फिक्र तो स्कूल ही करेंगे, हम फिक्र का जिक्र करेंगे

मेरा यह आलेख, दैनिक ‘सुबह सवेरे’ (भोपाल/इन्दौर) में 11 जनवरी 2017 को प्रकाशित हुआ था। 

इन्दौर में स्कूल बस की भीषण दुर्घटना में चार अबोध बच्चों के मरने की हृदय विदारक खबर की मर्मान्तक पीड़ा से उबरा भी नहीं हूँ कि बुधवार (दस जनवरी) के अखबारों ने घावों पर नमक छिड़क दिया है। मैं इतना असहज हूँ कि अपनी बात सिलसिले से शायद ही कह पाऊँ।

मंगलवार, नौ जनवरी को इन्दौर में हुई बैठक की सरकारी घोषणाएँ इस अन्दाज में छापी गई हैं मानो ऐसे रामबाण की व्यवस्था कर दी गई है जिससे अब ऐसी दुर्घटना कभी हो ही नहीं सकती। जबकि हकीकत यह है कि ऐसा कोई उपाय नहीं बताया गया है जो पहले से ही सरकार के पास उपलब्ध न रहा हो। बैठक के निष्कर्ष-समाचार पढ़-पढ़कर, सरकारी दफ्तरों का चिरपरिचित, लोकप्रिय जुमला याद आए बगैर नहीं रहता - ‘काम मत कर, काम की फिक्र कर, फिक्र का जिक्र कर।’ सरकार ने अपनी जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ लिया है। ‘फिक्र का जिक्र’ कर रही है। 

दृढ़ निश्चयी मुद्रा में कठोरतापूर्वक लिए गए ऐतिहासिक निर्णयों को देखिए - 

(1) स्कूल वेन, ऑटो रिक्शा और मेजिक वाहनों में क्षमता से अधिक बच्चे न ले जाएँ। (अब तक यह व्यवस्था नहीं थी? यदि थी तो अब तक उसकी अनदेखी कौन करता रहा? अनदेखी करनेवाले पर कोई कार्यवाई की गई?) 

(2) स्कूल इन वाहनों के विकल्प तलाशें और तदनुरूप व्यवस्था करें। (याने, खुद सरकार इनके विकल्प नहीं जानती। निर्णय स्कूलों पर ही छोड़ दिया गया। विकल्प कब तक प्रस्तुत किए जाएँ, सुझाने पर उन पर निर्णय कब लिया जाएगा, यह सरकार भी नहीं जानती। जब तक विकल्प का निर्णय न हो तब तक बच्चे स्कूल कैसे जाएँगे, यह भी किसी को पता नहीं।) 

(3) प्रत्येक स्कूल शपथ-पत्र प्रस्तुत करे, याने सहमति दे कि स्कूल/स्कूल बस में कोई कमी मिली तो मान्यता निरस्त कर दी जाएगी। (मान्यता निरस्त करने के इन पैमानों की यह व्यवस्था अब तक नहीं थी?)

(4) बच्चों के परिवहन की व्यवस्था स्कूल खुद करें। (यह निर्णय सरकारी स्कूलों पर भी लागू होगा? केन्द्रीय विद्यालयों में यह व्यवस्था नहीं है। यह निर्णय उन पर भी लागू होगा? चौथी कक्षा तक सरकारी मान्यता की आवश्यकता नहीं। गली-गली में ऐसे स्कूल खुले हुए हैं। ऐसे स्कूलों के पास बस खरीदने की क्षमता नहीं होती। उनका क्या होगा?) 

(5) पन्द्रह वर्षों से पुरानी बसों को परिमिट नहीं दिए जाएँगे। ऐसी बसों को परमिट देनेवाले आरटीओ पर कार्यवाई की जाएगी। (वाहन का जीवनकाल शुरु से ही पन्द्रह वर्ष ही है। वाहनों का पंजीयन भी पन्द्रह वर्षों के लिए ही होता है। मेरे कस्बे के उदाहरणों के आधार पर कह रहा हूँ कि ‘वोट की राजनीति’ के चलते सरकार खुद ही इस निर्णय का उल्लंघन करती है। आरटीओ पर, तबादले के सिवाय किस तरह की कार्यवाई की जाएगी?) 

(6) स्पीड गवर्नर और जीपीएस उपकरण गुणवत्तापूर्ण होने चाहिए। (‘गुणवत्ता’ का कोई ब्यौरा नहीं दिया गया। स्कूलवाले दावा करेंगे कि उन्होंने तो गुणवत्तापूर्ण उपकरण ही लगाए थे। तब क्या होगा?) 

(7) तीस जनवरी तक वाहन चेकिंग का प्रदेशव्यापी अभियान चलाया जाएगा। (उसके बाद? क्या मान लिया गया है कि उसके बाद प्रदेश के तमाम स्कूलों की बसें निर्धारित मानकों का पालन कर चुकी होंगी और आगे भी करेंगी ही? या, 30 जनवरी के बाद फिर से पूर्वानुसार चलते रहने की छूट दे दी जाएगी? वाहनों की चेकिंग बारहों महीने क्यों नहीं? यह जिम्मेदारी से भागना नहीं?) 

