रामचन्द्र को लिखा पत्र अभी-अभी डाक के डिब्बे में डाल कर आया हूँ। पत्र क्या है, ‘माफीनामा’ है। उसके साले ने उसे बुरी तरह से डाँटा-फटकारा। बिना किसी बात के। दोष यदि था तो मेरा था। रामचन्द्र का तो कोई लेना-देना था ही नहीं। लेकिन परिजन जब ‘प्रेमान्ध’ हो जाएँ तो सम्भवतः ऐसा ही होता होगा।
रामचन्द्र मेरा कक्षापाठी है। मुझसे खूब स्नेह रखता है। मुझ पर अतिशय मुग्ध, मोहग्रस्त और भावुक। बिना किसी सन्दर्भ-प्रसंग के भी मेरी चर्चा और प्रशंसा करना नहीं चूकता। मेरी चवन्नी को भी रुपया बना कर पेश करता है। पहले गाँव में रहता था। लेकिन इकलौते बेटे की नौकरी के चलते अब जिला मुख्यालयवाले कस्बे में रहता है।
दीपावली पर उसे मेरा भेजा हुआ अभिनन्दन-पत्र मिला तो उसने फौरन फोन किया। उसके एक-एक बोल से प्रसन्नता और उल्लास छलक रहा था। मुझे धन्यवाद और शुभ-कामनाएँ देते हुए कह रहा था कि पत्रों के नाम पर अब उसे गिने-चुने पत्र ही मिलते हैं। वस्तुतः, छात्र-जीवन के समय में हम दोनों का पत्राचार हमारे मित्रों के बीच चर्चा का, विस्मय का और कुछ सीमा तक ईर्ष्या का भी विषय हुआ करता था। वह इस बात पर अतिरिक्त प्रसन्न था कि पत्राचार की मेरी आदत अब तक बनी हुई है। उसकी अतिरेकी प्रशंसा मुझे अच्छी लग रही थी। अपनी प्रशंसा भला किसे अच्छी नहीं लगती? देवता भी इस तृष्णा से मुक्त नहीं रह पाते! फिर, मैं तो सामान्य मनुष्य हूँ! दीपावली के दिन थे, सो फोन पर फोन आए जा रहे थे। मैंने अपनी ओर से सम्वाद समेटते हुए कहा - ‘बाद में विस्तार से बात करेंगे।’
मैं अपना काम-काज निपटाने में लग गया। कोई आधा घण्टे बाद फिर रामचन्द्र फोन पर था। इस बार रुँआसा था। लग रहा था, रो देगा। कह रहा था कि मेरे दीपावली अभिनन्दन-पत्र को लेकर उसक साले ने उसे बुरी तरह से डाँट दिया। हुआ यह कि उसके साले के आते ही रामचन्द्र ने मेरा भेजा अभिनन्दन-पत्र उसे दिखाया और सदैव की तरह मेरी अतिरेकी प्रशंसा करते हुए कहा कि आज के जमाने में भी मैं उससे कितना स्नेह करता हूँ। जीजा की बात सुनकर साले ने मेरा अभिनन्दन-पत्र देखा और भड़क गया। बोला कि पूरा अभिनन्दन-पत्र तो ‘यान्त्रिक’ है। इसमें हाथ का लिखा तो एक अक्षर भी नहीं है। अभिनन्दन-पत्र छपा हुआ है, पते का स्टीकर भी छपा हुआ है, प्रेषक का नाम भी छपा हुआ है। सब कुछ तो मशीनी है! मानवीय स्पर्श तो है ही नहीं! इसके बाद ही साले ने अपने जीजा को कुछ इस तरह डाँटा - ‘‘आप बड़े भोले हो जीजाजी। आप बेकार ही बैरागी पर जान छिड़कते रहते हो। बैरागी को तो पता ही नहीं होगा कि आपके नाम का पत्र भी गया है। उसने तो प्रेस से पत्र छपाए, एक मजदूर ने तैयार किए, पते के स्टीकर और टिकिट चिपकाए और डाल दिए डाक के डिब्बे में। उसने न तो ‘प्रिय रामचन्द्र’ लिखा और न ही ‘तुम्हारा विष्णु बैरागी’ लिखा। इसमें आपके प्रति स्नेह या अपनापा कहाँ है? कोई स्नेह-वेह, अपनापा-वपनापा नहीं है। निकलो बैरागी के चक्कर से। छोड़ो उसका राग अलापना। वो आपको बेवकूफ बना रहा है और आप बेवकूफ बने जा रहे हो।’’
जीजाजी को झाड़कर साला तो चला गया लेकिन रामचन्द्र को अच्छा नहीं लगा। साले के जाते ही उसने मुझे फोन किया और अपनी ’व्यथा-कथा’ सुनाने लगा। मैंने उसे रोकने की, समझाने की बहुतेरी कोशिश की लेकिन वह मेरी सुन ही नहीं रहा था। अपनी रौ में बहे जा रहे था। मेरा धैर्य छूट गया और चिढ़कर मैंने फोन बन्द कर दिया।
