आत्मीयता और अहम् बनाम बड़ापन और बड़प्पन

आत्मीयता और अहम् साथ-साथ रह ही नहीं सकते। रहें तो ‘केर-बेर को संग‘ जैसी दशा में - एक अपनी मस्ती में डोलता रहे और दूसरा लहू-लुहान होता रहे। इसमें यदि ‘अपेक्षा’ का बघार लग जाए तो सब कुछ ध्वस्त होना लगभग तय। दो अलग-अलग मामलों में यही अनुभव किया मैंने।


पहला मामला भाऊ का। यह संयोग ही था कि तीन हिस्सों वाले इस मामले के प्रत्येक हिस्से का मैं चश्मदीद गवाह रहा।


भाऊ मेरे कस्बे के अग्रणी व्यापारी हैं। नामी शो-रूम है उनका। दैनन्दिन जीवन में प्रयुक्त होने वाले, बहुराष्ट्रीय कम्पनी के उत्पादों की विस्तृत श्रृंखला के एकमात्र अधिकृत थोक विक्रेता। लगभग पचीस कर्मचारियों की फौज। सब के सब व्यस्त। साँस लेने की फुरसत भी मुश्किल से मिलती है कर्मचारियों को। कभी ट्रक से माल उतारना है तो इस उतरे माल को फुटकर विक्रेताओं तक पहुँचाने के लिए, उनकी माँग और आवश्यकतानुसार पेकिंग कर, ठेले या टेम्पो या लोडिंग रिक्शा से उन तक पहुँचाना है। दिन भर गहमागहमी बनी रहती है भाऊ के शो रूम पर।


पुराने आदमी हैं भाऊ। इस जमाने में भी ‘परिवार’ से आगे बढ़कर ‘कुटुम्ब’ की सोचते हैं। इसीलिए, अपने एक चचेरे भाई विवेक को अपने साथ रखे हुए हैं। भाऊ के कर्मचारियों में एक वही रिश्तेदार है। सो, उसकी चिन्ता भी करते हैं लेकिन इसी कारण सबसे ज्यादा डाँट भी उसे ही पड़ती है। गुस्सा आदमी को बेभान कर देता है। सो, विवेक का डाँटते समय भाऊ, कभी-कभी ध्यान नहीं रख पाते कि वे सबकी उपस्थिति में डाँट खाना, विवके को मर्माहत कर जाता है। किन्तु विवेक भी क्या करे?  आर्थिक स्थितियों से उपजी विवशता के अधीन सर झुकाए, जबान बन्द किए रहता है। भाऊ उससे खुश कम और खिन्न अधिक रहते हैं। किन्तु (दुहरा रहा हूँ) वे विवेक की चिन्ता खूब करते हैं।


कस्बे में एक नया जनरल स्टोर खुला। भाऊ के यहाँ से सामान जाना ही था। पहली बार का मामला था। सो, भाऊ ने नए ग्राहक की अतिरिक्त चिन्ता करते हुए, अपने घर के आदमी, विवेक को भेजा। लौट कर विवेक ने नए ग्राहक का हस्ताक्षरयुक्त (सामान का) चालान सौंपा। भाऊ ने नए ग्राहक के मिजाज और व्यहार का जायजा लेने के लिए विवेक से पूछताछ की। विवेक बोला - ‘सेठ तो लिा नहीं। दो लड़कियाँ सारा काम देख रही हैं। लेकिन दोनों ही बद्तमीज हैं। सीधे मुँह बात नहीं करतीं और जबरन ही मीन-मेख निकाल कर झगड़े पर उतारू रहती हैं।’ सुनते ही भाऊ का पारा चढ़ गया। अपनी बात कह कर विवेक साँस लेता, उससे पहले ही भाऊ पिल पड़े। बोले - ‘जरूर तूने ही कुछ उल्टा-सीधा कहा होगा। बिना बात के भला कोई क्यों झगड़ा करेगा? तुझे भेजा था कि घर का आदमी है। तू ढंग-ढांग से व्यवहार करेगा। लेकिन तू तो पहली ही डीलिंग में भट्टा बैठा कर आया है।’ विवेक कुछ नहीं बोला। हर बार की तरह इस बार भी नीची नजर किए चुप रह गया।


अगले पखवाड़े फिर उस स्टोर पर सामान जाना था। भाऊ ने इस बार अपने दो कर्मचारियों को भेजा। वे सामान दे कर लौटे तो भाऊ शो रूम पर नहीं थे। दोनों ने, चालान और पहलेवाले बिल के भुगतान का चेक मैनेजर साहब को सौंप दिया।


