेदारी’ की परिभाषा, उसका अर्थ ही बदल दिया। हममें से प्रत्येक यही मानकर आत्म-मुग्ध था कि एक वही दा साहब के सबसे नजदीक है। लेकिन कापसे साब के एक वाक्य ने  एक झटके में हम सबको बौना बना दिया। यह ऐसी रिश्तेदारी थी जिसका सूत्र हममें से किसी के पास नहीं था। दा साहब से कभी न मिलनेवाले, उन्हें कभी न देख पानेवाले कापसे साहब एक पल में दा साहब के सबसे नजदीकी बन गए थे। अब तक तो वे ही कह रहे थे लेकिन अब तो हम सब, बिना बोले मान रहे थे कि उनसे अधिक नजदीकी रिश्तेदार कोई नहीं था। यह ऐसा रिश्ता था जो केवल महसूस किया जा सकता।

अर्थी उठने से पहले तक कापसे साब से काफी बातें हुईं। नौ अगस्त 1942 के ऐतिहासिक दिन वे मुम्बई में धोबी तालाब वाले जलसे में मौजूद थे। गाँधीजी के आह्वान पर आजादी की लड़ाई में कूद पड़े थे। चालीस दिनों तक इन्दौर जेल में रहे। अखबार में उन्होंने दा साहब के निधन और अन्तिम संस्कार की खबर देखी/पढ़ी तो रिश्‍तेदारी निभाने आ गए। ऐसा वे, ऐसे प्रत्येक अवसर पर करते आए हैं। उन्होंने बताया कि नौकरी के दौरान वे मन्दसौर जिले में भी पदस्थ रहे। तब माणक भाई के बारे में सुना तो था लेकिन देखा-देखी कभी नहीं हुई।

उन्होंने अपना विजिटिंग कार्ड दिया। आप भी देखिए। अपने अते-पते के साथ, अपने ओहदे और कार्य-क्षेत्र के बारे में वे जिस ठसके से बता रहे हैं वह देख कर फिल्म शोले का संवाद बरबस ही याद आ जाता है - ‘हम अंगरेजों के जमाने के अफसर हैं।’

उनका पूरा नाम दत्‍तात्रय शंकर कापसे है। अपने जीवन के 92वें बरस में चल रहे कापसे साहब अपनी जीवन संगिनी अ. सौ. श्रीमती सुधा कापसे और बेटे-बहू के साथ पूर्ण स्वस्थ, सहज, सामान्य जीवन जी रहे हैं। हम सब उनके सुदीर्घ जीवन की कामना करें और ‘रिश्तेदारी’ की इस अभिनव परिभाषा के लिए उन्हें सलाम करें। 

कापसे साब जिन्दाबाद।
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पारिवारिक आयोजन का सार्वजनिकीकरण

दस दिसम्बर को छोटे बेटे तथागत का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हो गया। इस प्रसंग की जानकारी मैंने यथासम्भव निमन्त्रितों तक ही सीमित रखी। किन्तु अवचेतन में हुई दो-एक चूकों से कुछ मित्रों ने भाँप लिया। चित्तौड़गढ़ निवासी मधु जैन (रामपुरा में कॉलेज पढ़ाई के दौरान मैं जिस ‘नन्दलाल भण्डारी बोर्डिंग में रहता था, उसके तत्कालीन डीन आदरणीय चाँदमलजी भरकतिया की बिटिया) जैसे कृपालुओं ने सीधे-सीधे पूछा लिया तो इन्दौरवाले रमेश भाई बिन्दल जैसे कृपालुओं ने बधाइयाँ और शुभ-कामनाएँ बरसा दीं। किन्तु अनेक मित्रों ने पूछा - ‘इस विवाह की पूर्व जानकारी और विवाहोपरान्त नव-युगल के तथा समारोह के चित्र फेस बुक पर क्यों नहीं लगाए? वो तो अच्छा हुआ कि तुम्हारे कुछ चाहनेवाले हमारी फ्रेण्ड लिस्ट में भी हैं जिन्होंने तथागत की शादी की कुछ तस्वीरें लगा दीं और हमें मालूम हो गया।’ मुझ पर अपना प्रेमल अधिकार रखनेवाल कुछ मित्रों ने उलाहना दिया - “नहीं बुलाना था तो नहीं बुलाते। बरसों से फेस बुक पर बने हुए हो लेकिन फेस बुक के रीति-रिवाज, फेस बुक की ‘लोकलाज’ तो निभाते! शायद डर गए कि कहीं हम बिन बुलाए न आ धमकें। तुम्हें इस गुनाह की सजा मिलेगी जरूर। बरोब्बर मिलेगी।” विगलित और भावाकुल कर देनेवाली ऐसी ‘धमकियाँ’ भाग्यवानों को ही मिलती हैं।

