कभी-कभी कुछ बातें ऐसी हो जाती हैं जिनका महत्व, प्रथमदृष्टया या कि सतही तौर पर बहुत ही सीमित तबके के लिए अनुभव होता है किन्तु जब उनके ‘मर्म’ का भान होता है तो मालूम हो पाता है कि हमारी पहली अनुभूति वस्तुतः हमारे सीमित सोच का ही परिणाम थी। सच तो यह है कि कोई भी अच्छी बात सबके लिए समान रूप से अच्छी ही होती है फिर भले ही वह किसी खास वर्ग को लक्ष्यित कर कही गई हो।
राकेश कुमारजी, भारतीय जीवन बीमा निगम के, मध्य क्षेत्र (जिसमें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं) के प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) हैं। भारतीय जीवन बीमा निगम के हम अभिकर्ताओं के एक मात्र, मान्यता प्राप्त, राष्ट्रीय संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की मध्य क्षेत्रीय इकाई (सेण्ट्रल झोनल कौंसिल) का, अभिकर्ताओं का एक ‘महा अधिवेशन, 11 फरवरी 2012 को भोपाल में सम्पन्न हुआ था। अभिकर्ताओं की भागीदारी के सारे अनुमानों (दो हजार की उपस्थिति के अनुमान के मुकाबले छः हजार से अधिक अभिकर्ताओं की उपस्थिति) को ध्वस्त कर देनेवाले इस ऐतिहासिक अधिवेशन की विशेषता यह थी कि इसमें, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थित, भारतीय जीवन बीमा निगम की समस्त 148 शाखाओं के अभिकर्ताओं ने भागीदारी की थी। इस ‘यादगार अधिवेशन’ को ‘अभिलेखीय यादगार’ बनाने के लिए प्रकाशित स्मारिका के विमोचन समारोह में राकेश कुमारजी आए थे। वहीं उन्होंने ये बातें कहीं।
उन्होंने बताया कि नौकरी की तलाश में उन्होंने अनेक संस्थाओं में आवेदन किया था और परीक्षाएँ दी थीं। प्रत्युत्तर में उन्हें, भारतीय विदेश सेवा में ‘अनुभाग अधिकारी’ (सेक्शन ऑफिसर) जैसे प्रतिष्ठित पद सहित, नाबार्ड, भारतीय जीवन बीमा निगम आदि से भी सेवा प्रस्ताव मिले थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि कौन सी नौकरी में जाएँ। उन्होंने अपने पिताजी से पूछा तो तनिक विचार करने के बाद पिताजी ने कहा कि राकेश कुमारजी को भारतीय जीवन बीमा निगम की नौकरी करनी चाहिए। राकेश कुमारजी ने कारण पूछा तो पिताजी ने उत्तर दिया - ‘क्यों कि बाकी सारी सरकारी नौकरियों के लोगों के बारे में तो खबरें छपीं किन्तु एलआईसी के किसी भी आदमी के, चोरी और भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े जाने की खबर पढ़ने में नहीं आई।’
भाजीबीनि के तमाम अधिकारी हम अभिकर्ताओं से एक ही माँग करते हैं - ‘बीमा लाइए।’ कहा तो राकेश कुमारजी ने भी यही किन्तु मेरे, बाईस वर्षों के अब तक के अनुभवों को परे सरकाते हुए, सर्वथा अनूठे ढंग से। राकेश कुमारजी ने अभिकर्ताओं को ‘व्यवसायी’ बनकर नया बीमा लाने की सलाह दी, ‘व्यापारी’ बन कर नहीं। दोनों शब्दों का बारीक अन्तर, व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल बदलाव ला देनेवाला है।
