विश्व बैंक के गौरव पुरुष, ‘एलपीजी’ (लिबरलाइजेशन-उदारीकरण, प्राइवेटाइजेशन-निजीकरण और ग्लोबलाइजेशन-वैश्वीकरण) के अग्रणी सच्चे सपूत और सम्भवतः किसी सुनिश्चत उद्देश्य की प्राप्ति हेतु, भारतीय योजना आयोग के उपाध्यक्ष बनाए गए मोण्टेक सिंह अहलूवालिया की सूचना यदि सच में बदल गई तो (जो कि बदलनी ही है) अंग्रेजी, अंग्रेजीयत और क्रिकेट के बाद सम्भवतः यह चौथी ‘अंग्रेजी चीज’ होगी जिसे हम पूर्वानुसार ही, आधिकारिक रूप से, या तो माथे पर बैठा लेंगे या फिर ‘स्थापित भारतीय परम्पराओं का निर्वहन’ करते हुए, उदारतापूर्वक आत्मसात कर लेंगे। स्थिति दोनों में से कोई भी हो, हम यह करेंगे - आत्माभिमान की कीमत पर ही, स्वयम् को धन्य और गद्गद अनुभव करते हुए, अत्यन्त आदरपूर्वक, साष्टांग दण्डवत करते हुए। बाबा नागार्जुन को याद करते हुए - ‘हम ढोएँगे पालकी।’ इस बार भी यह पालकी होगी तो ‘रानी’ की ही किन्तु किसी ‘जैविक रानी’ की नहीं, ‘वानस्पतिक रानी’ की।
यह ‘रानी’ है - चाय। जिसके बिना हमारी सुबह गुनगुनी नहीं होती, दिन राजी-खुशी नहीं गुजरता और शाम सुरमई नहीं होती। मोण्टेक सिंह अहलूवालिया ने मुदित भाव से, देश को उपकृत करने की मुद्रा में सदाशयतापूर्वक अग्रिम सूचना दी है कि अप्रेल 2013 तक, चाय को भारत का ‘राष्ट्रीय पेय’ घोषित कर दिया जाएगा। देश के संघीय ढाँचे की रक्षा के नाम पर राष्ट्रीय एकता को परे सरकाया जा सकता है और राष्ट्रीय प्रतीक के नाम हमारा राष्ट्र-ध्वज तिरंगा एक बार मतभेद और विवाद का विषय हो सकता है किन्तु इसमें रंच मात्र भी सन्देह नहीं कि चाय हमारी राष्ट्रीय एकता की वास्तविक संवाहक और सच्चा राष्ट्रीय प्रतीक बन गई है। काश्मीर से कन्याकुमारी तक और गौहाटी से चौपाटी तक, समान रूप से उपलब्ध है - चौबीसों घण्टे। ‘अहर्निशं सेवामहे’ की तर्ज पर। छोटे से छोटे गाँव में, राजस्थान की ढाणियों और आदिवासियों के फलियों-टापरों में, पीने का पानी एक बार भले ही न मिले, चाय जरूर मिल जाएगी। भारतीयता भले ही पूरे भारत में नजर न आए, चाय अवश्य नजर आ जाएगी। भारतीय समष्टि में व्याप्ति के मामले में चाय ने तो ईश्वर को भी मात दे दी है। ईश्वर के अस्तित्व को नकारनेवाले नास्तिक भी चाय के आराधक बने मिल जाएँगे।
अंग्रेज, शासक या प्रशासक बन कर भारत में नहीं आए थे। वे ‘व्यापारी’ बन कर आए थे। भारत को ‘चाय की देन’, उस ‘अंग्रेज व्यापारी’ की ही है। हमारे पैतृक मकान के चबूतरे पर हर शाम, मुहल्ले की चौपाल लगती। उसी में, पिताजी से, बीसियों बार सुना था कि अंग्रेजों ने किस तरह हम भारतीयों को चाय की लत लगाई।
रोज सवेरे, मुहल्लों-गलियों के एक सिरे पर, बड़े-बड़े तपेलों/भगानों में, बादामी रंग का गरम-गरम पेय लेकर अंग्रेजों के भारतीय कारिन्दे (निश्चय ही वे ‘ब्रुक बॉण्ड टी कम्पनी’ के कारिन्दे होते थे) पहुँच जाते। ‘लो! मुफ्त में चाय ले लो। गरम-गरम चाय ले लो!’ की हाँक लगा-लगा कर सबको बुलाते। लोग अपने-अपने बर्तन लेकर जाते और मुफ्त में, गरम-गरम, मीठी-मीठी चाय भर ले जाते। यदि किसी घर से कोई नहीं आता या आ नहीं पाता तो उनके घर जाकर उन्हें चाय देते। लोग इसे ‘अंग्रेजी चाय’ कहते थे। कुछ लोग पीते, कुछ नहीं पीते। बच जाती तो ढँक कर रख दी जाती और जब जी चाहता, गरम करके पी लेते। किसी को बुखार आ जाता तो ‘इसे अंग्रेजी चाय पिलाओ’ की सलाह दी जाती और ताज्जुब कि यह कारगर दवा भी बन जाती।
