कश्मीर हमारे लिए आज हमारे लिए ‘असमाप्त प्रकरण’ सा बना हुआ है। राजनीतिक रूप से यह यदि सम्भवतः सर्वाधिक प्रिय विषय है तो उतना ही कष्टदायक भी। ‘समस्या’ से आगे बढ़कर लगभग ‘नासूर’ बन चुके, धरती के इस स्वर्ग में व्याप्त अशान्ति की बात तो हर कोई करता है किन्तु जब भी निदान की बात आती है तो यह ‘रीछ के हाथ’ बन जाता है जिसे पकड़ने को कोई तैयार नहीं। इसी कश्मीर समस्या के निदान की दिशा में गाँधीवादी चिन्तक श्री कुमार प्रशान्त के अपने विचार हैं जो द्विमासिक पत्रिका ‘गाँधी मार्ग’ के जुलाई-अगस्त 2016 के अंक में प्रकाशित हुए हैं। प्रशान्तजी के इस चौंका देनेवाले विचार से असहमत हुआ जा सकता है किन्तु जब तक इस लेख को पढ़ेंगे नहीं तब तक भला असहमत कैसे हो सकेंगे?
तो पाकिस्तान ने बातचीत बन्द करने का मन बना रखा है। कभी हम, तो कभी वह ऐसा मन बनाता ही रहता है-कभी खुद तो कभी बाहरी निर्देश से! सवाल एक ही है। यह पाकिस्तान बनने से आज तक चला आ रहा है: कौन किससे बात करे? दोनों देशों में बनती और बदलती सरकारों की कसौटी भी इसी एक सवाल पर होती रहती है कि किसने, किससे, कब और कहाँ बातचीत की? हमारे देश में तो प्रारम्भ से ही लोकतान्त्रिक सरकारें रही हैं, पाकिस्तान में सरकारों का चरित्र लगातार बनता-बिगड़ता रहता है- कभी लोकतान्त्रिक तो कभी फौजतान्त्रिक! बातचीत फिर भी दाँवपेचों में फँसती रहती है।
लेकिन एक सवाल है जिससे हम मुँह चुराते हैंः- क्या बातचीत भारत और पाकिस्तान के बीच ही होनी है? इस विवाद के दो ही घटक हैं? ऐसा मानना सच भी नहीं है और उचित भी नहीं। भारत और पाकिस्तान के बीच जब भी बातचीत होगी, कश्मीर के लोग उसका तीसरा कोण होंगे ही। एक तरफ यह इतिहास का वह बोझ है, जिसे उठा कर हमें किसी ठौर पर पहुँचा ही देना है; दूसरी तरफ यह हमारी दलीय राजनीति का वह कुरूप चेहरा है जिस पर स्वार्थ की झुर्रियाँ पड़ी हैं। 60 वर्षों से भी अधिक समय में भी हम कश्मीर को इस तरह अपना नहीं सके कि वह अपना बन जाए। जब सत्ता का सवाल आया तो पिता मुफ्ती से लेकर बेटी महबूबा तक से भारतीय जनता पार्टी ने रिश्ते बना लिए अन्यथा उसकी खुली घोषणा तो यही थी न कि ये सब देशद्रोही ताकते हैं, जिनके साथ हाथ मिलाना तो दूर, साथ बैठना भी कुफ्र है।
कुछ ऐसा ही रवैया काँग्रेस का भी रहा और नेशनल कान्फ्रेंस का भी। सब हाथ मिला कर आते-जाते रहे हैं और सत्ता हाथ से जाते ही एक-दूसरे पर कालिख उछालते रहे हैं। लेकिन इन सबके बावजूद न नेशनल कान्फ्रेंस, न काँग्रेस न भारतीय जनता पार्टी और न महरूम मुफ्ती ही कभी हैसियत बना सके कि कह सकें कि कश्मीर का आवाम उनके साथ है। ऐसा दावा एक ही आदमी का था और सबसे खरा भी था और वे थे शेख अब्दुल्ला! बाकी सारे-के-सारे नाम हाशिये पर कवायद करनेवाले ही रहे। शेख साहब की बहुत सारी ताकत तेलों में जाया हुई और बहुत सारी उन्होंने भटकने में गँवा दी।। फिर जो सत्ता हाथ में आई उसे लेकर वे भी व्यामोह में फँसे और औसत दर्जे के राजनीतिज्ञ बनकर रह गए। किसी लालू यादव की तरह उन्हें भी अपना उत्तराधिकारी अपने परिवार में ही मिला। पाकिस्तान हमारी यह दुखती रग पहचानता रहा है और उसका फायदा उठाकर, कश्मीर के अलगाववादियों को उकसाता भी रहा है। आज की स्थिति यह है कि कश्मीर में किसी भारत के पाँव धरने की जगह नहीं है। कश्मीरी आवाम और नवजवान के मन में भारत की तस्वीर बहुत डरावनी और घृणा भरी है। ऐसा क्यों हुआ, यह कहानी बहुत लम्बी है और उसके पारायण में से आज कुछ निकलनेवाला भी नहीं है।
