पुणे के महान् ऑटोवाले

पुणे के ऑटो रिक्शावाले महान् हैं - अत्यधिक और अद्भुत क्षमतावान। वे चरम नास्तिक को भी आस्तिक बना देने का माद्दा रखते हैं। मेरा पुणे प्रवास यूँ तो चार दिनों का था किन्तु ऑटोवालों से पाला एक ही दिन पड़ा और इस एक ही दिन में मैं उपरोक्त निष्कर्ष पर पहुँच गया।
 
सोमवार, 26 नवम्बर 2012 को मुझे पुणे में नौ (9) ऑटो रिक्शावालों से काम पड़ा। एक में डिजिटल मीटर लगा था, शायद इसीलिए वह कुछ नहीं बोला। दूसरे ने साफ-साफ कहा कि वह मीटर से पाँच रुपये ज्यादा लेगा। लकिन बाकी सात? लगा - सातों में प्रतियोगिता थी - कौन अधिक ‘धारदार’ साबित हो। उन सातों से मिले अनुभव के बाद लगा कि पाँच रुपये ज्यादा माँगनेवाला तो उन सबका बाप ही रहा होगा।
 
 
 
 
 
 
इन आठों आटो रिक्शों में सामान्य मीटर लगे थे किन्तु सबमें एक अद्भुत साम्य था - रुपयों का, दहाई वाला अंक किसी में भी नहीं देखा जा सकता था। यहाँ दिए दो चित्र नमूना मात्र हैं। पूरे पुणे के तमाम ऑटो रिक्शों में यही स्थिति है। आप चाहे जो कर लें (मैंने दो-एक रिक्शों में ‘कुछ’ करने की असफल कोशिश की थी), होगा वही जो ऑटोवाला चाहेगा और कहेगा। आप कितनी ही बहस कर लें, चाहें तो उसकी खिल्ली भी उड़ा लें, कोई फर्क नहीं पड़ेगा। मीटर भले ही दो रुपये तीस पैसे बता रहा हो, आपको वही रकम चुकानी पड़ेगी जो ऑटोवाला बता दे। यह आपकी तकदीर होगी कि वह बत्तीस रुपये बताए या बयालीस। मीटर में एक रुपया सत्तर पैसे नजर आनेवाला भाड़ा ग्यारह रुपये भी हो सकता है और इक्यानबे रुपये भी। जो दूरी पार करने में एक ऑटोवाले ने मुझसे तीस रुपये लिए, उसी दूरी को पार करने के लिए दूसरे ने पैंतालीस रुपये लिए और दोनों ही बार भुगतान मीटर से किया गया। आप कल्पना कर सकते हैं कि मीटर से पाँच रुपये अधिक माँगनेवाले ने मुझसे किस तरह दोहरी वसूली की - मीटर की रकम तो मनमानी बताई ही, पाँच रुपये भी ज्यादा लिए?
 
इस स्थिति पर मैंने (जिस-जिस ऑटो में मैं बैठा) प्रत्येक ऑटोवाले से बात की। जाहिर है कि बात अलग-अलग समय पर, अलग-अलग आदमी से हुई किन्तु जवाब सबका एक ही था - ‘यहाँ तो ऐसा ही चलता है।’ मैंने पुलिस का हवाला दिया तो शब्दावली तो सबकी अलग-अलग रही किन्तु मतलब एक ही था - ‘पुलिसवालों के चूल्हे हम ऑटोवालों के दम पर ही तो चल रहे हैं!’ एक ऑटोवाले ने तो पूछा - ‘आप कहें तो आपको पुलिस थाने ले चलूँ? देख लीजिएगा कि क्या होता है।’ दूसरे ने मेरी ‘नादानी’ पर हँसते हुए कहा  - ‘आप क्या समझते हैं! पुलिसवालों को पता नहीं?’ तीसरा ऑटोवाला तनिक शरीफ था। बोला - ‘क्यों अपना खून जला रहे हैं? हर चौराहे पर तो वर्दीवाला खड़ा हुआ है! आप कहेंगे तो भी वह मदद नहीं करेगा। आप तो परदेसी हैं। चले जाएँगे। उन्हें तो हमारे साथ, पुण में ही रहना है।’ ऐसी बात सुनने के बाद हर बार मैं यह सोच-सोच कर खुश हुआ कि मुझसे ज्यादा रकम लेने के बाद भी प्रत्येक ऑटोवाले ने मुझ पर महरबानी की - उसे तो और अधिक रकम लेने की ‘स्वयम्भू-छूट’ और ‘निर्बाध-स्वतन्त्रता’ मिली हुई थी।
 
पुणे से प्रकाशित हो रहे तमाम हिन्दी अखबार, रोज ही ऑटो रिक्शावालों के ‘कारनामों’ से भरे होते हैं। मुझे मराठी नहीं आती किन्तु विश्वास कर रहा हूँ कि मराठी अखबार भी ऐसा ही कर रहे होंगे। किन्तु पुलिस पर कोई असर नहीं हो रहा। ऑटोवालों पर कार्रवाई करना तो दूर रहा, ‘प्री-पेड’ बूथ की अच्छी-भली चल रही व्यवस्था को पुलिस ने बन्द करा दिया। इस व्यवस्था से ऑटोवालों और पुलिसवालों के सिवाय बाकी सबको आराम मिल रहा था। चार दिनों में पढ़े सारे (हिन्दी) अखबारों की एक राय थी कि पुलिस ने पुणे के जनसामान्य को ऑटोवालों की दया पर छोड़ दिया है।

मेरे ‘थोड़े’ लिखे को ‘बहुत’ समझा जाए और चाहे जो किया जाए, एक मेहरबानी जरूर की जाए - मुझ पर, मेरी बेचारगी पर हँसा नहीं जाए। मैं ‘कुछ’ कर ही नहीं सकता था। ‘कुछ’ करने की कोशिश करता तो मुमकिन है कि पुलिस का तो सवाल ही नहीं उठता, भगवान भी मुझे शायद ही बचा पाता। पुणे में तो भगवान भी ऑटोवालों के भरोसे जी रहा होगा।  

प्रेमान्ध परिजन : संकट भी और सम्पत्ति भी

रामचन्द्र को लिखा पत्र अभी-अभी डाक के डिब्बे में डाल कर आया हूँ। पत्र क्या है, ‘माफीनामा’ है। उसके साले ने उसे बुरी तरह से डाँटा-फटकारा। बिना किसी बात के। दोष यदि था तो मेरा था। रामचन्द्र का तो कोई लेना-देना था ही नहीं। लेकिन परिजन जब ‘प्रेमान्ध’ हो जाएँ तो सम्भवतः ऐसा ही होता होगा।
 
रामचन्द्र मेरा कक्षापाठी है। मुझसे खूब स्नेह रखता है। मुझ पर अतिशय मुग्ध, मोहग्रस्त और भावुक। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसंग के भी मेरी चर्चा और प्रशंसा करना नहीं चूकता। मेरी चवन्नी को भी रुपया बना कर पेश करता है। पहले गाँव में रहता था। लेकिन इकलौते बेटे की नौकरी के चलते अब जिला मुख्यालयवाले कस्बे में रहता है।
 
