‘‘आपने तो बिलकुल पाव आनी सेठ की तरह बात कर दी!’’ माँगीलालजी यादव बोले।
‘‘पावानी सेठ? ये कौन हैं? आज पहली बार इनका नाम सुना!’’ मैंने पूछा।
‘‘पावानी नहीं। ‘पाव आनी।’ याने ‘आने’ का पाव हिस्सा। याने ‘आने’ के चार पैसों में से एक पैसा।’’ यादवजी ने जवाब दिया।
‘‘यह उनका वास्तविक नाम तो नहीं ही होगा। उनका यह नाम कैसे पड़ा? उनके बारे में मुझे विस्तार से बताइए।’’
मेरे ‘प्रश्नाग्रह’ के उत्तर में यादवजी ने बड़ी रोचक और गम्भीर बात बताईं। लेकिन वे सब यहीं कह दूँगा तो मेरी बात तो रह ही जाएगी। इसलिए पहले वह बात जिसके कारण उपरोक्त सम्वाद की स्थिति बनी।
मेरी भानजी रीती अभी-अभी, बेटे की माँ बनी है। उसके सूरज पूजन के प्रसंग के लिए मेरी उत्तमार्द्ध को रीती और उसके नवजात बेटे के लिए कुछ कपड़े खरीदने थे। वैशाख की चिलचिलाती धूप और थपेड़े मारती लू के बीच कौन बाजार जाकर दुकान-दुकान घूमे? सोचकर उन्होंने कहा - ‘अपने यहाँ भी एक छोटा-मोटा मॉल है। वहीं से खरीद लेते हैं।’ उत्तमार्द्ध के अन्तिम निर्णय से असहमति जताना कितना कठिन और कितना घातक दुस्साहस होता है - यह बताने की बात नहीं। फिर भी, जोखिम उठाते हुए मैंने (जाहिर है, बहुत ही मन्द स्वरों में) कहा - ‘अपने पास दुपहिया-रथ है और मैं आपका सारथी हूँ ही। मॉल में जाकर, उसके आतंक के तले, मनमाने दामों पर (भुनभुनाते हुए) खरीदी करने से अच्छा तो यही है कि माणक चौक चलें। वहाँ अपने किसी देशी दुकानदार से खरीदी करें। मुमकिन है कि कपड़े कुछ मँहगे मिलें और शायद तनिक हलकी गुणवत्ता वाले भी। किन्तु आपको भाव-ताव करने का ‘सुख’ मिलेगा और जो भी मुनाफा होगा, अपने ही कस्बे के किसी व्यापारी को होगा। रतलाम का पैसा रतलाम में ही रहेगा। और सबसे बड़ी बात, हमारी ‘बाजार संस्कृति’ को बल मिलेगा।’
ईश्वर कृपालु था कि वे मेरी बात मान गईं।
हम माणक चौक पहुँचे। उत्तमार्द्ध को बीच बाजार छोड़ कर मैं यादवजी से मिलने, उनकी दुकान पर चला गया। मुझे देख कर खुश तो हुए पर चौंके भी। पूछा - ‘इतनी तेज घूप में यहाँ क्या कर रहे हैं? मैंने सारी बात बताई तो उत्तर में यादवजी ने वही कहा - ‘आपने तो बिलकुल पाव आनी सेठ की तरह बात कर दी!’
