दस दिसम्बर को छोटे बेटे तथागत का पाणिग्रहण संस्कार सम्पन्न हो गया। इस प्रसंग की जानकारी मैंने यथासम्भव निमन्त्रितों तक ही सीमित रखी। किन्तु अवचेतन में हुई दो-एक चूकों से कुछ मित्रों ने भाँप लिया। चित्तौड़गढ़ निवासी मधु जैन (रामपुरा में कॉलेज पढ़ाई के दौरान मैं जिस ‘नन्दलाल भण्डारी बोर्डिंग में रहता था, उसके तत्कालीन डीन आदरणीय चाँदमलजी भरकतिया की बिटिया) जैसे कृपालुओं ने सीधे-सीधे पूछा लिया तो इन्दौरवाले रमेश भाई बिन्दल जैसे कृपालुओं ने बधाइयाँ और शुभ-कामनाएँ बरसा दीं। किन्तु अनेक मित्रों ने पूछा - ‘इस विवाह की पूर्व जानकारी और विवाहोपरान्त नव-युगल के तथा समारोह के चित्र फेस बुक पर क्यों नहीं लगाए? वो तो अच्छा हुआ कि तुम्हारे कुछ चाहनेवाले हमारी फ्रेण्ड लिस्ट में भी हैं जिन्होंने तथागत की शादी की कुछ तस्वीरें लगा दीं और हमें मालूम हो गया।’ मुझ पर अपना प्रेमल अधिकार रखनेवाल कुछ मित्रों ने उलाहना दिया - “नहीं बुलाना था तो नहीं बुलाते। बरसों से फेस बुक पर बने हुए हो लेकिन फेस बुक के रीति-रिवाज, फेस बुक की ‘लोकलाज’ तो निभाते! शायद डर गए कि कहीं हम बिन बुलाए न आ धमकें। तुम्हें इस गुनाह की सजा मिलेगी जरूर। बरोब्बर मिलेगी।” विगलित और भावाकुल कर देनेवाली ऐसी ‘धमकियाँ’ भाग्यवानों को ही मिलती हैं।
कोई तीन बरस पहले तक मैं भी अपने चित्र अत्यन्त उत्साहपूर्वक फेस बुक पर लगाया करता था। लेकिन उन्हीं दिनों अचानक मुझे, रज्जू बाबू (स्वर्गीय श्री राजेन्द्र माथुर) से, बरसों पहले रतलाम में हुई बातचीत के फुटकर नोट्स मिल गए। वे एक व्याख्यान हेतु रतलाम आए थे। तब वे ‘नईदुनिया’ में थे। तब बातों-बातों में मैंने पूछा था कि ‘नईदुनिया’ में उनके और राहुलजी (बारपुते) के चित्र क्यों नहीं छपते। सपाट लहजे में उन्होंने कहा था - ‘अपने ही अखबार में अपने ही फोटू क्या छापना? बात तो तब है जब दूसरे लोग उनकेे अखबारों में अपने फोटू छापें।’ रज्जू बाबू की बात पढ़ते हुए मुझे 1967 में दादा बालकविजी की कही बात भी याद हो आई। उस याद ने रज्जू बाबू की कही बात की सान्द्रता कई गुना बढ़ा दी। उस बरस मैंने अपने कॉलेज (रामपुरा कॉलेज) की पत्रिका का सम्पादक नियुक्त किया गया था। तब ऑफसेट का नाम ही नाम सुनने में आता था। फोटुओं के ब्लॉक बनाए जाते थे जिसके लिए हमारा अंचल इन्दौर पर निर्भर रहता था। तब छापने के लिए ‘अच्छे’ फोटू खिंचवाना भी एक उत्सव-सत्र की तरह होता था। पत्रिका के लिए विभिन्न ग्रुप फोटूू खींचने के लिए नब्बे किलो मीटर दूर, मन्दसौर से, युनाइटेड फोटो स्टूडियोवाले बाबू भाई आए थे। हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. पूनमचन्दजी तिवारी ने सम्पादन की अकल दी थी। सम्पादकीय का शीर्षक ‘जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं’ बहुत पसन्द किया गया था। वह तिवारीजी ने ही तय किया था। बाद में मालूम हुआ था कि शीर्षक, साहिर के एक प्रसिद्ध शेर की दूसरी पंक्ति है। दादा ने पत्रिका देख कर यूँ तो सन्तोष ही जताया था किन्तु तनिक खिन्न होकर कहा था - ‘पत्रिका में तेरे तीन फोटू छपे हैं जबकि पत्रिका में तो सम्पादक की शकल भी नजर नहीं आनी चाहिए। उसका सम्पादन ही बोलता और नजर आना चाहिए।’
बरसों पहले कही ये बातें पढ़कर मुझे लगा, देर से ही सही, मैंने खुद को सुधार लेना चाहिए। और मैं थोड़ा सा सुधर गया। अपने फोटू फेस बुक पर लगाना बन्द कर दिए। (अब सूझ रहा है, फेस बुक ‘सोशल’ मीडिया है, इसे ‘सोशल’ ही बनाए रखा जाना चाहिए। इसे निजी अखबार या निजी समाचार बुलेटिन क्यों बनाया जाए?)