दीपावली पर उसे मेरा भेजा हुआ अभिनन्दन-पत्र मिला तो उसने फौरन फोन किया। उसके एक-एक बोल से प्रसन्नता और उल्लास छलक रहा था। मुझे धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देते हुए कह रहा था कि पत्रों के नाम पर अब उसे गिने-चुने पत्र ही मिलते हैं। वस्तुतः, छात्र-जीवन के समय में हम दोनों का पत्राचार हमारे मित्रों के बीच चर्चा का, विस्मय का और कुछ सीमा तक ईर्ष्या का भी विषय हुआ करता था। वह इस बात पर अतिरिक्त प्रसन्न था कि पत्राचार की मेरी आदत अब तक बनी हुई है। उसकी अतिरेकी प्रशंसा मुझे अच्छी लग रही थी। अपनी प्रशंसा भला किसे अच्छी नहीं लगती? देवता भी इस तृष्णा से मुक्त नहीं रह पाते! फिर, मैं तो सामान्य मनुष्य हूँ! दीपावली के दिन थे, सो फोन पर फोन आए जा रहे थे। मैंने अपनी ओर से सम्वाद समेटते हुए कहा - ‘बाद में विस्तार से बात करेंगे।’
 
मैं अपना काम-काज निपटाने में लग गया। कोई आधा घण्टे बाद फिर रामचन्द्र फोन पर था। इस बार रुँआसा था। लग रहा था, रो देगा। कह रहा था कि मेरे दीपावली अभिनन्दन-पत्र को लेकर उसक साले ने उसे बुरी तरह से डाँट दिया। हुआ यह कि उसके साले के आते ही रामचन्द्र ने मेरा भेजा अभिनन्दन-पत्र उसे दिखाया और सदैव की तरह मेरी अतिरेकी प्रशंसा करते हुए कहा कि आज के जमाने में भी मैं उससे कितना स्नेह करता हूँ। जीजा की बात सुनकर साले ने मेरा अभिनन्दन-पत्र देखा और भड़क गया। बोला कि पूरा अभिनन्दन-पत्र तो ‘यान्त्रिक’ है। इसमें हाथ का लिखा तो एक अक्षर भी नहीं है। अभिनन्दन-पत्र छपा हुआ है, पते का स्टीकर भी छपा हुआ है, प्रेषक का नाम भी छपा हुआ है। सब कुछ तो मशीनी है! मानवीय स्पर्श तो है ही नहीं! इसके बाद ही साले ने अपने जीजा को कुछ इस तरह डाँटा - ‘‘आप बड़े भोले हो जीजाजी। आप बेकार ही बैरागी पर जान छिड़कते रहते हो। बैरागी को तो पता ही नहीं होगा कि आपके नाम का पत्र भी गया है। उसने तो प्रेस से पत्र छपाए, एक मजदूर ने तैयार किए, पते के स्टीकर और टिकिट चिपकाए और डाल दिए डाक के डिब्बे में। उसने न तो ‘प्रिय रामचन्द्र’ लिखा और न ही ‘तुम्हारा विष्णु बैरागी’ लिखा। इसमें आपके प्रति स्नेह या अपनापा कहाँ है? कोई स्नेह-वेह, अपनापा-वपनापा नहीं है। निकलो बैरागी के चक्कर से। छोड़ो उसका राग अलापना। वो आपको बेवकूफ बना रहा है और आप बेवकूफ बने जा रहे हो।’’
 
जीजाजी को झाड़कर साला तो चला गया लेकिन रामचन्द्र को अच्छा नहीं लगा। साले के जाते ही उसने मुझे फोन किया और अपनी ’व्यथा-कथा’ सुनाने लगा। मैंने उसे रोकने की, समझाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन वह मेरी सुन ही नहीं रहा था। अपनी रौ में बहे जा रहे था। मेरा धैर्य छूट गया और चिढ़कर मैंने फोन बन्द कर दिया।
 
मैं असहज हो चुका था। रामचन्द्र के साले की बातें सही ही थीं। सब कुछ तो मशीनी ही था! हाँ, यह विचार का विषय हो सकता है कि यदि मेरा व्यक्तिगत स्पर्श न होता तो रामचन्द्र का नाम मेरी डाक सूची में क्योेंकर होता? किन्तु इसे भी छोड़ दिया जाए तो भी बेचारे रामचन्द्र का क्या दोष? दोष यदि था तो मेरा था। रामचन्द्र का दोष यदि था केवल इतना कि उसने पत्र लौटाया नहीं। दूसरा दोष उसका यह रहा कि अपनी आदत के अनुसार उसने मेरी प्रशंसा की। लेकिन दोनों दोष ऐसे नहीं कि रामचन्द्र को प्रताड़ित किया जाए।
 
यह पत्र व्यवहार तो रामचन्द्र और मेरे बीच था। इससे रामचन्द्र के साले का क्या लेना-देना? पत्र के ‘यान्त्रिक’ होने की शिकायत यदि होनी थी तो रामचन्द्र को होनी थी! और यदि, साले साहब को बुरा लगा तो अपना ‘आक्रोशित मन्तव्य’ मुझे बताना चाहिए था। मुझे इन्हीं दो बातों का दुःख हुआ - हम दोनों के व्यवहार में साले साहब का हस्तक्षेप मुझे न केवल अनुचित लगा अपितु अविवेकी, नासमझी भी लगा। और मेरी जगह रामचन्द्र को डाँटना? यह मुझे साले साहब की मूर्खता भी लगी और कायरता भी। उन्हें जो भी कहना था, मुझसे कहना चाहिए था। साले साहब ने तो ‘कर गया दाढ़ीवाला, पकड़ा गया मूँछवाला’ वाली जनोक्ति को साकार कर दिया।
 
इसके समानान्तर मुझे यह भी लगा कि अपने जीजा की अवमानना करना, साले की मंशा तो कभी नहीं रही होगी। फिर भी साले साहब यह सब कर गुजरे - दोषी को बख्श दिया और निर्दोष को दण्डित कर बैठे। अचानक ही मुझे रामचन्द्र से ईर्ष्या भी हो आई। कितने प्रेमल और मोहग्रस्त परिजन मिले हैं उसे? ऐसे कि ‘अपनेवाले’ की चिन्ता में न केवल अपनेवाले पर अत्याचार कर बैठे अपितु नादानी, मूर्खता और कायरता भी बरत बैठे!
 
और विचार करते-करते खुद पर ही हँसी भी आ गई। मैं भी तो किसी का ऐसा ही ‘प्रेमान्ध परिजन’ हूँगा और ऐसे ही ‘प्रेमान्ध परिजन’ मेरे आस-पास भी तो होंगे!
 