किराना के व्यापारी रहे, ‘पाव आनी सेठ’ का वास्तविक नाम तो अब यादवजी को याद नहीं। पचास बरस से भी अधिक की बात हो गए ‘पाव आनी सेठ’, किन्तु उनकी बातें यादवजी को याद हैं। व्यापार में उन्होंने न केवल अपने मुनाफे का प्रतिशत तय कर रखा था अपितु उसे निभाते भी थे। तब देश में दशमलव प्रणाली शुरु हुई ही थी। तब रुपये में सोलह आने, एक आने में चार पैसे हुआ करते थे और इसी मान से एक रुपये में चौंसठ पैसे हुआ करते थे। ‘सोलहों आना सच’ वाली कहावत इसी आधार पर बनी थी। ‘पाव आनी सेठ’ ने अपना मुनाफा - एक रुपये पर एक पैसा, तय कर रखा था। याने - चौंसठ पैसों पर एक पैसा। याने डेड़ प्रतिशत। इसी कारण वे पूरे रतलाम में ‘पाव आनी सेठ’ के नाम से ही जाने-पहचाने गए। उनका यह नाम उनके मूल नाम को आत्मसात कर गया। उनकी दुकान पर कोई भाव-ताव नहीं करता था।
यादव साहब के मुताबिक ‘पाव आनी सेठ’ कभी-कभार शाम को, ‘घूमने’ या ‘मिलने-जुलने’ के नाम पर बाजार में आते और सड़क किनारे खोमचे लगाने वालों से कभी पानी-पताशे, दही बड़े या मनपसन्द नमकीन खाते। उन्हें ऐसा करते देख लोग हैरान होते तो वे हँस कर कहते - ‘ये भी अपने ही गाँव में व्यापार लेकर बैठे हैं। इनका व्यापार चले, यह हम सबकी जिम्मेदारी है। इसलिए, महीने-बीस दिन में इनसे भी पैसे-दो पैसे की खरीदी करनी चाहिए।’
यादवजी की बात सुनकर मुझे रोमांच हो आया। व्यापार का एक मात्र लक्ष्य तो ‘लाभ’ ही होता है! भला, इसके लिए ऐसा सिद्धान्त कैसे बनाया जा सकता है? जितना लाभ ले सको, लो। यह मत देखा कि लाभ कैसे मिल रहा है? लेकिन ‘पाव आनी सेठ’ की बात सुनकर लगा - भारतीय संस्कृति में जिसे ‘लक्ष्मी’ कहा जाता है, वह ऐसे ही, नीति और नैतिकता आधारित मुनाफे से आती होगी। लाभ के प्रतिशत/अनुपात का निर्धारण करना और आत्म संयम बरतते हुए उसका पालन करना ही ‘व्यापार’ को पवित्रता प्रदान करता है। यह मानसिकता ही ‘लक्ष्मी’ और ‘पूँजी’ का अन्तर बताती है। मेरे कस्बे के पूँजीपतियों की चर्चा, इतने आदरपूर्वक करते हुए किसी को नहीं देखा जबकि पचास बरस से भी पहलेवाले ‘पाव आनी सेठ’ को आज भी आदरपूर्वक, उदाहरण के रूप में याद किया जा रहा है।
अचानक ही, एनडीटीवी पर आनेवाले, ‘जायका इण्डिया का’ कार्यक्रम का, लखनऊ में फिल्माया अंक याद आ गया। स्थापित, पुरानी पेढ़ी के एक दुकानदार से विनोद दुआ ने जब मुनाफे के बारे में पूछा तो उस दुकानदार ने कहा था - ‘तिजारत में मुनाफा इतना, खाने में हो नमक जितना।’ ‘पूँजी’ के मुकाबले ‘सन्तोष-धन’ व्यापार का आधार, यही भारतीयता है। तब, ‘जीवन यापन’ हेतु व्यापार होता था। व्यापार के लिए जिन्दगी होम नहीं की जाती थी।
‘बाजार’ आज हमारी संस्कृति नहीं रह गया। ‘दानव’ बन कर हमें लील रहा है। हम खुद को ‘उपभोक्ता’ समझ रहे हैं जबकि हकीकत में तो बाजार को चलाने और बनाए रखने के लिए उत्पाद बन कर रह गए हैं।
सोच रहा हूँ, ‘पाव आनी सेठ’ आज होते तो क्या करते? वे आज भी ‘पाव आनी’ पर ही व्यापार करते? शाम को सड़क किनारे लगे खोमचे पर, खड़े होकर पानी-पताशे और दही बड़े खाते? अपने से छोटे व्यापारियों की चिन्ता करते?
मुझे भारतीय संस्कृति, भारतीय परम्पराओं और भारतीय लोक मानस पर पूरा-पूरा भरोसा है। मैं आशावादी हूँ। ‘आत्मा ही परमात्मा है’ जैसे सनातन सूत्र पर विश्वास करता हूँ। इसीलिए कह पा रहा हूँ - ‘हाँ! ‘पाव आनी सेठ’ आज होते तो वे आज भी अपने निर्णय पर कायम रहकर ही व्यापार करते।’
‘पाव आनी सेठ’ का जिक्र आने का सबब आज भी बन रहा है, यही आधार है मेरी ‘हाँ’ का।
अरे वाह हम भी पहले यही सोच रखते थे, किंतु यहाँ की लूटपाट हमारी सोच के ऊपर हावी हो गई।
ReplyDeleteaaj bhi bade vayapari isi tarah se sochate hai bas pratisht bad gaya hai
ReplyDeletethanks !
