उन्होंने कार्टूनिस्ट को भोजन पर बुलाया

अम्बेडकर-नेहरू के कार्टून को लेकर जो कुछ हुआ, वह हमारी मानसिक और वैचारिक दरिद्रता तथा संकीर्णता का द्योतक तो है ही, इस बात का भी द्योतक है कि राष्ट्रीय स्तर पर हमारी सामाजिक-सामूहिक चेतना परास्त हो चुकी है। इस मामले में सरकार और काँग्रेस ने जो फुर्ती-चुस्ती और आतुरता बरती उससे तय करना मुश्किल हो रहा था कि वह परेशान अधिक है या खुश? वोट की राजनीति करने के अतिरेकी हमारे राजनेताओं और राजनीतिक दलों को भले ही कुछ नजर नहीं आया हो किन्तु मुझे तो इसमें आपातकाल की और आपातकाल में लागू की गई सेंसरशिप की आहट सुनाई दी।


कहीं एक सूक्ति पढ़ी थी (जो मैंने कभी न कभी यहाँ अवश्य ही प्रयुक्त की होगी) - ‘यह तो अच्छा है कि हम अपने पुरखों पर गर्व करें। किन्तु अधिक अच्छा यह होगा कि पुरखे हम पर गर्व कर सकें।’ कार्टून प्रकरण में हमारे व्यवहार को देखकर हमारे ‘पुरखे’ निश्चय ही चकित, क्षुब्ध, व्यथित, हतप्रभ और आक्रोशित हो रहे होंगे। वे खुश हो रहे होंगे कि यह दिन देखने से पहले ही वे दिवंगत हो गए। हमने ‘राजा के प्रति राजा से अधिक वफादार’ होने की कहावत को जिस ‘सीनाजोरी’ से साकार किया है, वह ‘अविस्मरणीय’ बन कर रह गया है। जिस कार्टून पर खुद अम्बेडकर और नेहरू को कोई आपत्ति नहीं हुई, जिसमें उन्हें कुछ भी अनुचित नहीं लगा, वही कार्टून पूरे देश के लिए बवाल बना दिया गया। होना तो यह चाहिए था कि अपने आदर्श पुरुषों के सन्देशों और आचरण को आत्मसात कर हम अपना जीवन उज्ज्वल-निर्मल-धवल बना कर उनके ‘सच्चे अनुयायी’ बन, उनकी आत्माओं को शान्ति देते। किन्तु यहाँ तो एकदम उल्टा हो गया! हमने तो अपनी दुर्बलता और वैचारिक दरिद्रता-संकीर्णता उन पर थोप दी। अपना कद बड़ा करने के लिए हमने अपने आदर्श पुरुषों का कद घटाने का अविवेक कर दिया। चूँकि, अम्बेडकर के बारे में मेरी जानकारियाँ ‘अत्यल्प’ से भी कम हैं इसलिए नहीं जानता कि आज वे होते तो क्या करते किन्तु नेहरूजी के बारे में जितना कुछ पढ़ा, उसके आधार पर निश्चित रूप से कह सकता हूँ कि आज वे होते तो, अपने ‘इतिहास प्रसिद्ध क्षण भंगुर आक्रोश’ के अधीन (कार्टून में, उनके हाथ में दिखाए गए चाबुक से) वे काँग्रेसियों की चमड़ी उधेड़ देते।


इसके साथ ही साथ मुझे 1969-70 की एक घटना याद आ गई। कुछ इस तरह, मानो, प्रलयंकारी वर्षा के दौरान, धरती फाड़ देनेवाली बिजली की चमक और गड़गड़ाहट के बीच, बीहड़-वन में अचानक ही बाँस का कोई घूँपा धरती चीर कर उग आया हो।


तब दादा (श्री बालकवि बैरागी) मध्य प्रदेश सरकार में सूचना प्रकाशन राज्य मन्त्री बने ही बने थे।  उन्हीं दिनों, दैनिक स्वदेश में, मुख पृष्ठ पर एक कार्टून छपा। कार्टून में किसी जन सभा का एक मंच दिखाया गया था जिसमें एक व्यक्ति, माइक पर बोलता हुआ और पीछे, कुर्सियों पर बैठे दो व्यक्ति आपस में बात करते दिखाए गए थे। कार्टून के नीचे कुछ इस तरह (केप्शन) लिखा गया था - ‘ऐसे एक-दो और कवियों को मन्त्री बना लेना चाहिए। सभाओं में भीड़ जुटाने में, बड़े काम आते हैं।’


तब, दैनिक स्वदेश की ‘दशा’ आज जैसी नहीं थी। यथेष्ठ प्रसार संख्यावाला अखबार हुआ करता था और चूँकि ‘संघ/जनसंघ’ की वैचारिकता उसका आधार थी, इसलिए वह काँग्रेस विरोधियों का सर्वाधिक प्रिय अखबार हुआ करता था। सरकार के मन्त्री भी उसे, विशेष रूप से, ध्यान से पढ़ते थे। जहाँ तक मुझे याद आ रहा है, श्री माणकचन्दजी वाजपेयी ‘स्वदेश’ के सम्पादक थे उन दिनों। वाजपेयीजी को ‘वाजपेयीजी’ के नाम से कम और ‘मामाजी’ के नाम से अधिक जाना जाता था।  