सर्वे भवन्‍तु सखिन:


समस्‍त कृपालुओं को मुझ अकिंचन की ओर से हार्दिक अभिनन्‍दन, बधाइयॉं और शुभ-कामनाऍं।

मेरे बडे बेटे प्रिय चि. वल्‍कल ने मेरे लिए  इस बधाई पत्र  का आकल्‍पन किया है।




थोक में मँहगा, फुटकर में सस्ता

‘‘नमाज पढ़ने गए थे, रोजे गले पड़ गए’’ वाली कहावत मुझ पर शब्दशः लागू हो गई। मैं अचकचा गया। मेरे अनुमान, आशा, अपेक्षा के सर्वथा प्रतिकूल और कल्पना से परे।
 
‘अपने, भेजे जानेवाले पत्रों पर टिकिट मत लगाइए। हमें एक मुश्त सौंप दीजिए। खर्च का भुगतान कर दीजिए और भूल जाइए।‘ डाक विभाग की इस योजना के बारे में एकाधिक बार सुना था। इसीसे उत्साहित हो कर सोचा - ‘इस वर्ष भेजे जानेवाले लगभग 700, दीपावली अभिनन्दन पत्र इसी योजना से भेजे जाएँ।’ अचेतन में शुभेच्छापूर्ण (और लालच भरा भी) अनुमान रहा कि ‘थोक’ का मामला है तो ‘दो पैसों की बचत’ हो जाएगी। किन्तु वहाँ तो सब कुछ उल्टा ही झेलना पड़ा।

मुझे बताया गया कि इस योजना के अन्तर्गत मुझे, पत्र पर लगने वाले डाक टिकिटों के मूल्य के अतिरिक्त, फ्रेंकिग शुल्क के नाम पर प्रति पत्र दस पैसों का अतिरिक्त भुगतान करना पड़ेगा। मुझे विश्वास ही नहीं हुआ।

मेरी अपनी धारणाएँ थीं - इस योजना के अन्तर्गत डाक कर्मचारियों को कोई अतिरिक्त श्रम नहीं करना था। मैं टिकिट लगा कर डाक के डिब्बे में डालूँ तो भी उन्हें एक ठप्पा लगाना है और इस योजना के अन्तर्गत पत्र सौंपूँ तो भी उन्हें एक बार ठप्पा लगाना (फ्रेंकिंग करना) है। मुझसे अतिरिक्त शुल्क लेने के बजाय मुझे तो छूट मिलनी चाहिए क्योंकि मैं डाक विभाग के (टिकिट में होनेवाले) कागज, छपाई, मानव-श्रम आदि का मूल्य बचा रहा हूँ। बात को तनिक आगे बढ़ाऊँ तो मैं पर्यावरण रक्षा में सहायक बनने का यश भी डाक विभाग को दे रहा हूँ क्योंकि टिकिट कम छपेंगे तो उनका प्रत्यक्ष/परोक्ष प्रभाव, कागज बनने के लिए काटे जानेवाले वृक्षों (की संख्या में कमी होगी) पर पड़ेगा। फिर, मैं थोक में धन्धा दे रहा हूँ। इस दृष्टि से, मुझे तो छूट मिलनी चाहिए! लेकिन हो रहा है एकदम उल्टा! जो आदमी विभाग की सहायता कर रहा है, थोक में ग्राहकी दे रहा है उससे अतिरिक्त वसूली की जा रही है! याने, यहाँ, ‘थोक में सस्ता और फुटकर में मँहगा’ वाले, व्यापार के सामान्य सिद्धान्त को उलट कर ‘थोक में मँहगा और फुटकर में सस्ता’ का नया, ग्राहकों को विकर्षित करनेवाला सिद्धान्त अपनाया जा रहा है। ग्राहकों को समझाया जा रहा है - ‘हमें थोक में, कम समय में अधिकाधिक व्यापार कर, मुनाफा देनेवाला व्यापार मत दो।’

‘ग्राहक एक बार दुकान में आए तो सही। आएगा तो कुछ न कुछ तो खरीद कर ही जाएगा। न भी खरीदेगा तो कौन सा घाटा हो जाएगा?’ की मानसिकता के चलते, व्यापारी क्या-क्या हथकण्डे वापरते हैं? ‘एक पर एक फ्री’ तक के दावे किए जा रहे हैं।

डाक विभाग के घाटे में चलने की और इसकी ग्राहक संख्या कम होने की खबरें आए दिनों अखबारों में पढ़ने को मिलती रहती हैं। आय बढ़ाने के लिए सोने के सिक्के बेचना, पासपोर्ट के, विभिन्न प्रतियोगिता परीक्षाओं के और अनेक रोजगार सूचनाओं के आवेदन-पत्र बेचने का काम इसे दिया जाने लगा है। सुनते हैं कि बहुत जल्दी अब यह अपनी बैंक सेवाएँ भी शुरु करनेवाला है। लेकिन जहाँ दो पैसों की कमाई की बात आती है तो ‘मूर्ख व्यापारी’ की तरह व्यवहार करता है।

जिन-जिन से मैंने बात की, सबने मुझसे सहमति जताई। डाक कर्मचारी संगठनों के कुछ नेताओं ने बताया कि जो कुछ मैं कह रहा हूँ, वही बात वे विभाग को कई बार सुझा चुके हैं। किन्तु अमल करना तो दूर रहा, उसे सुनने/पढ़ने के लिए ही कोई तैयार नहीं होता।

इस सबमें मुझे दो बातों से तसल्ली हुई। पहली तो यह कि जो मैं सोच रहा था, वही वे सब, मुझसे पहले से  ही  सोच रहे थे। और दूसरी - इस बात पर मैं अकेला दुखी नहीं था। मुझसे पहले ही दुखी लोग वहाँ मौजूद थे।

ऐसा क्यों होता है - मैं सोच ही रहा था कि ‘मेल प्यून‘ के पद पर काम रहा एक भाई ने मानो मेरे मन की बात जान ली। बोला - ‘सा’ब! सरकारी दुकान है। इसके फैसले वे लेते हैं जिन्हें इसकी कोई चिन्ता नहीं। जो ऐसे फैसले लेते हैं उन्हें तो पता भी नहीं होगा कि एक पोस्ट कार्ड कितने में आता है और कितनी मेहनत से उसे मुकाम तक पहुँचाया जाता है।’
 
मुझे उनकी बात समझ में आई। इसके साथ ही साथ कृषि विभाग का वह अधिकारी याद आ गया (तब मैं तीसरी कक्षा में पढ़ता था) जिसने मूँम्फली के एक खेत की मेड़ पर खड़े-खड़े, एक ग्राम सेवक को डाँट दिया था। उस ग्राम सेवक ने कहा था - ‘बहुत अच्छी फसल आई है सा’ब।’ तब अधिकारी ने, अपना ज्ञान प्रदर्शित करते हुए, आठ-दस लोगों की उपस्थिति में उस ग्राम सेवक को हड़का दिया था - ‘हमें बेवकूफ समझते हो? एक भी मूँम्फली तो नजर नहीं आ रही और कह रहे हो कि फसल बहुत अच्छी आई है?’