अंग्रेज तो चले गए किन्तु काफी कुछ नष्ट-भ्रष्ट-ध्वस्त कर गए। निस्सन्देह इस सबमें हम ‘अंग्रेजों के मानसिक गुलाम आजाद भारतीयों’ ने तब भी पूरा-पूरा योगदान दिया और अब भी दिए जा रहे हैं - अत्यन्त गौरवपूर्वक, निष्ठापूर्वक, सम्पूर्ण तन्मयता से। देव-आराधना करने की, निर्लिप्त नयन, मुदित मन और प्रसन्न वदन मुद्रा में। जो अंग्रेज हमें ‘चौबीसों घण्टे चाय की चुस्कियों का चस्का’ लगा गए वे अंग्रेज तो तब भी निर्धारित समय पर, निर्धारित विधि से बनी चाय पीते थे और आज भी वैसे ही पी रहे हैं। बस! ये तो हम (उनके उपनिवेशी देशों के लोग) ही हैं जिनके चाय बनाने की न तो कोई एक समान मानक-विधि है और न ही पीने का कोई निर्धारित समय। जैसे चाहो, वैसे बना लो और जब चाहे, पी लो। हालत यह हो गई कि चाय आज केवल एक पेय नहीं रह गई। आवभगत का पैमाना बन गई है।
मेरा एक मित्र भोपाल से नीमच जा रहा था। उसकी रेल, रात एक बजे रतलाम पहुँचने वाली थी और रतलाम से नीमच तक उसे कार से जाना था। उसने कहा कि वह भोजन मेरे यहाँ करेगा। मुझे उसकी इस अनौपचारिकता पर प्रसन्नता तो हुई किन्तु रात एक बजे भोजन? मैंने कहा कि मैं उसके लिए शुजालपुर (रात लगभग नौ बजे) या उज्जैन (रात लगभग ग्यारह बजे) में उसके भोजन की व्यवस्था करवा देता हूँ। उसने मना कर दिया। कहा कि वह भोजन तो मेरे यहाँ ही करेगा।
वह आया। उसने भोजन किया। हम दोनों थोड़ी देर बतियाते रहे। रात लगभग ढाई-पौने तीन बजे वह नीमच हेतु प्रस्थित हो गया।
अगली सुबह से मैं उसके पहुँचने की सूचना की प्रतीक्षा करने लगा। शाम तक उसकी कोई खबर नहीं आई तो मैंने ही फोन लगा कर पूछताछ की। वह अत्यधिक खिन्न, अप्रसन्न और कुपित था। उसने कहा - ‘तू ने आधी रात को भोजन तो कराया पर चाय के लिए एक बार भी नहीं पूछा।’ मुझे धक्का लगा। ऐसी बात के लिए तैयार नहीं था। मैंने कहा - ‘मुझे लगा रात ढाई-पौने तीन बजे चाय के लिए पूछना ठीक नहीं रहेगा। डर भी लगा कि कहीं तू मेरी मजाक न उड़ाए। बस! इसीलिए नहीं पूछा।’ वह बोला - ‘ठीक होता या नहीं, यह तो मेरे सोचने की बात थी। तूने कम से कम एक बार पूछना तो था। तू भोजन नहीं कराता तो एक बार चल जाता लेकिन चाय की नहीं पूछना तो सरासर बेइज्जती करना है।’ मेरे पास कोई जवाब नहीं था।
चाय हमारे जीवन का नहीं, हमारे शरीर की जैविक संरचना का हिस्सा बन गई लगती है। हमारा जीवन और समाज इसीसे पूर्णता प्राप्त कर पा रहा है। शहरी क्षेत्रों में सड़क किनारे सर्वाधिक अतिक्रमण चाय की गुमटियों/ठेलों का ही मिलेगा। शहरों को जोड़ने वाली सड़कों के विराने को, चाय की होटलों ही गुलजार बनाए हुए हैं। हमारे चौड़े-चिकने, फोर/सिक्स-लेन हाई-वे पर तो चाय की दुकानें, सुहागन के माथे की बिन्दी की तरह शोभायमान लगती हैं। चाय उत्पादन से लेकर पी गई चाय के कप-प्लेट धोने तक, देश के करोड़ों लोग इससे रोजगार हासिल किए हुए हैं। ‘गोल गुम्बद वाली इमारत’ में दिन भर एक दूसरे की छिछालेदारी करनेवाले हमारे नेता, अपनी सारी नफरत यदि शाम को चाय की प्याली से उठते धुँए के साथ शून्य मे विसर्जित कर देते हैं तो राजनीतिक नायिकाओं का एक साथ बैठकर एक प्याला चाय पीना, सरकार बदल देता है। चाय के दम पर पूरे देश के सरकारी दफ्तरों में काम हो पा रहा है। ‘चाय-पानी’ न हो तो एक कागज भी न सरके।
