सच कहता हूँ/जब तक अपनी खोई धरती

 
 



श्री बालकवि बैरागी के गीत संग्रह
‘ललकार’ का तेरहवाँ गीत





दादा का यह गीत संग्रह ‘ललकार’, ‘सुबोध पाकेट बुक्स’ से पाकेट-बुक स्वरूप में प्रकाशित हुआ था। इस संग्रह की पूरी प्रति उपलब्ध नहीं हो पाई। इसीलिए इसके प्रकाशन का वर्ष मालूम नहीं हो पाया। इस संग्रह में कुल 28 गीत संग्रहित हैं। इनमें से ‘अमर जवाहर’ शीर्षक गीत के पन्ने उपलब्ध नहीं हैं। शेष 27 में से 18 गीत, दादा के अन्य संग्रह ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ में संग्रहित हैं। चूँकि, ‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ इस ब्लॉग पर प्रकाशित हो चुका है इसलिए दोहराव से बचने के लिए ये 18 गीत यहाँ देने के स्थान पर इनकी लिंक उपलब्ध कराई जा रही है। वांछित गीत की लिंक पर क्लिक कर, वांछित गीत पढ़ा जा सकता है।  
  

सच कहता हूँ/जब तक अपनी खोई धरती

भारत का भूगोल तड़पता, तड़प रहा इतिहास है
तिनका-तिनका तड़प रहा है, तड़प रही हर साँस है

सिसक रही है सरहद सारी, माँ के छाले बहते हैं
ढूँढ रहा हूँ किन गलियों में अर्जुन के सुत रहते हैं

गली-गली औ’ चौराहों पर, फिर आवाज लगाता हूँ
मन का गायक रोता है, पर मजबूरी में गाता हूँ ।

जब तक अपनी खोई धरती, वापस नहीं मिलाओगे 
सच कहता हूँ तब तक मुझसे, गीत नहीं सुन पाओगे

माँ का आँचल तार-तार है और मनायें हम जलसे
रक्तपान के बदले चुप-चुप, पीते हैं मधु के कलशे
नस-नस ऐंठ रही जननी, की हम उलझे हैं पायल में
घायल माँ को भूल गये हैं, मेंहदी, महावर, काजल में
टूट रहा है दम जननी का, महानाश की ज्वाला में
रण-बाला को वरने वाले बैठे हैं मधुशाला में
जब तक कजरारी अलकों से पलकें नहीं चुराओगे
सच कहता हूँ तब तक मझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

यूँ थक कर शस्त्रों को तुमने, धरती पर क्यूँ टाँगे हैं
मत भूलो जननी ने तुमसे, रिपु के मस्तक माँगे हैं
आज नई पीढ़ी की ज्वाला, बुझी-बुझी क्यों लगती है
चबा जाय जो सूर्य पिण्ड को, कहाँ गई वो शक्ति है
दो मुट्ठी बारूद उड़ा कर, जिसने फागुन जला दिया
उस पापी को इतना जल्दी, तुमने कैसे भुला दिया
जब तक अपना उजड़ा फागुन वापस नहीं खिलाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

वहाँ जुझारे जूझ रहे हैं, हम आपस में लड़ते हैं
पतझर को न्यौता देते हैं, अपने आप उजड़ते हैं
अब भी होती हैं हड़तालें, अब भी नारे लगते हैं
गाली देने वाले हमको, अब भी प्यारे लगते हैं
चुपके-चुपके प्रजातन्त्र का सौदा कोई करता है
और मगर के आँसू रो कर झूठी आहें भरता है
जब तक ऐसे जयचन्दों की, खाल नहीं खिंचवाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

महाकेतु को पुनः उठा कर, जननी का जयनाद करो
तूर्यनाद से अम्बर भर दो, बैरी को बरबाद करो
जिसने नोंचा पंचशील को, उसके टुकड़े कर दो तुम
जिसने छेड़ा है हिमगिरि को, संगीनों पर धर दो तुम
राजघाट को धोख दे कर, जिसने बैर बसाया है
उससे बदला लेगा वो ही, जो भारत का जाया है
जब तक लोहू देकर, माँ का दूध नहीं उजलाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझ से, गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

अपनी गरिमा याद करो तुम रण मेलों में चलना है
फिर इतिहास नया लिखना है, फिर भूगोल बदलना है
रक्तस्नान करवा कर माँ को, फिर से उसे सिंगारेंगे
अरिमुण्डों की भेंट चढ़ा कर, कुछ तो कर्ज उतारेंगे
युग चारण की हुकारों को, अब कैसे बिसराओगे
मुझको नींद नहीं आती तो, तुम कैसे सो जाओगे
जब तक तुम भूगोल बदल कर, माँ को नहीं दिखाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे, गीत नहीं सन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती

मैं भी गाऊँ कमल-कमलिनी, चन्दा और सितारों को
मैं भी गाऊँ मरघट, पनघट, डोली और कहारों को
जी करता है मैं भी गाऊँ, बौरी-बौरी अमराई
साजन गाऊँ, सजनी गाऊँ, बाँसुरिया और शहनाई
लेकिन माँ के घाव देख कर, ओठ नहीं हिल पाते हैं
उमड़-उमड़ आता है लावा, अंगारे ढल जाते हैं
जब तक मेरे अंगारों की, आग नहीं पी जाओगे
सच कहता हूँ तब तक मुझसे गीत नहीं सुन पाओगे
जब तक अपनी खोई धरती
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इस संग्रह के, अन्यत्र प्रकाशित गीतों की लिंक - 

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गीतों का यह संग्रह
दादा श्री बालकवि बैरागी के छोटे बहू-बेटे
नीरजा बैरागी और गोर्की बैरागी
ने उपलब्ध कराया। 

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