03 अगस्त को मेरे कस्बे में बँटे एक अखबार के मुख पृष्ठ पर छपी खबर के मुताबिक आईएएस अफसर प्रकाश जाँगड़े के जरिए मुख्यमन्त्री ने नाराज स्वरों में तमाम अफसरों को, खासकर कलेक्टरों को सन्देश दिया है - ‘कलेक्टर लीडर न बनें। विधायक ही लीडर हैं।’ मुझे बहुत अच्छा लगा। यह मेरे मन की बात है। सरकारी और सार्वजनिक कार्यक्रमों/आयोजनों के मंचों पर बैठे अफसर मेरी आँखों को तनिक भी भले नहीं लगते। संसदीय लोकतन्त्र में मंचों की ऐसी कुर्सियाँ निर्वाचित जनप्रतिनिधियों की या फिर लोक नेताओं की होती हैं। अफसरों की जगह उनके दफ्तरों में या योजना स्थलों पर है। उन्हें भाषण नहीं देना है, उन्हें सरकार की मंशाओं को मैदान में क्रियान्वित करना है। आईएएस अधिकारियों सहित अनेक सरकारी अधिकारी मेरे मित्र हैं। इस मुद्दे पर वे सबके सब (जी हाँ! सबके सब) मुझ पर कुपित हैं - मैं उनके, फोटू छपने के ‘चांस’ का विरोध क्यों करता हूँ? वे सब मुझ पर आत्मविश्वास भरी हँसी हँसते हैं। कुछ इस तरह मानो कह रहे हों - ‘तुम्हें जो कहना-करना है, कहते-करते रहो। होगा तो वही जो हम चाहेंगे।’ मैं उनकी इस मुखमुद्रा का प्रतिकार नहीं कर पाता हूँ। कैसे करूँ? खुद मुख्य मन्त्री और उनके संगी-साथी ही मुझे हास्यास्पद बनाते हैं।
नीमच से प्रकाशित दैनिक ‘नई विधा’ के, 30 जुलाई के अंक में प्रकाशित इस समाचार पर मुझे क्षणांश को भी विश्वास नहीं हुआ। इस समाचार के मुताबिक वर्ष 2015 में अल्प वर्षा के कारण बनी सूखे की स्थिति से प्रभावित किसानों के लिए सरकार द्वारा जारी राशि में से 40 करोड़ रुपयों का भुगतान इस वर्ष अब तक नहीं हुआ। जानकारी पा कर मुख्यमन्त्री अत्यधिक कुपित हुए और उन्होंने न केवल यह राशि 48 घण्टों में वितरित करने का सख्त आदेश जारी किया अपितु उन अफसरों की सूची भी माँगी जिनकी लापरवाही के चलते किसान इस रकम से अब तक वंचित रहे। मैंने यह समाचार खूब ध्यान से, दो-तीन बार पढ़ा किन्तु यह कहीं लिखा नजर नहीं आया कि इन अधिकारियों पर कोई कार्रवाई की जाएगी या नहीं और यह भी कि ऐसी हरकत भविष्य में नहीं दुहराई जाएगी। अपनी सरकार के मानवीय चेहरे के प्रति अहर्निश चिन्तातुर और सजग मुख्यमन्त्री के राज में ऐसी अमानवीय, क्रूर लापरवाही कैसे हो गई? खासकर तब जबकि मुख्यमन्त्री के पास अपना विशाल सूचना तन्त्र हो, किसानों की आत्म हत्या के समाचार अखबारों के स्थायी स्तम्भ बनते जा रहे हों। जाहिर है, सरकार केवल घोषणाएँ कर सकती है। उनका क्रियान्वयन न हो तो भला सरकार कर ही क्या सकती है?