जिस दिन ‘वह’ कार्टून छपा था, उस दिन मैं भोपाल में ही था। शाहजहानाबाद स्थित, सरकारी आवास ‘पुतलीघर’ के विशाल बगीचे में बैठ कर हम दोनों भाई, सुबह की पहली चाय पी रहे थे। अखबारों का ढेर सामने टेबल पर रखा था। दादा ने सबसे पहले ‘स्वदेश’ निकाला और जैसे ही उनकी नजर कार्टून पर पड़ी, उनका चिरपरिचित आसमानफाड़ ठहाका हवाओं में गूँज उठा। अखबार मुझे देते हुए, चहकते हुए बोले - ‘भई! बब्बू! आज तो मजा आ गया। अपने होने को, अपने सामनेवाला कबूल कर ले? वह भी राजनीति में? तो और क्या चाहिए?’ मैंने कार्टून देखा और दादा से सहमत हुआ।


उन दिनों, टेलीफोन सुविधा आज जैसी नहीं थी। तब, अपने नगर से बाहर बात करने के लिए टंªक-कॉल बुक करना पड़ता था। दस बजे के आसपास जैसे ही दादा के निज सहायक, निरखेजी आए तो दादा ने कहा - ‘निरखेजी। सबसे पहले, ‘स्वदेश’ वाले मामाजी से बात कराइए।’ निरखेजी ने विषय-वस्तु को भाँपने के लिए ‘स्वदेश’ देखा और कहा - ‘सर! आपको बधाइयाँ। आज अपोजीशन ने आपका नोटिस लिया।’


निरखेजी ने ‘पीपी’ (पर्टिक्यूलर परसन - याने व्यक्ति विशेष से बात करने की श्रेणीवाला) ट्रंक कॉल बुक किया। मामाजी तब तक कार्यालय नहीं पहुँचे थे। कोई साढ़े ग्यारह बजे के आसपास, मामाजी उपलब्ध हुए।  दादा ने लगभग ऐसा कुछ कहा - ‘मामाजी! आपके कार्टूनिस्ट को मेरी ओर से धन्यवाद दीजिएगा कि उन्होंने मुझे अपने कार्टून का विषय बनाया। आपको भी धन्यवाद कि आपने यह कार्टून छापा। आप एक कृपा करें। अपने कार्टूनिस्ट को, मेरे खर्चे पर भोपाल भेजें। मुझे महत्व और यह सम्मान देने के लिए, मैं उनके साथ भोजन करके उन्हें धन्यवाद देना चाहता हूँ।’


चूँकि बात समाप्त कर, दादा अपने काम में लग गए, मुझसे कुछ नहीं कहा इसलिए मुझे नहीं पता कि दूसरी ओर से मामाजी ने क्या कहा। मैं अगले ही दिन चला आया था इसलिए मुझे यह भी नहीं पता कि मामाजी ने अपने कार्टूनिस्ट को भोपाल भेजा या नहीं और दादा, अपनी भावनानुसार कृतज्ञता ज्ञापित कर पाए या नहीं। किन्तु आज यह सब याद आ गया। यह भी खूब अच्छी तरह से याद आ रहा है कि दादा के एक भी प्रशंसक या किसी मन्त्री ने  इस कार्टून पर आपत्ति नहीं जताई थी। सबने प्रसन्नता, आत्मीयता से ही इसका आनन्द लिया था। बाद में दादा ने बताया था कि तत्कालीन मुख्यमन्त्री श्री श्यामाचरणजी शुक्ल ने, इस कार्टून के लिए दादा को बधाई दी थी।


यह सब पहले भी याद आता रहा है, बार-बार, विभिन्न अवसरों-प्रसंगों पर। यह सब सुना-सुना कर इसका खूब आनन्द भी लिया है। किन्तु आज जब यह सब आ रहा है तो मैं खुश नहीं हो पा रहा हूँ।

यही है हमारा हासिल? 

6 comments:

  1. हमारे पुरखे निश्चय ही स्वर्ग में बैठकर रो रहे होंगे।

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  2. बेहतरीन प्रस्‍तुति।

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  3. शंकर पर मरणोपरांत कार्रवाई का आइडिया कैसा रहेगा.

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    1. अद्भुत। तनिक बताइए कि आपका यह सुझाव किसे और कैसे पहुँचाया जाए? गोल गुम्‍बदवाली इमारत में बैठनेवालों के व्‍यवहार को देखते हुए मुझे पूरा विश्‍वास है कि हमारा कोई न कोई 'सजग और सावधान' प्रतिनिधि आपके सुझाव पर फौरन ही अमल करने को उतावला हो जाएगा।

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  4. पूरी संसद बहस से बेहाल होती रही। बस एक सांसद कश्मीर का था जो कह रहा था कि इस में बेहाल होने जैसा क्या है?
    लोगों ने सही कहा है चोर की दाढ़ी में तिनका।

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  5. वाकई वह समय और था। नेहरू जी और बालकवि बैरागी जैसे लोग और हैं। आज़ादी से पहले की राजनीति में मलाई का अभाव था, जिस्मानी तोड़-फ़ोड़ का खतरा था और जान, माल का भी, इसलिये हल्के चरित्र वाले मुफ़्तखोरों के राजनीतिज्ञ बनने का चांस आज के मुकाबले बहुत कम था। आज़ादी के बाद धीरे-धीरे खतरे कम से कमतर होते गये और मलाई बढती गई। और इसी के साथ बढते गये वे लोग जिन्हें या पैसे बनाना आता है या आहत होना। जो जितना गला फ़ाड़ सकता है वह उतना बड़ा नेता। इस पतनशील युग में दुःख की बात यह है कि स्थिति सुधारने के लिये कुछ खास हो नहीं रहा।

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