भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष राजनाथसिंह ने पार्टी के तमाम नेताओं-कार्यकर्ताओं को हड़का दिया है - ‘चुप रहो! नरेन्द्र मोदी को प्रधान मन्त्री बनाने का हल्ला-गुल्ला बन्द करो।’ असर हुआ तो जरूर किन्तु सौ टका नहीं। गुबार बैठा तो सही किन्तु गर्द अभी भी बनी हुई है। शोर थमा तो जरूर किन्तु धीमी-धीमी भिनभिनाहट हवाओं में गूँज रही है। कुछ बिगड़ैल बच्चे हर कक्षा में होते हैं जो अपने-अपने मास्टरजी की नाक में दम किए रहते हैं। देखिए न! राहुल ने सरे आम हड़काया लेकिन बेनी बाबू ने सुना?
इस बीच, अभी-अभी ही, एक बात और हो गई। वेंकैया नायडू ने कह दिया कि पार्टी की ओर से किसे प्रधान मन्त्री घोषित किया जाए - यह फैसला, भाजपा का संसदीय बोर्ड तय करेगा। नायडू का कहना याने पार्टी का आधिकारिक वक्तव्य! गोया नायडू ने, वायुमण्डल में ठहरी हुई, थेड़ी-बहुत गर्द पर पानी की बौछार कर दी और हवाओं में बनी हुई भिनभिनाहट को म्यूट कर दिया।
ऐसे में अब, जबकि नरेन्द्र मोदी के प्रधान मन्त्री की दावेदारी को लेकर पार्टी, आसमान को साफ और हवाओं को निःशब्द कर चुकी हो, जब मैं खुद ही कह चुका हूँ कि मोदी के प्रधान मन्त्री न बनने का तीसरा कारण ‘सुपरिचित, जगजाहिर और घिसा-पिटा’ है, तो इस तीसरी कड़ी की क्या आवश्यकता और औचित्य?
मुझे किसी की भी सामान्य-समझ (कॉमनसेन्स), दूरदर्शिता और चीजों को समझने की क्षमता पर रंच मात्र भी सन्देह नहीं। लेकिन मैंने अपनी ओर से वादा किया था। सो, उसे ही निभाने के लिए यह तीसरी कड़ी।
तर्क और अनुमान तो, अपनी सुविधा और इच्छानुसार जुटाए और गढ़े जा सकते हैं किन्तु गणित में यह सुविधा नहीं मिल पाती। तर्क शास्त्र का सहारा लेकर, दो और दो को पाँच साबित करने का चमत्कार दिखानेवाले जादूगर को भी, किराने की दुकान पर पाँचवा रुपया नगद गिनवाकर चुकाने पर ही पाँच रुपयों की कीमत का सौदा-सुल्फ मिल पाता है। तर्कों की अपनी हकीकत हो सकती है किन्तु हकीकतों के कोई तर्क नहीं हो पाते। यह ‘तर्क रहित हकीकत’ ही नरेन्द्र मोदी के रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा है।
यहाँ फिर एक बार मालवी की एक कहावत मेरी बात को आसान करती है। यह मालवी कहावत है - ‘ओछी पूँजी घर धणी ने खाय।’ अर्थात्, कम पूँजी के दम पर व्यापार नहीं किया जा सकता। कम पूँजी पर व्यापार करनेवाला व्यापारी अन्ततः डूबता ही डूबता है। डूबने से बचने का एक ही उपाय है - प्रचुर पूँजी। यदि प्रचुर न हो तो उसका यथेष्ट (जरूरत के मुताबिक) होना तो अनिवार्य है ही। अपनी पूँजी कम हो और खुद को बचाए रखने की ललक हो तो अपने जैसे, कम पूँजीवाले किसी दूसरे व्यापारी को तलाशा जाता है। तब, कम पूँजीवाले दो व्यापारियों की सकल पूँजी मिलकर जरूरत के मुताबिक हो जाती है। दोनों के मिलने के बाद भी पूँजी कम पड़े तो, कम पूँजीवाले किसी तीसरे की तलाश की जाती है। आवश्यकतानुसार यह सिलसिला बढ़ता चला जाता है और तब ही थमता है जब कि कम पूँजीवाले ऐसे तमाम व्यापारी खुद को बचाए रखने की स्थिति में आ जाएँ। व्यापार में ऐसे उपक्रम को भागीदारी या प्रायवेट लिमिटेड कहा जाता है जबकि राजनीति में इसे ‘गठबन्धन’ कहा जाता है। राजग (एनडीए) और संप्रग (यूपीए), भारतीय राजनीति के, ओछी पूँजीवाले ऐसे ही व्यापारियों के जमावड़े हैं जहाँ खुद को बचाए रखने के लिए साथवाले को बचाए रखना ‘विवशताजनित बुद्धिमानी और व्यवहारिकता’ बरती जा रही है। दिलजले लोग इसे इसे, ‘मीठा खाने के लिए जूठन खाना’ कहते हैं।