ऐसे ही ‘कुशल व्यापारी’ जब सरकारी दुकानें चलाते हैं तो यही होता है - थोक में मँहगा, फुटकर में सस्ता।
 

......और हम चल पड़े ऋषिकेश के लिए

पाँच अगस्त को लगा था -  ‘चौदह अक्टूबर तो अभी बहोऽ ऽ ऽ ऽ त दूर है।’ किन्तु यह कब सर पर आ गया, मालूम ही नहीं हुआ। घर से बाहर जाकर निपटाए जानेवाले, घर के सारे काम जब खुद ही निपटाने पड़ें तो ऐसा ही होता होगा। उधर, उत्तमार्द्ध की स्वैच्छिक सेवा निवृत्ति को लेकर भी थोड़ी-बहुत भाग-दौड़ रही। सो, चौदह अक्टूबर का आना तनिक अधिक तजे गतिवाला लगा।
 
हमें उज्जैन से रेल में बैठना था। वहाँ से शाम पाँच बजे के बाद रेल मिलनी थी। लेकिन रतलाम से ऐसी कोई रेल नहीं थी जो हमें चार बजे के आसपास उज्जैन पहुँचा दे। बस की यात्रा हम करना नहीं चाहते थे। सो, हमें सुबह साढ़े दस बजे, रतलाम-गुना पेसेंजर से निकलना पड़ा जिसने दोपहर डेड़ बजे ही हमें उज्जैन पहुँचा दिया। हमने वातानुकूलित श्रेणीवाले प्रतीक्षा कक्ष में अपना अड्डा जमा लिया।
 
हमारे पास लगभग चार घण्टे पूरी फुरसत के थे। लेकिन यह समय इतना भी नहीं था कि किसी के घर जाकर आराम फरमाते। सोचा, क्यों किसी को परेशान करना? किन्तु इसके समानान्तर दो नामों का डर भी तत्काल ही मन में उभर आया जिन्हें, उज्जैन में हमारे इस ठहराव की जानकारी बाद में मिलती तो वे खिन्न, अप्रसन्न और कुपित होते। पहला नाम - वैद्य श्री विनोद वैरागी का। वे जिला आयुर्वेद अधिकारी हैं। बीएएमएस के अधिकांश पदवीधारी आयुर्वेद चिकित्सक खुद को ‘डॉक्टर‘ कहना और कहलवाना पसन्द करते हैं किन्तु विनोद भैया खुद को ‘वैद्य‘ कहना और कहलवाना पसन्द करते हैं। यह अलग बात है कि लोग उन्हें न तो ‘वैद्य‘ बनने दे रहे हैं और ही इस सम्बोधन से पुकारते हैं। यूँ तो मेरी उत्तमार्द्ध के, दूर के रिश्ते के मामा लगते हैं किन्तु दोनों हमउम्र हैं। मेरी उत्तमार्द्ध उन्हें ‘विनोद भैया’ और मेरी उत्तमार्द्ध को वे ‘वीणा जीजी‘ सम्बोधित करते हैं। न तो मैंने कभी ‘दामादपन‘ दिखाया  और न ही कभी उन्होंने ‘ममिया ससुर’ का नेग चुकाया। हम अन्तरंग मित्र हैं। इतने कि उन्हें खबर न करने पर हमें अपराध बोध भी हुआ और डर भी लगा।
 
दूसरा नाम था - बाबूलालजी मूँदड़ाजी का। वे, हम एलआईसी एजेण्टों के संगठन ‘लियाफी’ के क्षेत्रीय सचिव (झोनल सेक्रेटरी) हैं। मुझे ,‘लियाफी’ का झोनल प्रवक्ता उनके आग्रह पर ही बनाया गया है। वे पद में मुझसे बड़े हैं और आयु में छोटे। उनका बड़प्पन है कि वे ‘पद’ से नीचे उतर कर मेरी आयु का सम्मान करते हैं और उससे अधिक प्रेम रखते हैं। दोनों को फोन करने का मतलब होता - दोनों को स्टेशन पर बुलाना। वह हम नहीं चाहते थे क्योंकि न तो हमें कोई काम था और न ही कोई आवश्यकतापूर्ति करानी थी। सो, बीच का रास्ता अपना कर दोनों को एसएमएस कर दिया। कुछ ही पलों में मूँदड़ाजी का एसएमएस आया कि वे जोधपुर में हैं। विनोद भैया के उत्तर की प्रतीक्षा मैंने की ही नहीं। उनकी व्यस्तता का अनुमान मुझे भली प्रकार है और एसएमएस के मामले में वे मुझ जैसे ही हैं - उन्हें भी एसएमस (करने की और पाने की) आदत नहीं है। इसलिए मैं उनकी ओर से निश्चिन्त था।
 
तीन-साढ़े तीन बजे उत्तमार्द्ध ने चाय पीने की इच्छा जताई। ‘अविलम्ब आज्ञापालन और इच्छापूर्ति’ की दम्भोक्ति करते हुए मैं प्लेटफार्म पर गया। लेकिन मुझे कहीं चाय नहीं मिली। स्टॉल तो लगभग सारे के सारे खुले थे किन्तु चाय किसी के पास नहीं थी। दुकानदारों ने बताया कि प्लेटफार्म पर चाय बनाना (याने कि चूल्हा जलाना) निषिद्ध कर दिया गया है। इसलिए, जब भी कोई रेल आती है, उस समय, स्टेशन से बाहर से चाय बन कर आ जाती है। मुझे सलाह दी गई कि मैं भी बाहर जाकर चाय प्राप्त कर लूँ। सलाह तो नेक थी किन्तु गर्मी इतनी अधिक और इतनी तेज थी कि बाहर जाने की हिम्मत नहीं हुई। मैं उत्तमार्द्ध के पास लौटा - खाली हाथ और चेहरे पर झेंप लिए। मुझे देखकर और मेरी बात सुनकर वे हँस दी। लेकिन, गर्मी में बाहर न जाने के मेरे निर्णय से सहमत भी हुईं और उसे सराहा भी।
 
जितने अखबार हम लेकर चले थे और रास्ते में खरीदे थे, वे सब हम पढ़ चुके थे, उनकी वर्ग पहेलियाँ भर चुके थे। दो-एक पत्रिकाएँ थीं। लेकिन उनके पन्ने भी कितनी बार पलटते? लिहाजा, अब हम दोनों के पास कोई व्यस्तता नहीं थी। यह अत्यधिक असहज स्थिति थी। काम कुछ भी नहीं। किसी के आने की प्रतीक्षा भी नहीं और जिसकी (रेल की) प्रतीक्षा थी, मालूम था कि वह समय से पहले तो आने से रही! सो, सचमुच में पल-पल भारी पड़ रहा था।
 
लेकिन ईश्वर बड़ा कृपालु था। चार बजते-बजते विनोद भैया का फोन आया। पूछ रहे थे कि प्लेटफार्म पर हम लोग कहाँ हैं। मैंने हमारी ‘भौगोलिक स्थिति’ बताई/समझाई और कहा - ‘आते समय हमारे लिए चाय लेते आइएगा।’ वे आए तो सही किन्तु केवल चाय लेकर नहीं। नमकीन और मिठाई के पेकेटों से लदे-फँदे। किन्तु इन सबसे पहले उनकी अप्रसन्नता - ‘कल ही खबर क्यों नहीं की? सीधे घर क्यों नहीं आए? अभी तो गाड़ी में काफी देर है। फौरन घर चलिए। भोजन किए बिना कैसे जा सकतेहैं?’ उन्होंने गुस्सा कर लिया तो हम सहज हो गए। अब भय और खतरे की कोई बात नहीं रह गई थी। उनसे बार-बार क्षमा-याचना की, अपनी सफाई दी, चाय के लिए अनेकानेक धन्यवाद दिए और याचना की - ‘खूब गुस्सा हो लिए। अब हँस दिए।’ उन्होंने कहा नहीं माना। गुस्से में रंचमात्र भी कमी किए बिना मेरी उत्तमार्द्ध को मानो झिड़का - ‘बैरागीजी तो ऐसे ही हैं लेकिन क्या वीणा जीजी आप भी? आप भी इनके जैसी हो गईं?’ बड़ी मुश्किल से वे शान्त और सहज हुए।
 