अब आज अगर हमारे सोचने और करने के लिए कुछ बचता है तो वह यह है कि पाकिस्तान हमसे बात करे कि न करे, हम कश्मीर मे एक सुनियोजित ‘सम्वाद सत्याग्रह’ करें। सरकार, फौज और राजनीतिक दल यह सत्याग्रह कर ही नहीं सकते क्योंकि इनके पास सत्य का एक अंश भी आज की तारीख में बचा नहीं है। तो फिर इस सत्याग्रह में शामिल कौन हो? यह काम देश के नवजवानों को करना होगा। सरकार जरूरी सुविधाएँ उपलब्ध करा कर पीछे चली जाए। सारे देश में मुनादी हो कि कश्मीर के अपने भाइयों से बातचीत करने के लिए युवक-युवतियों की जरूरत है। देश के विश्वविद्यालयोें से, युवा संगठनों से, गाँधी संस्थाओं से व्यापक सम्पर्क किया जाए और इनकी मदद से ‘सम्वाद सत्याग्रह’ के सैनिकों का आवेदन मँगवाया जाए। स्थिति की गम्भीरता को समझने वाले 500 से 1000 युवक-युवतियों का चयन हो। उनका एक सप्ताह का प्रशिक्षण शिविर होे। जयप्रकाश नारायण से मिलकर कश्मीर के सवाल पर लम्बे समय तक, उनके विभिन्न पहलुओं पर काम करनेवाले गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान को ऐसे शिविर के आयोजन और संचालन के लिए अधिकृत किया जाए। इस शिविर को पूरा करने का मतलब यह होना चाहिए कि युवाओं की यह टोली कश्मीर समस्या को हर पहलू से जानती व समझती है। यह जानकारी और कश्मीरी लोगों के प्रति गहरी, सच्ची सम्वेदना ही उनका हथियार होगा।
ये सम्वेदनशील, प्रशिक्षित युवा अनिश्चित काल मान कर कश्मीर पहुँचें और कश्मीर घाटी में विमर्श का एक अटूट सिलसिला शुरु हो और अबाध चले; फिर जवाब में गाली हो कि गोली! और हमें कश्मीर के लोगों पर पूरा भरोसा करना चाहिए वे घटनाक्रम से वे व्यथित हैं, चालों-कुचालों के कारण भटके और उग्र भी हैं किन्तु पागल नहीं हैं। ऐसा ही मानकर तो गाँधी नोआखोली पहुँचे थे न! देश के विभिन्न कोनों से निकली और कश्मीर की धरती पर एक हुई 8 से 10 सदस्यों की टोलियाँ जब एक साथ, यहाँ-वहाँ हर कहीं उनको जानने, उनसे सुनने , सारा कुछ सुनने पहुँचेंगी तो व्यथा की कठोेरता भी पिघलेगी और गुस्से की गाली-गोली भी जल्दी ही व्यर्थ होने लगेगी। यह हिम्मत का काम है, धीरज का काम है और सम्वेदनापूर्वक करने का काम है। कश्मीर के लोगों और युवाओं में बनी हुई सम्पूर्ण सम्वेदनहीनता और उग्रता को हम शोर या धमकी के एक झटके से तोड़ नहीं सकेंगे। इसलिए यह सत्याग्रह धीरता, दृढ़ता और सदाशयता, तीनों की समान मात्रा की माँग करता है।
यह सत्याग्रह इसलिए कि कश्मीर यह समझ सके कि वह जितना घायल है, बाकी का देश भी उतना ही घायल है। कश्मीर यह समझ सके कि राजनीतिक बेईमानी का शिकार वह अकेला नहीं है, असन्तुलन केवल उसके हिस्से में नहीं आया है, फौज पुलिस के जख्मों से केवल उसका सीना चाक नहीं हुआ है और यह भी कि फौज-पुलिस का अपना सीना भी उतना ही रक्तरंजित है। ‘सम्वाद सत्याग्रह’ के युवा सैनिकों को यह जानना है कि कश्मीर दरअसल चाहता क्या है; और यह ‘सत्याग्रह’ उसे यह भी बताना चाहेगा कि वह जो चाहता है वह सम्भव कितना है। चन्द्र खिलौना किसे मिला है आज तक? कश्मीर के युवा और नागरिक यह समझेंगे कि एक अधूरे लोकतन्त्र को सम्पूर्ण बनाने की लोकतान्त्रिक लड़ाई हमें रचनी है, उसके सिपाही भी और उसके हथियार गढ़ने भी हैं और उसे सफलता तक पहुँचाना भी है।