वैसे भी मैं, ये बातें याद आने से पहले से ही (जब मैं फेस बुक पर अपने फोटू दिए जा रहा था तब भी), जन्म वर्ष गाँठ, विवाह वर्ष गाँठ जैसे प्रसंगों को नितान्त निजी प्रसंग मानता रहा हूँ जिनसे दुनिया का क्या लेना-देना? इसीलिए ऐसे प्रसंगों के अवसर परिवार के साथ ही गुजारे। इसीलिए मैंने तथागत के विवाह की (विवाह से पहले और बाद में) न तो बात की न ही चित्र सार्वजनिक किए। मधु को भी यह बात मैंने ‘मेसेंजर’ पर ही बताई थी।
हमारी जित्ती भाभी (श्रीमती हरजीत कौर भाटिया) ने विवाह के कुछ चित्र फेस बुक पर लगाए थे। उन्हीं से मित्रों को मालूम हुआ था। मित्रों के अत्यधिक आग्रह पर मैं दोनों बच्चों (नन्दनी और तथागत) का युगल चित्र दे रहा हूँ। समूचा आयोजन सचमुच में ‘निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास’ निपट गया। दोनों कुनबे जुट गए। सन्तोष की, उल्लेखनीय बात यह कि कोई बीमार नहीं हुआ, किसी का सामान चोरी नहीं हुआ और कोई रूठा नहीं। कोई महीने भर बाद जो खबरें मिल रही हैं वे कह रही हैं कि कोई भी खिन्न, असन्तुष्ट नहीं लौटा। इन्दौर निवासी रीनाजी चौरसिया और दिनेशजी चौरसिया की इकलौती बिटिया नन्दनी (वह अपना नाम ‘नन्दनी’ ही लिखती है, ‘नन्दिनी’ नहीं) हमारे परिवार की सदस्य बनी है। यह अन्तरजातीय प्रेम विवाह है जिसे दोनों कुनबों ने पूरे उत्साह-उल्लास से प्रेम-आनन्दपूर्वक सम्पन्न किया।
कोई तीन बरस पहले तक मैं भी अपने चित्र अत्यन्त उत्साहपूर्वक फेस बुक पर लगाया करता था। लेकिन उन्हीं दिनों अचानक मुझे, रज्जू बाबू (स्वर्गीय श्री राजेन्द्र माथुर) से, बरसों पहले रतलाम में हुई बातचीत के फुटकर नोट्स मिल गए। वे एक व्याख्यान हेतु रतलाम आए थे। तब वे ‘नईदुनिया’ में थे। तब बातों-बातों में मैंने पूछा था कि ‘नईदुनिया’ में उनके और राहुलजी (बारपुते) के चित्र क्यों नहीं छपते। सपाट लहजे में उन्होंने कहा था - ‘अपने ही अखबार में अपने ही फोटू क्या छापना? बात तो तब है जब दूसरे लोग उनकेे अखबारों में अपने फोटू छापें।’ रज्जू बाबू की बात पढ़ते हुए मुझे 1967 में दादा बालकविजी की कही बात भी याद हो आई। उस याद ने रज्जू बाबू की कही बात की सान्द्रता कई गुना बढ़ा दी। उस बरस मैंने अपने कॉलेज (रामपुरा कॉलेज) की पत्रिका का सम्पादक नियुक्त किया गया था। तब ऑफसेट का नाम ही नाम सुनने में आता था। फोटुओं के ब्लॉक बनाए जाते थे जिसके लिए हमारा अंचल इन्दौर पर निर्भर रहता था। तब छापने के लिए ‘अच्छे’ फोटू खिंचवाना भी एक उत्सव-सत्र की तरह होता था। पत्रिका के लिए विभिन्न ग्रुप फोटूू खींचने के लिए नब्बे किलो मीटर दूर, मन्दसौर से, युनाइटेड फोटो स्टूडियोवाले बाबू भाई आए थे। हिन्दी विभागाध्यक्ष प्रो. पूनमचन्दजी तिवारी ने सम्पादन की अकल दी थी। सम्पादकीय का शीर्षक ‘जो कुछ मुझे दिया है, लौटा रहा हूँ मैं’ बहुत पसन्द किया गया था। वह तिवारीजी ने ही तय किया था। बाद में मालूम हुआ था कि शीर्षक, साहिर के एक प्रसिद्ध शेर की दूसरी पंक्ति है। दादा ने पत्रिका देख कर यूँ तो सन्तोष ही जताया था किन्तु तनिक खिन्न होकर कहा था - ‘पत्रिका में तेरे तीन फोटू छपे हैं जबकि पत्रिका में तो सम्पादक की शकल भी नजर नहीं आनी चाहिए। उसका सम्पादन ही बोलता और नजर आना चाहिए।’