मेरे कस्बे के जिला अस्पताल-भवन के एक हिस्से के गिरने पर और उससे हुई एक मृत्यु पर कार्रवाई करने को लेकर प्रदेश के नव नियुक्त स्वास्थ्य मन्त्री रुस्तम सिंह के प्रति प्रश्न ने मुझे स्तब्ध कर दिया। भोपाल में, विधान सभा सत्र के दौरान पत्रकारों ने जब इस मामले में की गई या की जानेवाली कार्रवाई के बारे में पूछा तो जनता के ‘लीडर’ बन कर विधान सभा में आए, रुस्तमसिंह ने कुछ ऐसा मासूम सवाल किया - ‘क्या कार्रवाई करें? किस पर कार्रवाई करें? आप नाम बता दो, हम उस पर कार्रवाई कर देंगे।’ जिज्ञासु पत्रकार को यदि ऐसे आकर्षक और प्रभावी निमन्त्रण की कल्पना भी होती तो वह निश्चय ही पूरी कार्य योजना रुस्तमसिंह को पेश कर देता। मुझे लगता है, अब भी देर नहीं हुई है। सम्बन्धित पत्रकार मित्र को अनुपम अवसर मिला है। सरकार को, स्वास्थ्य मन्त्री रुस्तमसिंह को मदद करें। विस्तृत कार्य योजना पेश कर दें। कार्रवाई हो जाएगी। क्यों कि बेचारी सरकार को तो पता ही नहीं, किंकत्तव्यविमूढ़ है - भला सरकार क्या कर सकती है?
अखबारों ने ही बताया कि एक कस्बे के नादान लोगों ने अपनी ही चुनी हुई सरकार को सक्षम और विश्वसनीय मानकर, जनता के ही एक ‘लीडर,’ एक अन्य मन्त्री से, अपने कस्बे के अस्पताल में डॉक्टरों की कमी का हवाला देकर कुछ डॉक्टरों की नियुक्ति की माँग कर दी। निरीह, असहाय मन्त्रीजी ने प्रति प्रश्न कर लिया कि लोग ही बताएँ कि वे कहाँ से डॉक्टर लाएँ। ये ‘लीडर’ यही कहकर नहीं रुके। उन्होंने लोगों को आसान उपाय बताया कि लोग डॉक्टर पैदा करके सरकार को दे दें, सरकार उन्हें, उनके कस्बे में नियुक्त कर देगी। क्योंकि सरकार तो कुछ नहीं कर सकती।
जनता के एक ‘लीडर’, सरकार के एक अन्य मन्त्री ने तो नागरिकों को मानो ‘कस्तूरी मृग’ साबित कर दिया। शिक्षा से उपजी चेतना और जागृति से प्रभावित लोग अपने स्वास्थ के प्रति सजग, सावधान हो, अन्धविश्वास और कुपरम्पराएँ छोड़, वैज्ञानिक दृष्टिकोण अपनाने लगे थे। जनता के ‘लीडर’ मन्त्रीजी को यह ठीक नहीं लगा। सोे, जब गाँव के लोगों ने स्वास्थ सुविधाएँ माँगी तो ‘लीडर’ ने प्रदेश की जनता की चिन्ता की और लोगों को भूली बिसरी बातें याद दिलाते हुए सलाह दी कि वे अस्पताल पर ही निर्भर न रहें और मरीज की झाड़ फूँक करवा लिया करें। ठीक भी है। सरकार कुछ कर सकती तो कर चुकी होती। किन्तु बेचारी सरकार तो कुछ कर ही नहीं सकती!