राकेश कुमारजी ने कहा - ‘लक्ष्य को आँकड़ों में मत बदलिए। प्रतियोगिता में सफल होने की माला पहनने के लिए काम नहीं करें। ऐसा करने में, अन्तिम क्षणों में आत्मघाती चूक हो सकती है। आँकड़ा छूने के लालच में गुणवत्ता ओझल हो जाती है और ऐसे में, अन्तिम दो-चार पॉलिसियाँ आपकी एजेन्सी बर्खास्त करा सकती हैं।’
दूसरी बात राकेश कुमारजी ने कही - ‘किसी एजेण्ट के अपमान में हिस्सा कभी न बनें। ऐसा करके आप खुद का सम्मान सुरक्षित करेंगे।’
तीसरी बात - ‘बीमा छोड़ने का, लोगों के बीमा प्रस्तावों को निरस्त करने का साहस रखिए। अधिकाधिक लोगों से मिलिए और अपात्रों को खारिज कीजिए। लोगों को बखूबी पता होता है कि उनका बीमा नहीं हो सकता। ऐसे लोग खुद चलकर आपके पास आते हैं। उनसे कहिए कि आप उनका बीमा नहीं करेंगे। आपका एक इनकार, सबका भला करेगा - आपका, एलआईसी का और खुद उस व्यक्ति के परिवार का क्योंकि उसकी शीघ्र मृत्यु की दशा में वास्तविकता सामने आएगी ही और उसके परिजनों को दावे की रकम नहीं मिल पाएगी।’
चौथी बात - ‘अपने व्यवहार में गरिमा बनाए रखिए। इससे, लोगों को आपसे दुर्व्यवहार करने में असुविधा होगी।’
पाँचवीं बात - ‘आपका व्यवसाय ऐसा है कि आपको अधिकाधिक लोगों से बात करनी पड़ती है। किन्तु ‘किससे बात नहीं करनी है’ यह जरूर सीखें।’
छठवीं बात - ‘आप व्यवसायी हैं, भिखारी नहीं। बीमा बेचिए, भीख मत माँगिए और सामनेवाला मना करे उससे पहले खुद उसे मना करके उठ आइए।’
सातवीं बात - ‘ईश्वर ही ऐश्वर्य है। इसलिए, खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर काम कीजिए। जीवन का आनन्द लीजिए और आनन्द के लिए ही काम कीजिए।’
बाईस वर्षों की अपनी एजेन्सी में मैंने अनेक अधिकारियों के उद्बोधन सुने किन्तु इस किसम का यह पहला ही उद्बोधन था जिसमें बीमा ‘एजेन्सी के लक्ष्य’ को ‘जीवन की बेहतरी’ से और ‘ईश्वर’ से जोड़ा गया था, जिसमें ‘व्यापार’ के मुकाबले ‘व्यवसाय’ को वरीयता दी गई थी और ‘ईश्वर प्राप्ति’ को ‘ऐश्वर्य प्राप्ति’ कहा गया था।
जैसाकि मैंने शुरु में कहा था, ये सारी बातें राकेश कुमारजी ने हम बीमा अभिकर्ताओं के लिए कही थीं किन्तु मुझे ये बातें सब पर लागू होती लगीं - यह भेद किए बिना कि वह कौन से व्यवसाय में लगा हुआ है।
ऐसी ही बातें मनुष्य जीवन को निर्मल बनाती हैं और उदात्त भी।
राकेश कुमारजी की बातें मुझे ऐसी ही लगीं और इसीलिए उन्हें यहाँ देने से खुद को रोक नहीं पा रहा हूँ।
राकेश कुमारजी, भारतीय जीवन बीमा निगम के, मध्य क्षेत्र (जिसमें मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ शामिल हैं) के प्रादेशिक विपणन प्रबन्धक (रीजनल मार्केटिंग मैनेजर) हैं। भारतीय जीवन बीमा निगम के हम अभिकर्ताओं के एक मात्र, मान्यता प्राप्त, राष्ट्रीय संगठन ‘लियाफी’ (लाइफ इंश्योरेंस एजेण्ट्स फेडरेशन ऑफ इण्डिया) की मध्य क्षेत्रीय इकाई (सेण्ट्रल झोनल कौंसिल) का, अभिकर्ताओं का एक ‘महा अधिवेशन, 11 फरवरी 2012 को भोपाल में सम्पन्न हुआ था। अभिकर्ताओं की भागीदारी के सारे अनुमानों (दो हजार की उपस्थिति के अनुमान के मुकाबले छः हजार से अधिक अभिकर्ताओं की उपस्थिति) को ध्वस्त कर देनेवाले इस ऐतिहासिक अधिवेशन की विशेषता यह थी कि इसमें, मध्य प्रदेश और छत्तीसगढ़ में स्थित, भारतीय जीवन बीमा निगम की समस्त 148 शाखाओं के अभिकर्ताओं ने भागीदारी की थी। इस ‘यादगार अधिवेशन’ को ‘अभिलेखीय यादगार’ बनाने के लिए प्रकाशित स्मारिका के विमोचन समारोह में राकेश कुमारजी आए थे। वहीं उन्होंने ये बातें कहीं।