कोई तीन बरस पहले तक मैं भी अपने चित्र अत्यन्त उत्साहपूर्वक फेस बुक पर लगाया करता था। लेकिन उन्हीं दिनों अचानक मुझे, रज्जू बाबू (स्वर्गीय श्री राजेन्द्र माथुर) से, बरसों पहले रतलाम में हुई बातचीत के फुटकर नोट्स मिल गए। वे एक व्याख्यान हेतु रतलाम आए थे। तब वे ‘नईदुनिया’ में थे। तब बातों-बातों में मैंने पूछा था कि ‘नईदुनिया’ में उनके और राहुलजी (बारपुते) के चित्र क्यों नहीं छपते। सपाट लहजे में उन्होंने कहा था - ‘अपने ही अखबार में अपने ही फोटू क्या छापना? बात तो तब है जब दूसरे लोग उनकेे अखबारों में अपने फोटू छापें।’ रज्जू बाबू की बात पढ़ते हुए मुझे 1967 में दादा बालकविजी की कही बात भी याद हो आई। उस याद ने रज्जू बाबू की कही बात की सान्द्रता कई गुना बढ़ा दी। उस बरस मैंने अपने कॉलेज (रामपुरा कॉलेज) की पत्रिका का सम्पादक नियुक्त किया गया था। तब ऑफसेट का नाम ही नाम सुनने में आता था। फोटुओं के ब्लॉक बनाए जाते थे जिसके लिए हमारा अंचल इन्दौर पर निर्भर रहता था। तब छापने के लिए ‘अच्छे’ फोटू खिंचवाना भी एक उत्सव-सत्र की तरह होता था। पत्रिका के लिए विभिन्न ग्रुप फोटूू खींचने के लिए नब्बे किलो मीटर दूर, मन्दसौर से, युनाइटेड फोटो स्टूडियोवाले बाबू भाई आए थे। हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. पूनमचन्दजी तिवारी ने सम्पादन की अकल दी थी। सम्पादकीय का शीर्षक ‘जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं’ बहुत पसन्द किया गया था। वह तिवारीजी ने ही तय किया था। बाद में मालूम हुआ था कि शीर्षक, साहिर के एक प्रसिद्ध शेर की दूसरी पंक्ति है। दादा ने पत्रिका देख कर यूँ तो सन्तोष ही जताया था किन्तु तनिक खिन्न होकर कहा था - ‘पत्रिका में तेरे तीन फोटू छपे हैं जबकि पत्रिका में तो सम्पादक की शकल भी नजर नहीं आनी चाहिए। उसका सम्पादन ही बोलता और नजर आना चाहिए।’    

बरसों पहले कही ये बातें पढ़कर मुझे लगा, देर से ही सही, मैंने खुद को सुधार लेना चाहिए। और मैं थोड़ा सा सुधर गया। अपने फोटू फेस बुक पर लगाना बन्द कर दिए। (अब सूझ रहा है, फेस बुक ‘सोशल’ मीडिया है, इसे ‘सोशल’ ही बनाए रखा जाना चाहिए। इसे निजी अखबार या निजी समाचार बुलेटिन क्यों बनाया जाए?)

वैसे भी मैं, ये बातें याद आने से पहले से ही (जब मैं फेस बुक पर अपने फोटू दिए जा रहा था तब भी), जन्म वर्ष गाँठ, विवाह वर्ष गाँठ जैसे प्रसंगों को नितान्त निजी प्रसंग मानता रहा हूँ जिनसे दुनिया का क्या लेना-देना? इसीलिए ऐसे प्रसंगों के अवसर परिवार के साथ ही गुजारे। इसीलिए मैंने तथागत के विवाह की (विवाह से पहले और बाद में) न तो बात की न ही चित्र सार्वजनिक किए। मधु को भी यह बात मैंने ‘मेसेंजर’ पर ही बताई थी।
हमारी जित्ती भाभी (श्रीमती हरजीत कौर भाटिया) ने विवाह के कुछ चित्र फेस बुक पर लगाए थे। उन्हीं से मित्रों को मालूम हुआ था। मित्रों के अत्यधिक आग्रह पर मैं दोनों बच्चों (नन्दनी और तथागत) का युगल चित्र दे रहा हूँ। समूचा आयोजन सचमुच में ‘निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास’ निपट गया। दोनों कुनबे जुट गए। सन्तोष की, उल्लेखनीय बात यह कि कोई बीमार नहीं हुआ, किसी का सामान चोरी नहीं हुआ और कोई रूठा नहीं। कोई महीने भर बाद जो खबरें मिल रही हैं वे कह रही हैं कि कोई भी खिन्न, असन्तुष्ट नहीं लौटा। इन्दौर निवासी रीनाजी चौरसिया और दिनेशजी चौरसिया की इकलौती बिटिया नन्दनी (वह अपना नाम ‘नन्दनी’ ही लिखती है, ‘नन्दिनी’ नहीं) हमारे परिवार की सदस्य बनी है। यह अन्तरजातीय प्रेम विवाह है जिसे दोनों कुनबों ने पूरे उत्साह-उल्लास से प्रेम-आनन्दपूर्वक सम्पन्न किया। 
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