तीसरे पखवाड़े फिर सामान जाना था। लोडिंग रिक्शा तैयार था। भाऊ ने उन्हीं दो कर्मचारियों की तरफ चालान बढ़ाया और कहा - ‘भाग कर जाओ और भाग कर आओ। और भी जगह सामान पहुँचाना है।’ दोनों ने एक साथ इंकार कर दिया। बोले - ‘नहीं भाऊ! उस दुकान पर हम नहीं जाएँगे। वहाँ जो दो लड़कियाँ काम देखती हैं वे बहुत ही बेकार हैं। सीधे मुँह बात नहीं करतीं। कुछ तो भी बोल देती हैं। पता नहीं घर से झगड़ कर आती हैं या सेठ से नाराज हैं। बिना बात के झगड़ा करती हैं।’


भाऊ सन्न रह गए। कर्मचारियों के जवाब से कम और इस वार्तालाप के समय विवेक की उपस्थिति से ज्यादा। विवेक लगातार भाऊ को देखे जा रहा था। और भाऊ? विवेक की आँखों की ताब झेलना भाऊ के लिए मुश्किल हो गया था। मानो विवेक की आँखें पूछ रही हों - ‘बोलो! भाऊ! अब क्या कहोगे? अब तो मेरी बात पर भरोसा हुआ?’ भाऊ इधर-उधर देख कर बचने की कोशिश कर रहे थे। विवेक की आँखों में उलाहना साफ पढा जा सकता था - ‘मुझे अकारण ही डाँटने के लिए खेद प्रकट करोगे? ‘सारी’ बोलोगे?’ अपनी चूक भाऊ को याद आ रही है और तब विवेक को डाँटने को लेकर वे अपराध भाव से ग्रस्त भी हैं - यह मैं साफ-साफ अनुभव कर पा रहा था। किन्तु विवेक से क्षमा माँगना या खेद प्रकट करना उनके लिए मुमकिन  नहीं हो पा रहा था। गलती करने का अहसास तो उनके चेहरे पर था किन्तु इनसे पहले, अहम् वहाँ विराजित था। अपने पर आश्रित, उम्र में अपने से छोटे, अपने चचेरे भाई से क्षमा माँगना उन्हें अपनी हेठी लग रहा था। उन्होंने जैसे-तैसे दोनों कर्मचारियों को भगाया - ‘भागो! स्सालों! कुछ तो भी कहते रहते हो। जाओ! अपना काम करो और हमेशा याद रखो के ग्राहक कभी गलती नहीं करता। हम ही गलती करते हैं। इस तरह, ग्राहकों से उलझते रहे तो कर लिया धन्धा।’


दोनों कर्मचारी तो चले गए किन्तु भाऊ कहाँ जाते? वे तो अपनी कुर्सी पर ही बैठे थे। उनकी मुसीबत यह थी कि उनके पासवाली कुर्सी पर ही विवेक भी बैठा था जो उन्हें लगातार घूरे जा रहा था।


अन्ततः विवेक ने ही नजरें फेर कर भाऊ को राहत दी। मैंने देखा - बड़ापन तो यकीनन भाऊ के पास था किन्तु बड़प्पन विवेक के पास था। उसका चेहरा मानो हजारों दीपों की रोशनी से दिपदिपा रहा था।


मुझे नहीं पता कि घटनाक्रम के इस तीसरे हिस्से के बाद, दोनों भाइयों के बीच स्थितियाँ सामान्य हुईं या नहीं।


यह तो हुई भाऊ के अहम् की बात। किन्तु अहम् के साथ अपेक्षा के आने पर क्या दशा होती है, यह जाना मैंने श्रीकान्त भाई से।


श्रीकान्त भाई का किस्सा फिर कभी।    

4 comments:

  1. कभी कभी गलती को हल्के से मानकर ऐसी परिस्थितियों का भारीपन बचाया जा सकता है।

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  2. मै प्रवीण भाई साहब ली बातों से पूर्णतः सहमत हूँ .

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  3. यह एक प्रकार का अंतरद्वन्द है. व्यवहार विज्ञान में आपका रुझान आपकी लेखनी से प्रकट होती है.

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  4. हम अपने सबसे करीब व्यक्ति के प्रति सबसे अधिक लापरवाह होते हैं , यही मानव स्वभाव है . मगर जब एहसास हो , सुधार कर लेना चाहिए !

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