उन्होंने बताया कि नौकरी की तलाश में उन्होंने अनेक संस्थाओं में आवेदन किया था और परीक्षाएँ दी थीं। प्रत्युत्तर में उन्हें, भारतीय विदेश सेवा में ‘अनुभाग अधिकारी’ (सेक्शन ऑफिसर) जैसे प्रतिष्ठित पद सहित, नाबार्ड, भारतीय जीवन बीमा निगम आदि से भी सेवा प्रस्ताव मिले थे। वे तय नहीं कर पा रहे थे कि कौन सी नौकरी में जाएँ। उन्होंने अपने पिताजी से पूछा तो तनिक विचार करने के बाद पिताजी ने कहा कि राकेश कुमारजी को भारतीय जीवन बीमा निगम की नौकरी करनी चाहिए। राकेश कुमारजी ने कारण पूछा तो पिताजी ने उत्तर दिया - ‘क्यों कि बाकी सारी सरकारी नौकरियों के लोगों के बारे में तो खबरें छपीं किन्तु एलआईसी के किसी भी आदमी के, चोरी और भ्रष्टाचार के आरोप में पकड़े जाने की खबर पढ़ने में नहीं आई।’
भाजीबीनि के तमाम अधिकारी हम अभिकर्ताओं से एक ही माँग करते हैं - ‘बीमा लाइए।’ कहा तो राकेश कुमारजी ने भी यही किन्तु मेरे, बाईस वर्षों के अब तक के अनुभवों को परे सरकाते हुए, सर्वथा अनूठे ढंग से। राकेश कुमारजी ने अभिकर्ताओं को ‘व्यवसायी’ बनकर नया बीमा लाने की सलाह दी, ‘व्यापारी’ बन कर नहीं। दोनों शब्दों का बारीक अन्तर, व्यक्ति के जीवन में आमूलचूल बदलाव ला देनेवाला है।
राकेश कुमारजी ने कहा - ‘लक्ष्य को आँकड़ों में मत बदलिए। प्रतियोगिता में सफल होने की माला पहनने के लिए काम नहीं करें। ऐसा करने में, अन्तिम क्षणों में आत्मघाती चूक हो सकती है। आँकड़ा छूने के लालच में गुणवत्ता ओझल हो जाती है और ऐसे में, अन्तिम दो-चार पॉलिसियाँ आपकी एजेन्सी बर्खास्त करा सकती हैं।’
दूसरी बात राकेश कुमारजी ने कही - ‘किसी एजेण्ट के अपमान में हिस्सा कभी न बनें। ऐसा करके आप खुद का सम्मान सुरक्षित करेंगे।’
तीसरी बात - ‘बीमा छोड़ने का, लोगों के बीमा प्रस्तावों को निरस्त करने का साहस रखिए। अधिकाधिक लोगों से मिलिए और अपात्रों को खारिज कीजिए। लोगों को बखूबी पता होता है कि उनका बीमा नहीं हो सकता। ऐसे लोग खुद चलकर आपके पास आते हैं। उनसे कहिए कि आप उनका बीमा नहीं करेंगे। आपका एक इनकार, सबका भला करेगा - आपका, एलआईसी का और खुद उस व्यक्ति के परिवार का क्योंकि उसकी शीघ्र मृत्यु की दशा में वास्तविकता सामने आएगी ही और उसके परिजनों को दावे की रकम नहीं मिल पाएगी।’
चौथी बात - ‘अपने व्यवहार में गरिमा बनाए रखिए। इससे, लोगों को आपसे दुर्व्यवहार करने में असुविधा होगी।’
पाँचवीं बात - ‘आपका व्यवसाय ऐसा है कि आपको अधिकाधिक लोगों से बात करनी पड़ती है। किन्तु ‘किससे बात नहीं करनी है’ यह जरूर सीखें।’