ReplyDeleteप्रबंधन की एक बड़ी विषयवस्तु आपने सहज ठंग से समझा दी ... संत तुकाराम के जीवन में जब एक अवसर दुकानदारी करने का आया था तब उन्हौने भी " सामान के साथ विश्वास भी अपनी दुकान के ग्राहकों को कुछ इसी अंदाज़ में दिया था ... धन्य हों " पाव आनी सेठ "
ReplyDelete‘पाव आनी सेठ’ ही हमारी व्यापारिक धरोहर है हमारी वाणिज संस्कृति है। हमारी संस्कृति में महाजनी प्रथा भी सेवा-प्रमुख थी लाभ दूसरे स्तर पर आवश्यक था। अंग्रेजो के जमाने और पाश्चात्य लालच नें हमारी व्यपारिक प्रथाओं को तोडने का कार्य किया और उस व्यवस्था को मुनाफा बेस बनाने दुष्कृत्य किया। साथ ही हमारी व्यापार प्रथाओं को शोषणखोर विज्ञापित करते रहे। अधूरे में पूरा हमारे ही कुछ लालची महाजनों (जिनका बहुत ही अल्प प्रतिशत था) नें साक्ष्य उपलब्ध करवा दिए। इस तरह पाश्चात्य व्यापारी हमारी वित व्यवस्था और व्यापार प्रथा को तोड़ने में कामयाब हुए। वस्तुतः महाजनों के लिए साहुकार शब्द रूढ़ था। यह शब्द ही ईमानदारी का पर्याय है। सेठ शब्द भी श्रेष्ट के अर्थ में है। लेन-देन का आचार श्रेष्ट होता था।
ReplyDeleteआज गला काट प्रतिस्पृद्धा के बीच भी निति-नियम से व्यापार करने वाले ‘पाव आनी सेठ’ विद्यमान है, ऐसे उदाहरण सुनना सुनाना भी हमारे मन बसी नैतिकताओं को स्मृद्ध करने के प्रयोजन से होता है।
आज के युग मे पाँव आनी सेठ मिलना मुश्किल है । आज तो सब राम नाम की लूट है लूट सके तो लूट की तरह... सब लूटने मे लगे है । और इंटरनेट तथा TV channels तो इनके सबसे अच्छे साथी हो गए है । पब्लिक भी जानबूझकर इनके मकडजाल मे फँसती जा रही है । - रवि शर्मा
ReplyDeleteमूल्य बदलते जाते हैं अब..
ReplyDeleteआनंद दायक रहा पाव-आनी सेठ के बारे में पढना|
ReplyDeleteखूब कही. आपकी हां में हम भी हां मिलाते हैं.
ReplyDeleteबिना-बिचारे कोलम पड़ा, जिसमें जिलाधीश श्री राजेंद्र जी शर्मा का जिक्र है| पढ़ने के बाद ऐसा लगा, जैसे 'तोकोलोजी' हो गई हो| हर बार के तेवर की कमी इस बार खली....|
ReplyDelete'बिना विचारे' पढने का धन्यवाद और पढकर (यहॉं) टिप्पणी करने का अतिरिक्त धन्यवाद। मुझे लग रहा है कि आप मुझ पर, नियमित रूप से नजर नहीं रख रहे हैं वर्ना यहॉं 'बिना विचारे' का हवाला नहीं देते क्योंकि राजेन्द्रजी शर्मा वाला आलेख, 'एकोऽहम्' में ही ('उपग्रह' के 'बिना विचारे' में प्रकाशित होने से पहले ही) प्रकाशित हो चुका था। आपकी यह मनोभावना उसी आलेख पर अंकित होती तो अधिक प्रासंगिक होती।चलिए, कोई बात नहीं।
Deleteईश्वर करे, आपका अनुमान सौ टका सच हो और कलेक्टर की 'तोकोलाजी' करने का कुछ तो लाभ मुझे मिले। यदि ऐसा नहीं होगा तो आपका अनुमान असत्य होने का कष्ट आपको हो न हो, मुझे अवश्य होगा।