(8) जिला स्तर पर कलेक्टर, एसपी की और अनुभाग स्तर पर एडीएम, एसडीओपी की कमेटी बनेगी जो पालकों से चर्चा कर, बच्चों की सुरक्षा के समुचित कदम उठाएगी और स्कूल बसों के लिए तय पैमानों का पालन कराएगी। (पालकों की सुनता ही कौन है? वे अफसरों के पास जाते हैं। लेकिन अफसरों के पास समय ही नहीं हैं कि चेम्बर से बाहर आकर उनकी बात सुनें। पूरी बात सुने बगैर ही नमस्कार कर लेते हैं। बहुत हुआ तो ‘नेक सलाह’ दे देते हैं - ‘इतनी तकलीफ है तो अपने बच्चों को ऐसे स्कूल से निकाल लें।’ स्कूलों की मान्यता के पैमाने, नियम, कायदे-कानून कितने पालकों को पता है?)

इस बैठक की दो विशेषताएँ रहीं। पहली - बसों में स्पीड गवर्नर, सीसीटीवी केमरे, जीपीएस उपकरण, सीट बेल्ट लगाने तथा अपडेटेड फर्स्ट एड बॉक्स रखने के लिए सुप्रीम कोर्ट ने 6 वर्ष पहले ही निर्देश दिए थे। कलेक्टर ने पूछा, उन्हें (स्कूलवालों को) आश्चर्य नहीं होता कि स्कूलवाले 6 वर्ष बाद भी इस आदेश का पालन नहीं कर रहे? कलेक्टर की कुर्सी पर आदमी भले ही बदला हो, कुर्सी तो सलामत थी! आश्चर्य है कि इन 6 वर्षों में किसी भी कलेक्टर को स्कूलों की इस लेतलाली पर आश्चर्य नहीं हुआ। 

दूसरी विशेषता - बैठक में प्रदेश के परिवहन मन्त्री और तमाम सरकारी अधिकारी मौजूद थे। नहीं थे तो केवल स्कूल मालिक। वे सब गैर हाजिर थे। किसी ने स्कूल के जन सम्पर्क अधिकारी को, किसी ने ट्रांसपोर्ट मेनेजर को तो किसी ने प्रशासनिक अधिकारी को भेज दिया। सावधानी का आलम यह कि एक ने  स्कूल के प्राचार्य को भी नहीं भेजा। यह गैर हाजरी न तो परिवहन मन्त्री के ध्यान में आई न ही कलेक्टर या अन्य किसी अधिकारी के। इस गैर हाजरी पर किसी को गुस्सा भी नहीं आया। तमाम स्कूल मालिकों का एक साथ गैरहाजिर रहना और इस गैरहाजरी पर सबका चुप रहना मात्र संयोग समझा जाए? यह सब योजनाबद्ध नहीं लगता? हो भी क्यों नहीं? राजनीतिक रैलियों के लिए स्कूल बसें कब्जे में की जाती रही हैं। इन बसों में नेताओं, अफसरों के परिवारों को पिकनिक पार्टियों में जाते मैंने देखा है। स्कूल परिसरों, संसाधनों का उपयोग राजनीतिक सम्मेलनों, बैठकों के लिए किया जाता है। परोक्ष राजनीतिक रैलियों के लिए इनके बच्चों का उपयोग किया जाता है। बच्चा-बच्चा जानता है कि केन्द्रीय स्तर से लेकर वार्ड स्तर तक के नेताओं के स्कूलों की भरमार है। उन स्कूलों की तरफ आँख उठाकर देखना याने अपनी नौकरी से हाथ धोना। 

सारी दुनिया जानती है कि यह गोरख धन्धा व्यापारियों, नेताओं और अफसरों की जुगलबन्दी से चल रहा है। मेरे कस्बे के एक सरकारी स्कूल के दिवंगत प्राचार्य के लिए कहा जाता है कि उन्होंने सरकारी स्कूल से एक निजी स्कूल निकाला, उसे पाला-पोसा, पुष्ट और स्थापित कर दिया। लेकिन तमाम सम्बन्धित मासूमों को इसकी जानकारी कभी नहीं हो पाई।

इन्दौर की इस बैठक में सारी जिम्मेदारी स्कूलों पर डाल कर सरकार बरी-जिम्मे हो गई है। जो भी करना है, स्कूल ही करेंगे। अपनी जिम्मेदारी निभाने में सरकारी अमला कितना लापरवाह है इसका नमूना, आठ लाख रुपये कीमत का वह स्पीड राडार है जो निर्धारित गति से तेज चलनेवाले वाहनों को पकड़ने के लिए मँगवाया गया था लेकिन एक साल से दफ्तर के सन्दूक में पड़ा-पड़ा खराब हो गया। किसी ने खोल कर देखा भी नहीं। 

मृतक हरप्रीत कौर की बिलखती माँ जसप्रीत कौर के उलाहने पर मुख्य मन्त्री बमुश्किल बोल पाए थे - ‘व्यवस्था सुधारेंगे।’ अपने कहे का मतलब तो खुद शिवराज ही जानें। लेकिन जहाँ स्कूली मान्यता का गुड़ रिश्वत की अँधेरी कोठरियों में फोड़ा जाता हो, वहाँ बसें, ऐसे ही, इसी तरह चलती रहेंगी। मँहगे स्पीड राडार सन्दूकों में पडे़-पड़े खराब होते रहेंगे। हरप्रीतें मरती रहेंगी। जसप्रीतें बिलखती रहेंगी। सरकार इसी तरह श्मशान वैराग्य के बोल बोलती रहेगी। और व्यवस्था? व्यवस्था इसी तरह चलती रहेगी। मनुष्य नश्वर है। व्यवस्था अजर-अमर है। ताज्जुब मत कीजिएगा यदि कल कोई मन्त्री कहे - ‘मनुष्य तो नाशवान है। बच्चों को तो मरना ही था। मौत को तो बहाना चाहिए।’

अपना यह वर्तमान खुद हमने ही चुना-बुना है। हमें अपने कर्म-फल तो भुगतने ही हैं।
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