मुझे कमी किस बात की

श्री बालकवि बैरागी के दूसरे काव्य संग्रह
‘जूझ रहा है हिन्दुस्तान’ की तेरहवीं कविता

यह संग्रह पिता श्री द्वारकादासजी बैरागी को समर्पित किया गया है।




मुझे कमी किस बात की

आज अचम्भा करे जमाना मैं क्यों हूँ खुशहाल रे
मुझे कमी किस बात की. मैं भारत-माँ का लाल रे

श्याम घटा का काम जहाँ पर, केवल अमृत बरसाये
खेत-खेत में सोना-चाँदी, अमृत पीकर लहराये
कदम-कदम पर हीरे हँसते, माणक-मुक्ता मुसकाये
मँहगे मोती मेरी माँ पर, सागर निसिदिन निछराये
धरती, परबत, सागर, कुदरत देखो रे
धरती, परबत, सागर, कुदरत रखते मेरा ख्याल रे
मुझे कमी किस बात की;मैं भारत माँ का लाल रे

खेल-खेल में माता के, सब बन्धन मैंने तोड़ दिये
मेरे हौसलों ने आलस के, भारी पंख मरोड़ दिये
इन हाथों से अब तक मैंने, बीसों परबत फोड़ दिये
मेरे पसीने की बूँदों ने, नदियों के रुख मोड़ दिये
आज करोड़ों का मालिक है देखो रे
आज करोड़ों का मालिक है कल तक का कंगाल रे
मुझे कमी किस बात की मैं भारत माँ का लाल रे

उमड़-उमड़ कर चले हैं फिर से, दूध, दही, घी के नाले
शक्कर के भण्डार भरे हैं, मन चाहे जितनी डालें
मेवा-मिसरी, मीठा-मीठा, घर आँगन में उपजा लें
लगे बदलने रंग बदन का, ये काली चमड़ी वाले
माखन खाकर देखो रे
माखन खाकर मचल रहे हैं घर घर में गोपाल रे
मुझे कमी किस बात की मैं भारत माँ का लाल रे

गाँव-गाँव और धूप-छाँव में, झाँकी नव निर्माण की
राजनीति का तीरथ बन गई, धरती हिन्दुस्तान की
दुनिया के हर कोने में है, चर्चा मेरे गुमान की
बोल रही हैं दसों दिशाएँ, जय गाँधी भगवान की
राजघाट को देखो रे
राजघाट को सारी दुनिया मान रहो ननिहाल रे
मुझे कमी किस बात की मैं भारत माँ का लाल रे
 
जियो और जीने दो सब
को, नारा रोज लगाता हूँ
और अमन के गीत सुहाने, झूम-झूम कर गाता हूँ
भूले भटके इन्सानों को, सच्ची राह दिखाता हूँ
बात मान लो ऐटम, उद्जन, को भी बर्फ बनाता हूँ
आँख मसल कर देखो रे
आँख मसल कर देख चुकी है दुनियाँ मेरे कमाल रे
मुझे कमी किस बात की मैं भारत माँ का लाल रे

भेदभाव और बेकारी से, अब मेरा संग्राम है
मैं हिन्दी जय-हिन्द कहूँगा, झूठे सभी प्रणाम हैं
कसम तिरंगे की खाता हूँ, अब आराम हराम है
मस्त दिवाना निकल गया तो, मंजिल पर मुकाम है
मेरी मस्ती का रखवाला देखो रे
मेरी मस्ती का रखवाला चचा जवाहरलाल रे
मुझे कमी किस बात की मैं भारत 
माँ का लाल रे
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जूझ रहा है हिन्दुस्तान
कवि - बालकवि बैरागी
प्रकाशक - मालव लोक साहित्य परिषद्, उज्जैन (म. प्र.)
प्रथम संस्करण 1963.  2100 प्रतियाँ
मूल्य - दो रुपये
आवरण - मोहन झाला, उज्जैन (म. प्र.)
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यह संग्रह हम सबकी ‘रूना’ ने उपलब्ध कराया है। 
‘रूना’ याने रौनक बैरागी। दादा श्री बालकवि बैरागी की पोती। 
रूना, राजस्थान राज्य प्रशासनिक सेवा की सदस्य है और यह कविता प्रकाशन के दिन उदयपुर में अतिरिक्त आबकारी आयुक्त के पद पर पदस्थ है।

 
 




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