छठवीं बात - ‘आप व्यवसायी हैं, भिखारी नहीं। बीमा बेचिए, भीख मत माँगिए और सामनेवाला मना करे उससे पहले खुद उसे मना करके उठ आइए।’
सातवीं बात - ‘ईश्वर ही ऐश्वर्य है। इसलिए, खुद को ईश्वर के प्रति समर्पित कर काम कीजिए। जीवन का आनन्द लीजिए और आनन्द के लिए ही काम कीजिए।’
बाईस वर्षों की अपनी एजेन्सी में मैंने अनेक अधिकारियों के उद्बोधन सुने किन्तु इस किसम का यह पहला ही उद्बोधन था जिसमें बीमा ‘एजेन्सी के लक्ष्य’ को ‘जीवन की बेहतरी’ से और ‘ईश्वर’ से जोड़ा गया था, जिसमें ‘व्यापार’ के मुकाबले ‘व्यवसाय’ को वरीयता दी गई थी और ‘ईश्वर प्राप्ति’ को ‘ऐश्वर्य प्राप्ति’ कहा गया था।
जैसाकि मैंने शुरु में कहा था, ये सारी बातें राकेश कुमारजी ने हम बीमा अभिकर्ताओं के लिए कही थीं किन्तु मुझे ये बातें सब पर लागू होती लगीं - यह भेद किए बिना कि वह कौन से व्यवसाय में लगा हुआ है।
ऐसी ही बातें मनुष्य जीवन को निर्मल बनाती हैं और उदात्त भी।
गजब के सफलता सूत्र!!
ReplyDeleteनिसंदेह, बातें व्यापक दृष्टिकोण के साथ अधिक ग्राह्य हो जाती हैं.
ReplyDeleteऐसी ही बातें मनुष्य जीवन को निर्मल बनाती हैं और उदात्त भी।
ReplyDeletekripaya post ko sangrah karane hetu mail karane ka kasht karen .
धन्यवाद। लिंक प्रस्तुत है -
Deletehttp://akoham.blogspot.in/2012/05/blog-post_08.html?showComment=1336455123173#c5830332661846839894
ई-मेल से प्राप्त, श्रीयुत सुरेशचन्द्रजी करमरकर की टिप्पणी -
ReplyDeleteविष्णुजी! अब आप बीमे की एजेंसी छोडिये और भारतीय जीवन बीमा निगम के ब्राण्ड एम्बेसेडर बन जाइए। वैसे एक बात है, बीमा कर्मचारियों को लोग बातचीत मैं सफ़ेद हाथी कहतें हैं, मगर आज तक जीवन बीमा निगम के किसी कर्मचारी या अधिकारी का नाम लेने-देने के मामले मैं आया ही नहीं। मैंने सत्रह वर्ष पूर्व गृह ऋण लिया था। ताज्जुब यह कि इन्दौर मैं पदस्थ श्रीमती सरखेज ने मुझे घर बन जाने के उपलक्ष मैं चाय पिलाई। उस अधिकारी ने जैसे ही दस्तावेजों को सही पाया, तुरन्त ऋण मंजूर किया। जीवन बीमा निगम एवं जीवन बीमा गृह वित्त निगम का मैं आभारी हूँ।
सुरेश जी के सुझाव पर जीवन बीमा निगम के अधिकारियों को ग़ौर करना चाहिये।
Deleteअनुभव से उपजी बातें, अनुकरणीय
ReplyDeleteई-मेल से प्राप्त, श्री हिमांशु राय सक्सेना, भोपाल की टिप्पणी -
ReplyDeleteलक्ष्य को आँकडों का खेल न बनाएँ.........बहुत गहरी बात है जो कॉर्पोरेट में आम बात है।
इंश्योरेंस इंस्टिट्यूट ऑफ इण्डिया, मुम्बई के सक्रेटरी जनरल, श्री शरद श्रीवास्तव की, फेस बुक पर टिप्पणी-
ReplyDeleteअच्छे अधिकारियों की पहचान करने के लिए विष् णु बैरागीजी को धन्यवाद।
इंश्योरेंस इण्डस्ट्री के लोग जरूर पढें, श्री राकेश कुमार और सुश्री मधुमिता सरखेल के बारे में।
राकेश कुमारजी की बातें भी प्रेरक हैं और आपका ब्लॉग भी। इस सत्संग का लाभ पाने वाले हम पाठक भी भाग्यशाली हैं, धन्यवाद!
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