हमारा लोकतन्त्र केवल गुणों की खान नहीं है। इसमें दोष भी हैं। राजनीतिक और गुटीय सन्तुलन बनाने के नाम पर सत्तारूढ़ दल भी अपात्रों को पुरुस्कृत करने पर विवश हो जाते हैं और सुपात्र टूँगते रह जाते हैं। ऐसे अपात्रों की अक्षमता समूची सरकार की अक्षमता बन कर सामने आती है और यही स्थिति अफसरों को लीडर बनने का टॉनिक बनती है।
आज के अखबारों में मेरे कस्बे के नगर निगमायुक्त के तबादले की खबर छपी है। खबर के अनुसार इस तबादले के निर्देश खुद मुख्यमन्त्री को देने पड़े। इन आयुक्तजी से मेरे कस्बे के पक्ष-प्रतिपक्ष के तमाम नेता, लगभग दो बरसों से परेशान थे। निगमायुक्तजी ने इन सबको, अपनी उपेक्षा का रोना रोने में व्यस्त कर रखा था। इन ‘लीडरों’ का रोना अखबारों का स्थायी स्तम्भ बन चुका था। हमारे विधायक भाजपाई हैं। उनके आसपास के भरोसेमन्द लोग बताते हैं कि पार्टी अनुशासन के लिहाज के चलते विधायकजी भी कस्बे को इनसे मुक्ति दिलाने का आग्रह खुद मुख्यमन्त्रीजी से एकाधिक बार कर चुके थे। किन्तु ‘प्रदेश के लीडर’ ने ‘विधान सभा क्षेत्र के लीडर’ की नहीं सुनी। किन्तु कल जब मुख्यमन्त्रीजी को अनुभूति हुई कि ये आयुक्तजी उनकी (मुख्यमन्त्रीजी की) ही मट्टी पलीद कर रहे हैं तो ताबड़तोड़ तबादले के निर्देश जारी किए। मेरे कस्बे के लोग साँसें रोक कर लिखित आदेश की प्रतीक्षा कर रहे हैं। मुझे आकण्ठ विश्वास है कि सत्ता पक्ष के ही अनेक ‘स्थानीय लीडर’ देवस्थानों में मनौतियाँ ले रहे होंगे-यह तबादला निरस्त न हो जाए।
अपने मुख्यमन्त्रित्व काल में दिग्विजयसिंह जब मेरे कस्बे में आते थे तो उनकी अगवानी में सरकारी अमले के अलावा काँग्रेस के पदाधिकारी और कार्यकर्ता भी हेलीपेड पर उपस्थिति रहते थे। होना तो यह चाहिए था कि हेलीकाफ्टर से उतरते ही वे, सबसे पहले अपनी पार्टी के जिलाध्यक्ष या/और अन्य पदाधिकारियों से मिलते। किन्तु ऐसा नहीं होता था। दो-एक बार मैंने ही देखा, वे उतरते ही कलेक्टर से गलबहियाँ करते थे। भला ऐसे में कोई ‘लीडर’ कैसे ‘लीडरी’ कर सकता है? मुझे नहीं पता, शिवराज ऐसा करते हैं या नहीं किन्तु ‘ स्थानीय लीडर’ की ‘लीडरी’ की चिन्ता यदि पार्टी का सबसे बड़ा लीडर नहीं करेगा तो बेचारा ‘स्थानीय लीडर’ कैसे ‘लीडरी’ करेगा? किन्तु इसका अर्थ यह कदापि नहीं लिया जाना चाहिए कि प्रशासकीय तन्त्र का राजनीतिककरण कर दिया जाए-जैसा कि इन दिनों अनुभव हो रहा है।
कहते हैं, ‘सरकार नहीं चलती, सरकार का जलवा चलता है।’ यदि मुख्यमन्त्री को अपने अधिकारियों से कहना पड़े कि वे ‘लीडरी’ न करें तो इसका अर्थ यही है कि सरकार या तो मजबूर है या मगरूर। इन दोनों तरह की स्थितियों में ‘जलवा’ याने की ‘लीडरी’ सबसे पहले लुप्त होती है।
जलवा कारगरों का ही चलता है, मजबूरों और मगरूरों का नहीं।
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ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, " हिन्दी Vs English - ब्लॉग बुलेटिन “ , मे आपकी पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteधन्यवाद। आभार।
ReplyDeleteधन्यवाद। आभार।
ReplyDeleteसरकार कहीं है भी? यदि कहीं है भी तो वो आईएएस अफसरों की फ़ौज है जो टेंडर निकालने में व्यस्त है :)
ReplyDeleteआपकी नजर मुझ पर है, यह बात तसल्ली देती है। आपका अपराधी तो हूँ ही। मुझे सहन कर रहे है यह आपकी कृपा भी है बड़प्पन भी।
Deleteआपकी नजर मुझ पर है, यह बात तसल्ली देती है। आपका अपराधी तो हूँ ही। मुझे सहन कर रहे है यह आपकी कृपा भी है बड़प्पन भी।
Deleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल रविवार (07-08-2016) को "धरा ने अपना रूप सँवारा" (चर्चा अंक-2427) पर भी होगी।
ReplyDelete--
हरियाली तीज और नाग पञ्चमी की
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत-बहुत धन्यवाद।
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