आपकी इस टिप्पणी के बाद से मैं, तनिक अतिरिक्त आतुरता से, कलेक्टर श्री राजेन्द्र शर्मा के किसी ऐसे सन्देश की प्रतीक्षा करने लगा हूँ जिससे मुझे 'तोकोलाजी' का यथेष्ट पारिश्रमिक/मुआवजा मिले।
आप भी अपने स्तर पर कोशिश कीजिएगा कि आपकी टिप्पणी सच हो सके। इस हेतु मैं आपका अत्यधिक आभारी होऊँगा। मेरी ओर से अग्रिम आभार और धन्यवाद स्वीकार करें।
मुझे ख़ुशी होगी गर मैं गलत साबित होऊंगा.... सवाल आपको लाभ होने, या न होने का नहीं है|क्या वाजिब लाभ मिलाना बुरा है? मैंने बात की है लेख से मिले सन्देश की...| कदाचित, टिपण्णी आपको अच्छी न लगी हो, लेकिन एक पाठक की नजर से पड़ेंगे तो शायद....,
Deleteएक पाठक की नजर से, आलेख का सन्देश व्याख्यायित करने का जो अधिकर और सुविधा आपके पास है, वही अधिकार और सुविधा मुझे, आपकी टिप्पणी का अर्थ समझने का भी है। मैंने तो यह नहीं चाहा कि आप मेरे आलेख का अर्थ क्या लगाऍं और क्या नहीं? फिर यह आग्रह क्यों कि आपकी टिप्पणी का अर्थ वही समझा जाए जो और जैसा आप चाहते हैं?
Deleteमेरी निश्चित धारणा है कि 'तोकोलॉजी' अकारण और निस्वार्थ नहीं की जाती। उसके पीछे सुनिश्चित लक्ष्य (और स्वार्थ) होता ही है। इसीलिए जब आपने मेरे आलेख का भाष्य 'तोकोलॉजी' में किया तो, मेरी धारणानुसार, उसके पीछे मेरा कोई सुनिश्चित लक्ष्य और स्वार्थ स्वत: ही निहित हो जाता है।
आपकी टिप्पणी मुझे कैसी लगी, यह जाने दें। यह तय है कि मेरी 'प्रति टिप्पणी' आपको न तो अनुकूल लगी और न ही प्रसन्नतादायक। आपको हुई असुविधा और वेदना के लिए मैं क्षमा प्रार्थी हूँ।
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ई-मेल से प्राप्त, श्री सुरेशचन्द्रजी करमरकर, रतलाम की टिप्पणी -
ReplyDeleteविष्णुजी, आज का बाज़ार हमें दानव बनकर कैसे लील रहा है, इसका एक प्रमाण जो मेरे द्वारा प्रयोग कर सिद्ध हुआ है, जल्दी ही आपको लिखकर भेजूँगा। आप दैनिक कामकाज के चलते उपयोगी सामग्री ढूँढ लेते हैं और उसे कलमबद्ध भी तत्काल कर देते हैं। आलस नहीं करते।
यह 'एकोऽहम्', भविष्य में एक पुस्तक का आकर लेगा यह मेरा विश्वास है.
पोस्ट पहले देखी थी लेकिन विषय का अन्दाज़ लगाकर फ़ुर्सत में पढने के लिये रख छोड़ी थी। पावा-आनी सेठ के श्रेष्ठ आचरण के बारे में जानकर तृप्ति हुई। आप बताते रहिये। आज के समय में जब चहुँओर मोहभंग की स्थिति है, ऐसे उदाहरण हमारी इंटेग्रिटी सलामत रखने में सहायक सिद्ध होंगे। करमरकर जी के "भविष्य की पुस्तक" की कामना में हमें भी शामिल जानिये!
ReplyDelete'भविष्य की पुस्तक' से पहले ही मैं जिस पुस्तक में शामिल हूँ, उसकी सामग्री की प्रतीक्षा, दीपावली 2011 के बाद से कर रहा हूँ।
Deleteअपने मन से जानियो, मेरे मन की बात।
जी, समझ रहा हूँ, शुभाकांक्षा भी है, क्षमाप्रार्थी भी हूँ। बस यूँ समझिये कि इन दो महीने की देर और है बस!
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