मैं असहज हो चुका था। रामचन्द्र के साले की बातें सही ही थीं। सब कुछ तो मशीनी ही था! हाँ, यह विचार का विषय हो सकता है कि यदि मेरा व्यक्तिगत स्पर्श न होता तो रामचन्द्र का नाम मेरी डाक सूची में क्योेंकर होता? किन्तु इसे भी छोड़ दिया जाए तो भी बेचारे रामचन्द्र का क्या दोष? दोष यदि था तो मेरा था। रामचन्द्र का दोष यदि था केवल इतना कि उसने पत्र लौटाया नहीं। दूसरा दोष उसका यह रहा कि अपनी आदत के अनुसार उसने मेरी प्रशंसा की। लेकिन दोनों दोष ऐसे नहीं कि रामचन्द्र को प्रताड़ित किया जाए।
यह पत्र व्यवहार तो रामचन्द्र और मेरे बीच था। इससे रामचन्द्र के साले का क्या लेना-देना? पत्र के ‘यान्त्रिक’ होने की शिकायत यदि होनी थी तो रामचन्द्र को होनी थी! और यदि, साले साहब को बुरा लगा तो अपना ‘आक्रोशित मन्तव्य’ मुझे बताना चाहिए था। मुझे इन्हीं दो बातों का दुःख हुआ - हम दोनों के व्यवहार में साले साहब का हस्तक्षेप मुझे न केवल अनुचित लगा अपितु अविवेकी, नासमझी भी लगा। और मेरी जगह रामचन्द्र को डाँटना? यह मुझे साले साहब की मूर्खता भी लगी और कायरता भी। उन्हें जो भी कहना था, मुझसे कहना चाहिए था। साले साहब ने तो ‘कर गया दाढ़ीवाला, पकड़ा गया मूँछवाला’ वाली जनोक्ति को साकार कर दिया।
इसके समानान्तर मुझे यह भी लगा कि अपने जीजा की अवमानना करना, साले की मंशा तो कभी नहीं रही होगी। फिर भी साले साहब यह सब कर गुजरे - दोषी को बख्श दिया और निर्दोष को दण्डित कर बैठे। अचानक ही मुझे रामचन्द्र से ईर्ष्या भी हो आई। कितने प्रेमल और मोहग्रस्त परिजन मिले हैं उसे? ऐसे कि ‘अपनेवाले’ की चिन्ता में न केवल अपनेवाले पर अत्याचार कर बैठे अपितु नादानी, मूर्खता और कायरता भी बरत बैठे!
और विचार करते-करते खुद पर ही हँसी भी आ गई। मैं भी तो किसी का ऐसा ही ‘प्रेमान्ध परिजन’ हूँगा और ऐसे ही ‘प्रेमान्ध परिजन’ मेरे आस-पास भी तो होंगे!
आपकी इस सुन्दर प्रविष्टि की चर्चा कल मंगलवार 20/11/12 को चर्चा मंच पर राजेश कुमारी द्वारा की जायेगी आपका स्वागत है
ReplyDeleteधन्यवाद। आभार।
Deleteआती सुन्दर,
ReplyDeleteमुजे भी आप का पत्र मिला, मुजे बस ख़ुशी हुए की आज के इन्टरनेट और मोबाइल के युग में पत्र मिलना १ सुखद अनुभव है |
१ निवेदन है , आप के पत्र मिलते रहे बस |
वो आपको बेवकूफ बना रहा है और आप बेवकूफ बने जा रहे हो...
ReplyDeleteहा हा हा..
पूरी दुनिया यही करती आ रही है, करती रहेगी!
हस्ताक्षर मशीनीपन को तोड़ देता है, हस्ताक्षर तो कर ही दें।
ReplyDeleteKya keejiyega Bhaijee! SMS se Shubhkaamnaayen aur SMS se hi pratyuttar.Ab personal touch ka put kahan se laayen?
ReplyDeletesabhi (mujhe mila kar) dusre ke phate main pair ada rahe hain,mere college me namaste pet main mukka mar kar, 'aur kaisa hai be'se hoti thi.saint stephan walo ko hum gawwar lagte the,meri dadi mujhe pyaar se nipute kahti thi meri padhi likhi tai unhe gawwr kahti thi par mujhe aaj bhi wo nipute sansar ke har ashirwad se achha lagata hai wo muskurata chehra wo aankho se ufnata laad ab kahan khoju. main ma ko 'mata tu' kahata tha. ma khush thi, main khush tha, par ma kab is dar se mommy hui, hui par ab ye baaten mujhe nahi chonkati ab pyaar ki gaali upeksha ke shishtachar par hamesha bhari hai ,rahegi Rakesh kumar
ReplyDeleteफेस बुक पर, श्री अजीत मोगरा, मुम्बई की टिप्पणी -
ReplyDeleteमुझे भी आप का पत्र मिला। ख़ुशी हुई। आज के, इन्टरनेट और मोबाइल के युग में पत्र मिलना सुखद अनुभव है|
निवेदन है, आप के पत्र मिलते रहें, बस |
बहुत सही कहा आपने। आगे मेरी भी लम्बी कहानी है जिसेफोन पर ही बता पाऊंगा .
ReplyDeleteरोचक किस्सा है यह भी। :)
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