प्रतीक्षा कक्ष प्लेटफार्म नम्बर एक पर था और गाड़ी प्लेटफार्म नम्बर 6 पर आनेवाली थी। उसके आगमन की सूचनाएँ प्रसारित होने लगी थीं। सामान अधिक नहीं था। हम लोग प्लेटफार्म नम्बर 6 पर पहुँचे। रेल ने महबूबा की अदा बरती। कोई आधा घण्टा देर से पहुँची । तब तक विनोद भैया के एक परिचित उनसे कुछ अनुरोध करते नजर। विनोद भैया उन्हें लेकर मेरे पास आए। परिचय दिया। वे आयुर्वेदिक औषधि विक्रेता थे। उनका नाम श्री दीनदयाल फरक्या था। वे मूलतः मेरे ननिहाल, रामपुरा के निवासी थे। उन्हें कुछ मुद्रित सामग्री मथुरा पहुँचानी थी। अगले वर्ष, इलाहाबाद में होनेवाले कुम्भ मेले से सम्बन्धित, उनके धर्म-गुरु के आदेश पर छपाई थी। मैंने जिम्मेदारी ले ली। वे अपने धर्म-गुरु और उनकी गतिविधियों के बारे में बताने लगे। मैंने नम्रतापूर्वक (और दृढ़तापूर्वक भी) क्षमा याचना कर ली कि इस सबमें मेरी कोई रुचि नहीं है। उन्हें अच्छा तो नहीं लगा होगा किन्तु एक कुशल व्यापारी की तरह उन्होंने कोई प्रतिकूल प्रतिक्रिया नहीं जताई - न तो शब्दों से, न ही हाव-भाव से।
 
निर्धारित समय से कोई आधा घण्टा विलम्ब से हमारी रेल आई। हमारा डिब्बा ठीक वहीं आया जहाँ डिब्बा-संकेतक के अनुसार आना था। हमने अपनी बर्थें तलाशीं। सहयात्री हमसे अधिक जवान, अधिक समझदार तथा अधिक शिष्ट थे। उनका सामान नाम मात्र का था। निचली बर्थों के नीचे, सामान रखने की भरपूर जगह थी।  हमने अपना सामान रखा। फरक्याजी ने अपने दो बण्डल रखे। हमने देखा - हमसे पहले सवार चार यात्रियों के सामान के मुकाबले हम दो यात्रियों का सामान अधिक था। हमें तनिक संकोच हुआ लेकिन सहयात्रियों के चेहरों पर ऐसा कोई भाव नहीं था कि हम असहज हो जाएँ। वे चारों ही इन्दौर से बैठे थे। एक का नाम जयेश भाई गोस्वामी था। वे विक्रय कर सलाहकार थे और विभिन्न कम्पनियों का काम देखने/करने के लिए पूरे देश में घूमते रहते हैं। उन्हें अगले दिन, नई दिल्ली से पटना जाने के लिए बिहार सम्पर्क एक्सप्रेस पकड़नी थी। दो बहनें थी - ज्योति और प्रीती। उनके साथ एक युवक था। तीनों ही, अलंकार/आभूषणों के व्यापार से सम्बद्ध थे। दोनों बहनें एमबीए डिग्रीधारी थीं। आत्म विश्वास से लबालब। दोनों खुद को किसी कम्पनी की कर्मचारी बता रही थीं  किन्तु गोस्वामीजी सहित मेरा भी मानना था कि कम्पनी, उनकी खुद की है। घर की ही।
 
हमारी रेल सरकी। हमने विनोद भैया को धन्यवाद देकर विदा ली। विनोद भैया का दिया सामान व्यवस्थित रूप से रखने के लिए उत्तमार्द्ध ने केरी-बेग खोला। दो पेकेट नमकीन के थे और एक पेकेट मिठाई का। सामान रखते-रखते मिठाई का पेकेट खुल गया तो हमारी आँखें फटी रह गईं। अन्दर 6 लड्डू थे। खूब बड़े-बड़े। पेकेट पर नाम देखा -  बाफना स्वीट्स। याद आया, उज्जैन की यह दुकान, अपने ‘मगज के लड्डू’ के लिए दूर-दूर तक जानी जाती है। मालवा में बादाम को ‘मगज‘ कहा जाता है। हमारी आँखें फटने का कारण आप खुद समझिए - हम 14 अक्टूबर को 6 लड्डू ले गए थे। आज, 05 नवम्बर को, उन्नीसवें दिन, जब मैं यह पोस्ट लिख रहा हूँ, तब तक हम ये 6 लड्डू नहीं खा पाए हैं। तीन अभी भी बचे हुए हैं। एक तो लड्डू मगज के और दूसरे इतनेऽऽऽऽए बड़े! आप खुद ही देख लीजिए -
 
 

लेकिन यह तो शुरुआत थी। अजय मूँदड़ा ने हमारे साथ क्या किया-यह जानेंगे तो ही हमारी स्थिति का अनुमान लगा सकेंगे।  
 
कौन है यह अजय मूँदड़ा क्या किया इस आदमी ने हमारे साथ? यह बाद में बताता हूँ।

काम एक : व्‍यवहार अनेक

एक ही काम के लिए, एक ही प्रकृति के संस्थानों/कार्यालयों में अलग-अलग व्यवहार देख कर अचम्भा होता है। कभी-कभी दुःख भी होता है। काम एक, संस्थान एक तो फिर अलग-अलग व्यवहार क्यों?
 
