और आखिकार वह हो ही हो गया जिसके लिये मैं मन ही मन मना रहा था कि ऐसा न हो। कभी न हो।
अपने धार्मिक आग्रहों का आक्रामक प्रकटीकरण आदमी को भले ही आत्म-सन्तुष्ट करे किन्तु वह अन्ततः हानिकारक ही होता है। इसका प्रभाव व्यापक होता है। आदमी का दायरा सिकुड़ता जाता है। वह अपने धर्म के अनुयायियों के बीच ही सिमटता जाता है। अपनों के बीच ही रहना आदमी की लोकप्रियता कम करता है। उसके चाहनेवालों की संख्या अपवादस्वरूप ही बढ़ती है। इसके विपरीत उसके न चाहनेवालों की संख्या बढ़ती जाती है। एक तो अपनेवालों को अपनेवाले की कमियाँ और अवगुण मालूम होते हैं और दूसरे, अपनेवालों के बीच एक अघोषित प्रतियोगिता सदैव बनी ही रहती है। ऐसे में, पराये तो पराये ही रहते हैं, सारे क सारे अपनेवाले भी अपनेवाले नहीं रह पाते। इन्हीं बातों के चलते मैं इस बात का विशेष ध्यान रखता हूँ कि मेरे धार्मिक आग्रह सामनेवाले को जाने-अनजाने आहत न कर दें।
यह बात मैं अपने साथी बीमा अभिकर्ताओं को निरन्तर कहता रहता हूँ। अभिकर्ताओं के प्रशिक्षण सत्रों मे जब भी मुझे बोलने का अवसर मिलता है तो मैं यह बात विशेष रूप से उल्लेखित करता हूँ। मैं बार-बार कहता हूँ हम हम अभिकर्ता व्यापारी/व्यवसायी हैं। हमारी जमात में और ग्राहकों में सभी धर्मों, जातियों के लोग शामिल हैं। इसलिए हमें पानी की तरह बने रहना चाहिए - जिसमें मिलें, हमारा रंग वैसा ही हो जाए। हमारे साथियों और ग्राहकों को लगना चाहिए कि हम उनके ही जैसे हैं। वे हमें अपने जैसा ही अनुभव करें। कुछ बरस पहले जब ‘कॉलर ट्यून’ का फैशन उफान पर था तब मेरे अनेक अभिकर्ता साथियों ने अपने-अपने धर्मों से जुड़े गीत, सबद, आरतियाँ आदि को अपनी कॉलर ट्यून बना रखी थीं। मैं उनसे कहता था कि ऐसा करना उनके लिए फायदेमन्द हो न हो, नुकसानदायक जरूर हो सकता है। लेकिन मेरी बात सुनने को न तब कोई तैयार था न अब है। लेकिन अभी-अभी वह हो ही गया। धार्मिक आग्रहों के आक्रामक प्रकटीकरण ने एक अभिकर्ता से दो बीमे छीन लिए।
एक रविवार सुबह एक अपरिचित ने, मेरे एक परिचित का हवाला देते हुए फोन किया। वे मुझसे फौरन ही मिलना चाहते थे। मैं फुरसत में तो नहीं था किन्तु जो काम हाथ में था, उसे बाद में भी किया जा सकता था। मैंने कहा - ‘फौरन पधार जाइए।’ बीस मिनिट बीतते-बीतते वे मेरे सामने थे। लेकिन अकेले नहीं, अपने दो बेटों के साथ।
मुझे लगा, कोई सिफारिश का मामला होगा। लेकिन ऐसा कुछ भी नहीं था। उन्होंने मुझे ऐसा सुखद आश्चर्य दिया कि मैं अन्दर से हिल गया। आते ही बोले - ‘हम लोग बहुत जल्दी में हैं। दोनों बच्चों को अपनी-अपनी नौकरियों पर जाना है। आप फटाफट इन दोनों के बीमे कर दीजिए।’ मैंने कहा कि मुझे दोनों बच्चों से बात करनी पड़ेगी, उनका जानकारियाँ लेनी पड़ेंगी, थोड़ा वक्त तो लगेगा। उन्होंने कहा - ‘दोनों प्रायवेट कम्पनियों में नौकरी कर रहे हैं। एक तीन साल से दूसरा साढ़े चार साल से। बीमारी के बहाने एक दिन की भी छुट्टी नहीं ली है। दोनों का कोई अंग-भंग नहीं है। कोई शारीरिक विकृति नहीं है। हमारी फेमिली हिस्ट्री बढ़िया है। इनकी कोई बहन नहीं है। हम पति-पत्नी और ये दोनों पूर्ण स्वस्थ और सामान्य हैं। और क्या जानना है आपको?’ जिस तेजी से और धाराप्रवाह रूप से वे बोले और तमाम जानकारियाँ एक साँस में दे दीं, मुझे लगा, मैं बीमा प्रशिक्षण केन्द्र में एक कुशल व्याख्याता को सुन रहा हूँ। तनिक कठिनाई से, लगभग हकलाते हुए मैंने कहा - ‘लेकिन इन्हें कौन सी पालिसी देनी है, यह तो तय करना पड़ेगा।’ उसी अन्दाज में उन्होंने फटाफट दो बीमा योजनाओं के नाम बता दिए। कितने का बीमा करना है, यह भी बता दिया। बात जारी रखते हुए बोले - ‘मुझे किश्त की रकम भी मालूम है। आप तो फार्म निकालिए और फटाफट दोनों के सिगनेचर लीजिए। सारे कागज पूरे के पूरे साथ हैं।’ मैं चक्कर में पड़ गया था। कहाँ तो एक-एक ग्राहक के लिए पाँच-पाँच चक्कर लगाने पड़ते हैं, उसे और उसके पूरे परिवार को पॉलिसी के ब्यौरे बार-बार समझाने पड़ते हैं। तब भी, जब तक दस्तखत न कर दे और प्रीमीयम की रकम न दे-दे, तब तक धुकधुकी बनी रहती है कि कहीं आखिर क्षण में इंकार न कर दे और कहाँ ये सज्जन हैं जो खरीदने की उतावली में बेचनेवाले के घर चलकर आए हैं!
मेरे लिए बोलने की तनिक भी गुंजाइश नहीं रही थी। मैंने दोनों के कागज देखे। सब बराबर थे। मैंने दोनों के शारीरिक माप लिए, वजन लिया, दस्तखत कराए और कहा - ‘इन दोनों का काम तो हो गया। आप चाहें तो इन्हें भेज दें और इनकी जानकारियाँ लिखवाने के लिए आप रुक जाएँ।’ उन्होंने ऐसा ही किया।
बच्चों के जाने के बाद मैंने ब्यौरे लिखने शुरु किए तो नाम और पिता का नाम लिखने के बाद जैसे ही पता लिखने लगा तो मेरा हाथ रुक गया। मैं बीमा अभिकर्ताओं का छोटा-मोटा नेता भी हूँ। अधिकांश अभिकर्ताओं की फौरी जानकारियाँ मुझे हैं। जैसे ही उन्होंने पता बताया, मुझे याद आया कि उनके मकान के ठीक दो मकान आगे ही एक अभिकर्ता का निवास है। मैंने कहा - ‘आपके पड़ौस में ही एक बीमा ऐजेण्ट रहता है। उसे छोड़ आप करीब दो किलो मीटर दूर मेरे पास आए! क्या उसने आपसे कभी सम्पर्क नहीं किया?’ वे तनिक उग्र होकर बोले - ‘देखिए मैं तो आपको जानता भी नहीं। आपका नाम-पता तो मुझे उन्होंने (मेरे परिचित का नाम लिया) बताया। उन्होंने आपके काम की तारीफ भी। मैं आप पर नहीं, उन पर भरोसा करके आपके पास आया। हाँ! आपने सही कहा कि मेरे पास ही एक एजेण्ट रहता है। सच्ची बात तो यह है कि ये दोनों बीमे उसी से करवाने थे। सारी बातें और पॉलिसियाँ मुझे उसी ने समझाईं। लेकिन उसकी बार-बार की एक हरकत ने मुझे चिढ़ा दिया। इसी कारण आपके पास आया।’