चाय, केवल चाय नहीं है। इसे होठों से लगाएँ या इससे नफरत करें, हकीकत तो यही है कि अंग्रेजों की यह ‘विचत्र देन’ हमारा राष्ट्रीय चरित्र बन गई है।
चाय को राष्ट्रीय पेय बनाने की बात पर थोड़ा-बहुत हल्ला-गुल्ला, शोर-शराबा होगा लेकिन होगा वही जो होना है। जिस तरह हमने हिन्दी को अंग्रेजी की और भारतीयता को अंग्रेजीयत की ‘लौंडियाँ’ बना दिया है, हॉकी को क्रिकेट की उतरन पहनने वाला खेल बना दिया है, उसी तर्ज पर अपने मट्ठा, शिकंजी जैसे देशी पेयों को चाय के क्रीत दास बना देंगे।
इसलिए, सच्चे भारतीय की तरह व्यवहार कीजिए और गगनभेदी स्वरों में चाय की अगवानी कीजिए -
आओ रानी! हम ढोएँगे पालकी।
यही बनी है राय, वतन अहवाल की।
यही बनी है राय, वतन अहवाल की।
भाई जी,
ReplyDeleteचाय अंग्रेजो की कब से हुई। वह तो चीनी है।
चीनी पुराकथाओं के मुताबिक इस की खोज शेन नोंग शी ने 2,852-2737 ईस्वीपूर्व की थी। चीन में इसे शराब का स्थानापन्न माना गया है। चीन में पहली बार चाय 1652 से 1654 ईस्वी के बीच पहुँची। भारत में सबसे पहले इस के बागान 1835 में ईस्ट इंडिया कंपनी ने लगाए। यूँ कहा जा सकता है कि चाय को भारत में अंग्रेज लाए। उन्हें तो लाना ही था व्यापारी थे। अंग्रेजों ने भारत की जमीन पर भारत के मजदूरों से चाय उगवाई, भारतियों को उस की लत डाली और सारा मुनाफा वे बटोर ले गए। ये तो अब भी चल रहा है। भारत का माल, भारत में फैक्ट्री, भारत के मजदूर, भारत के प्रबंधक, भारत के ग्राहक। बस मुनाफा बहुराष्ट्रीय कंपनियों का।
अब इसे भारत का राष्ट्रीय पेय बनाना भी एक साजिश ही कहा जाएगा।
अपने को तो चाय छोड़े पूरे बीस बरस एक माह बीत चुका है।
हॉं, चाय अंग्रेजों की तो नहीं है, चीनी ही है। किन्तु यहॉं मेरा आशय केवल यही है कि हम भरतीयों से इसका परिचय अंग्रेजों ने कराया और इसीलिए, इस पोस्ट के सन्दर्भ में, चाय अंग्रेजी है।
Deleteचाय भारतीयों ने पूर्णता से अपना ली है, हम ढोयेंगे पालकी।
ReplyDeleteलगता है कि राष्ट्रीय परिधान पतलून के बारे में अभी किसी लिबरलाइजेशन-उदारीकरण, प्राइवेटाइजेशन-निजीकरण और ग्लोबलाइजेशन-वैश्वीकरण के अग्रणी सच्चे सपूत के चुस्त दिमाग की सुस्त ट्यूबलाइट जली नहीं है।
ReplyDeletebairagi ji agrejo ke bahut si chije hum pahle se do rahe hai.ek ur nahi sahi.vsse bairaji chiy ab hamare liye naye chij rahi bhi nahi.nayapan apke likhne me hai.badiya likha hai.danywad
ReplyDeleteविवेकजी! आप तो 'बहुत सी चीजों' कह कर अत्यधिक उदारता बरत रहे हैं। अरे! मानसिकता के मामले में तो हममें से प्रत्येक 'आधा से अधिक' अंग्रेज बन चुका है। इसलिए, चाय को स्वीकारने या न स्वीकारनेवाली तो कोई बात ही नहीं रह गई। मुझे तो इस बात का बुरा लगा कि जो चीज कभी हमारी थी ही नहीं, वही हमारी 'राष्ट्रीय प्रतीक' हो रही है।
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