ऐसे अनुभवों की संख्या तो अधिक ही है किन्तु दैनन्दिन व्यवहारवाले तीन अनुभव मुझसे भूले नहीं बन रहे।

पहला अनुभव बैंकों का।

एक साथी अभिकर्ता के साथ एक निजी बैंक में जाना पड़ा। ‘पूछताछ‘ वाली टेबल पर उसने कहा कि उसे अपने खाते के लेन-देन की जानकारी उसके मोबाइल पर चाहिए। कर्मचारी ने अभिकर्ता की पहचान माँगी। पुष्टि होने पर खाता नम्बर पूछा। कम्प्यूटर पर उसका खाता खोल कर, एक बार फिर नाम की पुष्टि की, मोबाइल नम्बर पूछा, उसे दोहरा कर पुष्टि की। दो-तीन बटन दबाए और कहा - ‘हो गया। अब आपको एसएमएस अलर्ट मिलता रहेगा।’ साथी अभिकर्ता ने पूछा - ‘मैं कैसे कन्फर्म करूँ?’ कर्मचारी ने कहा - ‘आप अभी ही अपने खाते में कुछ रकम या तो जमा कर दें या निकाल लें। मालूम हो जाएगा।’ अभिकर्ता ने पाँच सौ रुपये जमा कराए। कुछ ही क्षणों में उसके मोबाइल पर सूचना आ गई।

हम तीन अभिकर्ता बैंक ऑफ बड़ौदा की शाखा में खड़े थे। एक कर्मचारी ने कहा कि हमारा काम खत्म कर, जाने से पहले हम उससे मिल लें। हमने वही किया। उसने एक-एक करके हमसे हमारा खाता नम्बर पूछा। अपने कम्प्यूटर में कुछ देखा। उसमें अंकित उनके मोबाइल नम्बर दोहरा कर पुष्टि की। मेरा नम्बर आया तो कम्प्यूटर देख कर बोला - ‘कमाल है! आपने एसएमएस अलर्ट सुविधा अब तक नहीं ली?’ उसे मेरा मोबाइल नम्बर याद था। कम्प्यूटर में लिखा और दोहरा कर पुष्टि कर बोला - ‘आपके खाते के लेन-देन की जानकारी अब आपको फौरन ही आपके मोबाइल पर मिल जाएगी।’

एक अन्य अभिकर्ता को यह सुविधा चाहिए थी। उसका खाता, भारतीय स्टेट बैंक में था। हम दोनों पहुँचे। सम्बन्धित बाबू से बात की। उसने अभिकर्ता की ओर देखा भी नहीं और रूखी आवाज में कहा - ‘एक एप्लीकेशन दे दो। साथ में पान कार्ड की फोटो कॉपी लगा देना।’ वांच्छित फोटो प्रति अभिकर्ता के पास पहले से ही थी। उसी बाबू से कागज माँगा। आवेदन लिखा। आलपिन माँग कर पान कार्ड की फोटो प्रति नत्थी की और बाबू को दी। उसने बेमन से आवेदन लिया, खाता नम्बर बुदबुदाया और आवेदन को दराज में रखते हुए बोला - ‘ठीक है। हो जाएगा।’ अभिकर्ता ने पूछा - ‘कब हो जाएगा?’ बाबू को अच्छा नहीं लगा। बोला - ‘कह दिया ना? हो जाएगा। आप जब भी ट्राँसेक्शन करोगे, मालूम पड़ जाएगा।’ अभिकर्ता ने कहा - ‘अभी जमा कर रहा हूँ। मालूम हो जाएगा?’ बाबू को अच्छा नहीं लगा। चिढ़ गया। बोला - ‘ऐसे कैसे हो जाएगा? अभी तो मैंने कुछ किया ही नहीं! अपने आप थोड़े ही ऐसे कुछ हो जाता है? जब होना होगा, हो जाएगा।’ अभिकर्ता ने बताया कि इसके तीसरे दिन उसे एसएमएस अलर्ट सुविधा मिल पाई।

दूसरा अनुभव ऑटो रिक्शा के किराये को लेकर है। जानता हूँ कि यह मामला किसी ‘संस्था’ से जुड़ा नहीं है लेकिन मेरी शुभेच्छा है कि ऐसा नहीं होना चाहिए।

रेल्वे स्टेशन से मेरे निवास तक का किराया अधिकतम तेईस रुपये लगता है। अभी, 29 अक्टूबर को हम दोनों पति-पत्नी, नीमच से, बस से लौटे। जावरा फाटक पर उतर कर दिल बहार चौराहा पहुँचे जहाँ से मेरे निवास की दूरी, रेल्वे स्टेशन से मेरे निवास की दूरी के मुकाबले आधा किलो मीटर कम है। हमने ऑटो रिक्शावाले से भाड़ा पूछा। उसने कहा - ‘तीस रुपये।’ वहाँ आठ-दस ऑटो रिक्शा खड़े थे। सो मैंने तनिक अतिरिक्त उत्साह से, अन्य रिक्शावालों से बात की। सबने, एक स्वर में भाड़ा तीस रुपये ही बताया। मैंने रेल्वे स्टेशन से वहाँ तक की आधा किलो मीटर कम दूरी का और स्टेशन से घर तक का किराया तेईस रुपये होने की बात कह कर अधिकतक बीस रुपये देने की पेशकश की तो सबने कहा कि वहाँ से तेईस रुपयेवाली बात उन सबको पता है। सबने एक स्वर से कहा - ‘आप स्टेशन जाकर वहाँ से तेईस रुपयों में अपने घर चले जाइए।’ मुझे बहुत बुरा लगा। सूझ-समझ नहीं पड़ी कि क्या करूँ? प्रतिवाद, प्रतिरोध का कोई उपाय तत्क्षण मेरे पास नहीं था। हम दोनों पति-पत्नी ने तय किया कि इस बेशर्मी और अनुचित के सामने समर्पण नहीं करेंगे। और हम दोनों पैदल-पैदल ही घर आए।

तीसरा अनुभव एल आई सी का है। तनिक पुराना है।

मेरे कस्बे में, एल आई सी की तीन शाखाएँ हैं। एक सज्जन ने दोनों शाखाओं से, एक ही दिन, एक-एक लाख रुपयों की, अलग-अलग, दो, मनी बेक पॉलिसियाँ लीं। पाँच वर्षों के बाद उन्हें, दोनों शाखाओं से, बीस-बीस हजार रुपयों के दो, अलग-अलग चेक मिले। वे सज्जन चेक जमा कराना भूल गए और तीन महीनों के बाद वे दोनों चेक ‘बासी’ (स्टेल) होकर अप्रभावी/अनुपयोगी हो गए। दोनों चेक लेकर वे, पहले काटजू नगर स्थित शाखा क्रमांक-1 पहुँचे। वहाँ के कर्मचारियों ने हाथों-हाथ दूसरा चेक बना कर दे दिया।

वे सज्जन खुशी-खुशी, शाखा क्रमांक-2 पहुँचे। मैं इसी शाखा से सम्बद्ध हूँ। यहाँ के कर्मचारियों ने उनसे, मूल पॉलिसी अभिलेख (ओरीजनल पॉलिसी बॉण्ड) तथा विमुक्ति पत्रक (डिस्चार्ज वाउचर) माँगा। वे सज्जन कुछ नहीं समझ पाए। उन्होंने शाखा क्रमांक-1 का हवाला दिया, वहाँ से जारी किया नया चेक दिखाया। कर्मचारियों से कहा कि वे चाहें तो शाखा क्रमांक-1 के कर्मचारियों से पूछ लें। लेकिन कर्मचारियों ने कुछ नहीं सुना। कहा - ‘वहाँ, उन्होंने क्या किया, इससे हमें कोई लेना-देना नहीं। हम तो मेन्युअल के हिसाब से चलेंगे जिसके मुताबिक दोनों कागज चाहिए। उनके बिना नया चेक नहीं दिया जा सकता। बस।’