क्यों लड़ें हम ऐसी लड़ाई? क्योंकि इस लड़ाई के बिना उन सवालों के जवाब नहीं मिलेंगे, जिनसे कश्मीर भी और हम सब भी परेशान हैं और हलाकान हुए जा रहे हैं। हो सकता है, कश्मीर उलट हमसे कहे कि वह इस देश को ही अपना नहीं मानता है तो इस देश के लोकतन्त्र की फिक्र वह क्यों करे? ठीक है, यह भी सही लेकिन कश्मीर को यह बताना तो होगा ही उसका जो भी देश होगा, पाकिस्तान या कि कोई स्वतन्त्र देश ही सही, वहाँ सवाल तो सारे ये ही होंगे। कश्मीरी युवा चाहें तो पाकिस्तानी युवाओं से बात करें, म्याँमार और अफगानी युवाओं से बात करें कि श्रीलंकाई युवाओं से बात करें, जवाब एक ही मिलेगा कि जावाब किसी के पास नहीं है! तख्त, तिजोरी और तलवार के बल पर चलने वाला तन्त्र हर कहीं दुनिया में एक ही काम कर रहा है- वह लोक की पीठ पर बैठा, उसकी गरदन दबा रहा है।
यह सच सबसे पहले मोहनदास करमचन्द गाँधी ने पहचाना था और इससे लड़ने का रास्ता भी खोजा था। आजादी के बाद 80 साल के उस आदमी ने अभी साँस भी नहीं ली थी कि किसी ने पूछाः बापू! जुलूस, धरना, जेल, हड़ताल आदि सब अब किस काम के? अब तो देश भी आजाद हो गया और सरकार भी अपनी है! अब आगे की लड़ाई का आपका हथियार क्या होगा? क्षण भर की देर लगाए बिना जवाब दिया उन्होंनेः अब आगे की लड़ाई मैं जनमत के हथियार से लड़ूँगा!
30 जनवरी को हमारी गोली खाकर गिरने से पहले जो अन्तिम दस्तावेज लिखा उन्होंने, उसमें भी इसी को रेखांकित किया कि लोकतन्त्र के विकास-क्रम में एक ऐसी अवस्था आनी ही है जब तन्त्र बनाम लोक के बीच एक निर्णायक लड़ाई होगी; और उस लड़ाई में लोक की निर्णायक जीत हो, इसकी तैयारी हमें आज से ही करनी है। कोई 68 साल पहले की यह भविष्यवाणी है और आज के हम हैं! रुप और आवाज बदल-बदल कर लड़ाई सामने आती है और हमें पराजित कर निकल जाती है।
कश्मीर भी समझे और हम सब भी समझें कि अगर इस लड़ाई में लोक को सबल और सफल होना है, तो ‘सम्वाद सत्याग्रह’ को तेज बनाना होगा। कभी ऐसा वक्त भी आएगा कि जब कश्मीर देश के दूसरे कोनों में पहुँचकर ‘सम्वाद सत्याग्रह’ चलाएगा। ऐसा ही एक अपूर्व ‘सम्वाद सत्याग्रह’ जयप्रकाश नारायण ने आजादी के बाद नगालैण्ड में चलाया था और वह सम्वादहीनता तोड़ी थी जिसे तोड़ने में राजनीतिक तिकड़में और फौजी बहादुरी नाकाम हुई जा रही थी। इतिहास का यह अध्याय इतिहासकारों पर उधार है कि पूर्वांचल आज देश से जुड़ा है और अलगाववाद की आवाजें वहाँ से कम ही उठती हैं, तो यह कैसे सम्भव हुआ? खुले सम्वाद में गजब की शक्ति होती है बशर्ते कि उसके पीछे कोई छुपा हुआ एजेण्डा न हो।
क्या हम अपनी कसौटी करने के लिए, पाकिस्तान से नहीं सही तो नहीं, कश्मीर से ‘सम्वाद सत्याग्रह’ आयोजित कर सकते हैं? देखना है कि जवाब किधर से आता है!
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कोटिश: धन्यवाद। आभारी हूँ।
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