बरसों पहले कही ये बातें पढ़कर मुझे लगा, देर से ही सही, मैंने खुद को सुधार लेना चाहिए। और मैं थोड़ा सा सुधर गया। अपने फोटू फेस बुक पर लगाना बन्द कर दिए। (अब सूझ रहा है, फेस बुक ‘सोशल’ मीडिया है, इसे ‘सोशल’ ही बनाए रखा जाना चाहिए। इसे निजी अखबार या निजी समाचार बुलेटिन क्यों बनाया जाए?)
वैसे भी मैं, ये बातें याद आने से पहले से ही (जब मैं फेस बुक पर अपने फोटू दिए जा रहा था तब भी), जन्म वर्ष गाँठ, विवाह वर्ष गाँठ जैसे प्रसंगों को नितान्त निजी प्रसंग मानता रहा हूँ जिनसे दुनिया का क्या लेना-देना? इसीलिए ऐसे प्रसंगों के अवसर परिवार के साथ ही गुजारे। इसीलिए मैंने तथागत के विवाह की (विवाह से पहले और बाद में) न तो बात की न ही चित्र सार्वजनिक किए। मधु को भी यह बात मैंने ‘मेसेंजर’ पर ही बताई थी।
हमारी जित्ती भाभी (श्रीमती हरजीत कौर भाटिया) ने विवाह के कुछ चित्र फेस बुक पर लगाए थे। उन्हीं से मित्रों को मालूम हुआ था। मित्रों के अत्यधिक आग्रह पर मैं दोनों बच्चों (नन्दनी और तथागत) का युगल चित्र दे रहा हूँ। समूचा आयोजन सचमुच में ‘निर्विघ्न, सानन्द, सोल्लास’ निपट गया। दोनों कुनबे जुट गए। सन्तोष की, उल्लेखनीय बात यह कि कोई बीमार नहीं हुआ, किसी का सामान चोरी नहीं हुआ और कोई रूठा नहीं। कोई महीने भर बाद जो खबरें मिल रही हैं वे कह रही हैं कि कोई भी खिन्न, असन्तुष्ट नहीं लौटा। इन्दौर निवासी रीनाजी चौरसिया और दिनेशजी चौरसिया की इकलौती बिटिया नन्दनी (वह अपना नाम ‘नन्दनी’ ही लिखती है, ‘नन्दिनी’ नहीं) हमारे परिवार की सदस्य बनी है। यह अन्तरजातीय प्रेम विवाह है जिसे दोनों कुनबों ने पूरे उत्साह-उल्लास से प्रेम-आनन्दपूर्वक सम्पन्न किया।
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आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-01-2018) को "हाथों में पिस्तौल" (चर्चा अंक-2841) पर भी होगी।
ReplyDelete--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteतथागत और नन्दनी को बधाई और मंगलकमनाये।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद। अत्यधिक विलम्बित उत्तर के लिए करबध्द क्षमा-याचना करता हूॅँँ।
Deleteब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, १०० में से ९९ बेईमान ... फ़िर भी मेरा भारत महान “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद।
Deleteपूरे परिवार को बधाई और शुभकामनाएं।
ReplyDeleteबहुत-बहुत धन्यवाद सुशीलजी।
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