हम सब लोग असहाय, निरुपाय बन, टुकुर-टुकुर देख रहे थे क्योंकि मेरी शाखा के कर्मचारियों की बात सही थी। किन्तु इसके समानान्तर, व्यावहारिक सच का प्रमाण, ग्राहक के हाथ में था। मेरी शाखा के कर्मचारी अपनी बात पर अड़े रहे। उन्होंने शाखा प्रबन्धक का अनुरोध भी अस्वीकार कर दिया। मुझ सहित, उपस्थित कोई भी अभिकर्ता उन सज्जन की कोई सहायता नहीं कर पाए।

उन सज्जन को अन्ततः चेक तो मिला लेकिन उन्होंने कहा - ‘आप मेरे जीते जी मुझे मेरे वाजिब पैसे नहीं दिलवा सके तो मेरे मरने के बाद मेरे बच्चों को क्या दिलवाओगे?’ उन्हें उत्तर दिया जा सकता था, समझाया जा सकता था। किन्तु परास्त नैतिकता से दबे हम लोग उन्हें कोई उत्तर नहीं दे सके।
ये और ऐसी ही छोटी-छोटी बातें मुझे कचोटती हैं। असहज करती हैं।

करवा चौथ : हम दोनों ने धर्म निभाया

 
ये हैं मेरी उत्तमार्द्ध, वीणाजी। इनका यह चित्र, करवा चौथ, 02 नवम्बर 2012 की सुबह 10 बजकर 37 मिनिट पर लिया था। चित्र में, इनके हाथ की थाली में तले हुए आलू चिप्स और बाँयी ओर रखी प्लेट में राजगिरे का हलुवा आप शायद देख पा रहे हों।
 
आज के अखबारों में करवा चौथ छाई हुई थी। किसी ने धार्मिकता के साथ तो किसी ने मार्केटिंग के नजरिये से करवा चौथ को प्रमुखता दी थी। बरसों से माथा खपा रहा हूँ लेकिन यह बात मुझे आज तक समझ नहीं आई कि सारे व्रत-उपवास महिलाओं के लिए ही क्यों जरूरी किए गए हैं? खूब ध्यान से देखने पर भी, एक भी व्रत-उपवास पुरुषों के लिए नजर नहीं आया। पुरुष अपनी मन-मर्जी से एकादशी-पूर्णिमा का व्रत/उपवास कर लें, यह अलग बात है किन्तु ‘केवल पुरुषों के लिए’ एक भी व्रत/उपवास का प्रावधान नहीं मिला। मुझे यह बात कभी अच्छी नहीं लगी। इसीलिए, मैं ऐसे प्रत्येक प्रसंग पर मेरी उत्तमार्द्ध को व्रत/उपवास करने से रोकता रहा हूँ।
 
आज मैंने ठान लिया कि आज मैं इन्हें उपवास नहीं करने दूँगा। सो, चाय पीते हुए कहा - ‘मेरी हार्दिक इच्छा है कि आज आप उपवास नहीं करें।’ मेरी बात सुनकर इन्होंने मेरी ओर देखा भी नहीं। मैंने कहा - ‘क्या आप इसीलिए मुझे दीर्घायु देखना चाहती हैं या सात जनम तक मेरा साथ चाहती हैं कि आप मेरी बात अनसुनी करती रहें, मेरी उपेक्षा करती रहें?’ इस बात ने असर किया। तनिक असहज होकर मेरी ओर देखा। बोलीं - ‘यह क्या बात हुई?’ मैंने कहा - ‘जब आप मेरी बात ही सुनने-मानने को तैयार नहीं तो उपवास तो केवल एक कर्मकाण्ड, एक दिखावा भर है! जिस पति की बेहतरी के लिए आप उपवास करना चाहती हैं, उसी की प्रसन्नता ही चिन्ता नहीं कर रहीं? क्या फायदा ऐसे उपवास का?’ वे तनिक नरम पड़ीं। बोलीं - ‘लोग क्या कहेंगे? आस-पड़ौस की औरतें क्या कहेंगी?’ इस जवाब ने मेरा हौसला बढ़ा दिया। मैंने मानो अन्तिम तर्क दिया - ‘आपको मेरे मुकाबले लोगों की और आस-पड़ौस की औरतों की चिन्ता ज्यादा है! पूछें तो कह दीजिएगा कि जिसके लिए उपवास करना था, उसी ने मना कर दिया। आप नहीं कह सकें तो मुझे बुलवा लीजिएगा। मैं सबको जवाब दे दूँगा।’ यह सवाल कारगर साबित हुआ। हथियार डालते हुए बोलीं - ‘अच्छा निर्जल उपवास नहीं करूँगी लेकिन निराहार उपवास करने में तो कोई हर्ज नहीं है!’ मैंने कहा - ‘चलिए! न आपकी न मेरी! आधी-आधी दोनों की। आप व्रत कर लीजिए - एक समय भोजन कर लीजिएगा।’ वे मान गईं।
 
मैंने थामी हुई अंगुली से अपनी पहुँच कलाई तक बढ़ाई - ‘चलिए! ऐसा ही सही। किन्तु शाम तक भूखे मत रहिएगा। सुबह के लिए कुछ फलाहार बना लीजिएगा।’ या तो उन्हें मेरी जिद का अनुमान हो गया था या वे मेरी प्रसन्नता की चिन्ता कर रही थीं - मान गईं। इसी के तहत सुबह उन्होंने आलू चिप्स तले और राजगिरे का हलवा बनाया। मैंने कहा - ‘आप अकेली व्रत नहीं करेंगी। मैं भी आपके साथ व्रत करूँगा।’ वे खुश हो गईं। सो, सुबह हमारे घर में भोजन नहीं बना। हम दोनों ने ‘फलाहार’ किया।
 
शाम को सब कुछ सामान्य व्यवहार हुआ। रोज की तरह शाम का भेजन बनाकर वे छत पर घूमने गईं। आज कुछ अधिक देर तक रुकीं - चन्द्र दर्शन जो करना था। चन्द्र दर्शन कर नीचे आईं। बोली - ‘आइए! भोजन कर लेते हैं।’ मुझे भूख नहीं थी। जवाब दिया - ‘आप सुबह की भूखी हैं। आप भोजन कर लीजिए। मैं बाद में कर लूँगा।’ अपनी थाली लगाते हुए उन्होंने परिहास किया - ‘करवा चौथ मैं कर रही हूँ या आप?’ मैंने कहा - ‘सुबह ही तय हो गया था कि मैं भी आपके साथ व्रत करूँगा। वहीं तो कर रहा हूँ?’ इस बार वे खुल कर हँसी - ‘हाँ। व्रत तो आपने ही किया है। पत्नी के भोजन करने के बाद भोजन करेंगे। आज का पुण्य आपको मिलेगा।’
वे भोजन करती रहीं और मैं टेबल पर अपना काम निपटाता रहा। अचानक याद आया - भोजन करते हुए इनकी तस्वीर ले ली जाए। मैं पहुँचा तब तक वे भोजन कर चुकी थीं। नीचेवाला चित्र उसी समय का है - रात 9 बजकर सात मिनिट का। उनकी प्लेट ‘सफाचट’ है। पासवाली थाली उन्होंने मेरे लिए लगाई थी। आज शाम हमारे यहाँ मैथी के पराठे, टमाटर की सब्जी और भरवाँ बेसन-मिर्ची बनी थी। मेरी थाली में बादवाली ये दोनों ही चीजें आपको नजर आ रही होंगी।
 