मैं सतर्क हो गया। बीमा एजेण्ट में क्या खूबियाँ होनी चाहिएँ और कौन-कौन सी बातें नहीं होनी चाहिएँ, इसकी न तो कोई अन्तिम सूची होती है न ही कोई सीमा। ऐसी बातें जानने के लिए मैं सदैव उत्सुक और उतावला बना रहता हूँ। ऐसी जानकारियाँ मुझे सुधारने और बेहतर बनाने में बड़ी मददगार होती हैं। बीमे तो मुझे मिल ही गए थे, अब जो मिलनेवाला था वह मेरे लिए अतिरिक्त लाभ था। मैंने अपना पूरा ध्यान अब उनकी बात पर लगा दिया। बड़ी ही उग्रता और खिन्नता से बोले - ‘मैंने उसको बार-बार इशारों ही इशारों में समझाया लेकिन वह समझने को तैयार ही नहीं हुआ। मैं उसे नमस्कार करूँ और वह जवाब में अभिवादन करने के बजाय अपने धर्म-देव का जयकारा लगाए। मैंने कम से कम पाँच बार उससे नमस्कार किया लेकिन उसने जवाब में एक बार भी नमस्कार नहीं किया। हर बार अपने धर्म-देव की जय बोलता रहा। मैंने देखा कि इसमें इतनी भी सूझ-समझ और कॉमन सेंस नहीं कि ग्राहक की भावना की चिन्ता करे। उसे तो अपने धर्म की और अपने भगवान की ही चिन्ता है। तो मैंने तय किया कि जो मेरी, मेरी भावना की चिन्ता नहीं करे, उससे मुझे बीमे नहीं कराना। फिर मैं भी क्यों नहीं किसी अपने धर्मवाले से बीमा कराऊँ? इसलिए मैंने उन्हें (मेरे परिचित को) फोन किया। उन्होंने आपका नाम, अता-पता बताया और मैं आपके पास चला आया।’
मुझे काटो तो खून नहीं। बिना कोशिश के, घर बैठे बीमे (और बीमे भी अच्छे-खासे, बड़े) मिलने की खुशी उड़ गई। ये बीमे मुझे मेरे व्यावसायिक कौशल, ज्ञान, मेरे व्यवहार, मेरी उत्कृष्ट ग्राहक सेवाओं के दम पर नहीं, धर्म के नाम पर मिले थे। और वह भी अपने धर्म के प्रति प्रेम-भाव से नहीं, किसी और के धर्म के प्रति उपजी चिढ़, वितृष्णा के कारण मिले थे। उन्हें अपना धर्म याद नहीं आया था, किसी ने अपने धार्मिक आग्रहों का निरन्तर प्रकटीकरण कर, उन्हें उनका धर्म याद दिला दिया। वे पड़ोसी-धर्म के अधीन उससे बीमे कराना चाह रहे थे लेकिन वह पड़ोसी धर्म के मुकाबले अपने रूढ़ धर्म पर अड़ा रहा और न केवल दो बीमे खो दिए बल्कि एक अच्छे पड़ोसी की सद्भावनाएँ भी खो दीं।
सच कह रहा हूँ, मुझे घर बैठे मिले इन दो बीमों की खुशी उतनी नहीं हो रही जितना कि एक बीमा एजेण्ट द्वारा अपना व्यावसायिक धर्म भूलने का और इसी कारण धन्धा खोने का दुख हो रहा है। पता नहीं, उस एजेण्ट ने धर्म की कीमत चुकाई या अपने धर्म की रक्षा की।
पता नहीं हम कब समझेंगे कि धर्म हमारा नितान्त व्यक्तिगत मामला होता है। जब हम अपने धार्मिक आग्रह सार्वजनिक करते हैं तो उसके नकारात्मक प्रभाव हमारी सार्वजनिकता पर होता है। यह बहुत बड़ा नुकसान है - व्यक्ति का भी, समाज का भी और देश का भी।
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आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन ओ. पी. नैय्यर और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है। कृपया एक बार आकर हमारा मान ज़रूर बढ़ाएं,,, सादर .... आभार।।
ReplyDeleteबात आपकी बड़ी सटीक है . धर्म व्यक्तिगत मसला है, यह सभी को समझना होगा . किसी एक के समझे चलेगा नहीं
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