 
जब मैं यह लिख रहा हूँ तो दो और तीन नवम्बर की सेतु-रात्रि के साढ़े बारह बजनेवाले हैं। मेरी उत्तमार्द्ध गाढ़ी नींद में हैं। मुझे बहुत अच्छा लग रहा है। आज मैंने मेरी उत्तमार्द्ध को एक व्यर्थ के कर्मकाण्ड से बचाने में सफलता पाई। उन्होंने मेरी प्रसन्नता की चिन्ता की और करवा चौथ के उपवास को दूसरी वरीयता पर रखा।
 
मुझे लग रहा है - आज हम दोनों ने ही अपना-अपना धर्म निभाया।

और मैंने ऋषिकेश यात्रा की हामी भर ली

05 अगस्त को हमारे बड़े बेटे चि. वल्कल का तैंतीसवाँ जन्म दिनांक था। सुबह-सुबह दोनों (पति-पत्नी) उसे आशीर्वाद देकर चाय पी रहे थे कि बिना किसी सन्दर्भ/प्रसंग के मेरी उत्तमार्द्ध ने कहा - ‘नव रात्रि में, ऋषिकेश में, गीता भवन में रामायणजी का पाठ होगा। मेरी इच्छा है कि अपन दोनों इसमें चलें।’ मैंने तत्क्षण हामी भर दी। वे चकित हो बोलीं - ‘अरे! आपने तो एक सेकण्ड में हाँ कर दी! सच्ची में आप चलेंगे?’ मैंने कहा - ‘आपने इच्छा जताई है तो जरूर चलेंगे। लेकिन मुझे आपसे एक छूट चाहिए।’ तब तक उनका अचरज दूर हो चुका था। बोलीं - ‘जानती हूँ कि आपको कौन सी छूट चाहिए। चिन्ता मत कीजिए। आपका जी करे तो पाठ में बैठिएगा और जी न करे तो मत बैठिएगा।’ अब मेरे चकित होने की बारी थी। एक-दूसरे को समझने के मामले में वे मुझसे कोसों आगें निकलीं। मैं झेंप गया। इसी ‘झेंपित दशा’ में, उनकी इस उदारता के लिए उन्हें धन्यवाद दिया।
 
चाय पीते ही हम दोनों केलेण्डर और रेल्वे टाइम टेबल लेकर बैठ गए। रतलाम से सीधे हरिद्वार पहुँचानेवाली दैनिक रेल, देहरादून एक्सप्रेस लगभग सत्ताईस घण्टे लेती नजर आ रही थी। इन्दौर/उज्जैन से मिलनेवाली ट्रेनों की भी यही ‘गति’ थी। नेट पर तलाश किया तो एक ट्रेन, बलसाड़-हरिद्वार मिल गई जो अधिकतम सोलह घण्टों में रतलाम से हरिद्वार पहुँचा रही थी। किन्तु यह ट्रेन सप्ताह में एक ही दिन, मंगलवार को चलती है और इससे जाने पर हमें कोई सप्ताह भर हरिद्वार में अतिरिक्त रुकना पड़ रहा था। रामायण पाठ सोलह को शुरु होना था और इस ट्रेन से हमें दस अक्टूबर को ही पहुँचना होगा। याने, ग्यारह घण्टों की यात्रा से बचने के लिए पूरे सात दिन बिना बात-बिना काम के हरिद्वार में रुकना! बहुत बड़ी कीमत लगी हमें। लेकिन सोचा, हरिद्वार के आसपास थोड़ा घूम लेंगे। वापसी इसी ट्रेन से कर लेंगे - चौबीस अक्टूबर को। दशहरे के दिन।
 
तय करके वल्कल को फिर फोन लगाया। रेल का नम्बर, नाम और तारीखें बता कर, थ्री टायर वातानुकूलित स्लीपर में आरक्षण कराने को कहा। वह हमसे एक कदम आगे निकला। उसने टू टायर वातानुकूलित स्लीपर में आरक्षण ले लिया। (टोकने पर उसने कहा - ‘आप होंगे गरीब बाप के बेटे। मैं, लखपति बीमा एजेण्ट और कमाऊ अध्यापक माँ का बेटा हूँ। फिर, मैं भी तो कमा रहा हूँ!’ है कोई जवाब ऐसी बातों का?) दोनों तरफ के आरक्षण ‘वेटिंग’ में मिले। जाने के लिए प्रतीक्षा सूची 25-26 और आने के लिए प्रतीक्षा सूची 1-2। टिकिट उसने नेट से लिए थे और नेट से ही मुझे भेज दिए। मैंने दोनों टिकिट छाप कर अपनी जेब में रख लिए।
 
शाम को सुभाष भाई जैन से मुलाकात हुई। वे मेरे ‘संरक्षक’ की भूमिका निभाते हैं। रेल्वे में हेण्डलिंग काण्ट्रेक्टर हैं सो रेल अधिकारियों से ‘ठीक-ठीक’ सम्पर्क है। मैंने अपनी यात्रा का जिक्र किया। उन्होंने आरक्षण के बारे में पूछा। मैंने टिकिट बताए। देख कर उनका माथा ठनका। किसी को फोन लगा कर पूछा - ‘वेटिंग में ये पीक्यूडब्ल्यूएल क्या होता है?’ उधर से जो जवाब मिला उसे सुनकर मुझसे बोले - ‘ये टिकिट फौरन केंसल करवाइए और रतलाम/इन्दौर/उज्जैन से चलनेवाली किसी ट्रेन में रिजर्वेशन लीजिए। ये न तो कन्फर्म होंगे और न ही इन पर वीआईपी अलॉटमेण्ट हो सकेगा।’ वहीं बैठे-बैठे एक बार फिर रेल्वे टाइम टेबल देखे, तारीखों के बारे में उत्तमार्द्ध से बात की। मालूम हुआ कि रतलाम से मिलनेवाली देहरादून एक्सप्रेस में रिजर्वेशन मिलना तो दूर, हमारी मनपसन्द तारीखों में वीआईपी अलॉटमेण्ट भी नहीं मिल सकेगा। सुनकर, फौरन ही वल्कल को फोन कर, रतलाम-हरिद्वारवाले रिजर्वेशन निरस्त कराने के लिए कहा और मन मारकर, इन्दौर से चलनेवाली इन्दौर-देहरादून एक्सप्रेस के टिकिट लिए। मिले तो ये भी वेटिंग में ही किन्तु सुभाष भाई ने कहा - ‘बेफिकर रहिए। गाड़ी इन्दौर से ही बनती है। आपको जगह मिल जाएगी।’
 
परिवर्तित कार्यक्रमानुसार अब हमारी यात्रा 14 अक्टूबर से शुरु होनी थी। उसी शाम को हमें उज्जैन से रेल में बैठना था।

अब हम 14 अक्टूबर की प्रतीक्षा और उसके समानान्तर, मन ही मन, यात्रा की तैयारियाँ कर रहे थे।