अब यह कहनेवाली बात नहीं रही कि दिल्ली में अपने दम पर सरकार बना पाना न तो काँग्रेस के लिए सम्भव है और न ही भाजपा के लिए। दोनों को बैसाखियाँ चाहिए ही चाहिए। मजे की बात है कि सारी की सारी ‘बैसाखियाँ’ इन दोनों दलों पर बिलकुल ही भरोसा नहीं करतीं। भरोसा करना तो बाद की बात रही, सबकी सब इन दोनों से भयाक्रान्त बनी रहती हैं। कभी-कभी तो यह तय कर पाना मुश्किल हो जाता है कि ये ‘बैसाखियाँ’ किस कारण इन्हें सहारा देती हैं - सत्ता में भागीदारी के लाभ लेने के लिए या येन-केन-प्रकारेण अपना अस्तित्व बचाए और बनाए रखने के लिए? अपने लिए इन्हें इन दोनों में से किसी न किसी के साथ जुड़ना ही पड़ता है। सो, ये सब, ‘कम हानिकारक’ को चुनती रहती हैं। करुणा (निधि), ममता, माया और जय ललिता, के पास ‘दोनों घाटों पर सत्ता-स्नान के अनुभव की अतिरिक्त/विशेष योग्यता’ है। कुछ दल ऐसे हैं जिन्हें या तो भाजपा के ही साथ रहना है या फिर काँग्रेस के साथ ही। लेकिन कुछ ऐसे भी हैं जिनकी पहचान ‘काँग्रेस विरोध’ है और जो शुरु से हैं तो राजग (एनडीए) के साथ किन्तु पाला बदलने में उन्हें रंच मात्र भी असुविधा नहीं होगी और क्षण भर की देरी नहीं लगेगी। जनता दल युनाइटेड (जदयू) और बीजू जनता दल (बीजद), राजग के ऐसे ही दो साथी हैं। इनका जो आयतन और घनत्व राजग के लिए ‘अपरिहार्य होने की सीमा तक महत्वपूर्ण’ है, इनका वही आयतन और घनत्व, भाजपा के लिए चिन्ता और मुश्किलें बढ़ाता है। उड़ीसा में नवीन बाबू (बीजद) ने भाजपा की बोलती ही बन्द कर रखी है जबकि बिहार में नीतिश की मुस्कान ‘जानलेवा’ बनी हुई है। राजग के घटकों की कम होती संख्या, इन दोनों दलों की अपरिहार्यता और महत्व में बढ़ोतरी ही करती है।
हालाँकि यह कल्पना में भी सम्भव नहीं है किन्तु राजनीतिक आकलन में मूर्खतापूर्ण दुस्साहस बरतते हुए कल्पना की जा सकती है कि बाकी सारे घटक भले ही एक बार, नरेन्द्र मोदी के नाम पर ‘मूक सहमति’ जता दें किन्तु उड़ीसा और बिहार के दोनों जननायक ऐसा कभी नहीं करेंगे। करते तो भला ऐसी, सतही और कच्ची विचार-भूमिवाली आलेख-श्रृंखला की गुंजाइश बन पाती?
यही भाजपा का संकट है और मोदी के रास्ते की सबसे बड़ी बाधा भी। अकाली दल जैसे घटकों को छोड़ दें तो बाकी सारे घटकों का काम, भाजपा के बिना चल सकता है किन्तु इन सबके बिना भाजपा का काम नहीं चल सकता। सत्ता की व्यसनी काँग्रेस के लिए नवीन पटनायक और नीतिश को कबूल करना तनिक भी कठिन नहीं होगा। समाजवादी विचारधारा के सूत्र काँग्रेस से जुड़ने में कोई मानसिक बाधा नहीं होगी। धर्मनिरपेक्षता की रक्षा और साम्प्रदायिकता के विरोध के नाम पर तो बिलकुल ही नहीं। सामान्य समझ रखनेवाला राजनीतिक प्रेक्षक भी जानता है कि नवीन पटनायक और नीतिश को लपकने के लिए काँग्रेस आतुर बैठी है जबकि मोदी को प्रधानमन्त्री बनाने के नाम पर इन्हें राजग में बनाए रखना, भाजपा के लिए असम्भवप्रायः ही है। ऐसे में, यह कहना अधिक ठीक होगा कि इन दोनों को साथ बनाए रखना नहीं बल्कि इन दोनों के साथ बने रहना भाजपा की अपरिहार्यता भी है और मजबूरी भी।
इसी बीच, राजग के संयोजक और जदयू के राष्ट्रीय अध्यक्ष शरद यादव की, अभी-अभी छोड़ी गई, एक ‘छछूँदर’ ने यदि भाजपा की नींद उड़ा दी हो तो अचरज नहीं। शरद यादव ने, राजग के घटकों में बढ़ोतरी की कोशिशें करने की आवश्यकता जताई है। इस 'छछूँदर' का राजनीतिक पेंच यह कि जितने अधिक घटक दल होंगे, भाजपा को उतने अधिक दलों की खुशामद करनी पडेगी। घटक दलों की अधिकता, भाजपा का वजन भी कम करेगी। अटलजी के बाद भाजपा में ऐसा कोई नेता नहीं बचा है जिसके नाम पर, राजग के सारे घटक सहमत हो जाएँ। यह अटलजी का ही करिश्मा था कि लगभग सवा दो दर्जन दल, राजग में प्रेमपूर्वक बने हुए थे। आज तो स्थिति यह हो गई है कि गिनती के घटकों को सम्हाले रखना भाजपा के लिए सर्कसी-करतब से कम कठिन नहीं हो रहा है। ऐसे में मोदी के नाम का असर इन सब पर बिलकुल वैसा ही होता नजर आ रहा है मानो कनखजूरे पर शकर डाली जा रही हो।
मौजूदा राजग : ढेर सारे चले गए, गिनती के रह गए
ऐसे में, जबकि 2014 के चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना नहीं है, जबकि बाकी सबका काम भाजपा के बिना चलता नजर आ रहा हो लेकिन इनके बिना भाजपा का काम चलना नहीं, जबकि काँग्रेस ने सबके लिए सारे रास्ते खुले रखे हुए हों लेकिन मोदी के नाम पर भाजपा के सारे रास्ते बन्द होते नजर आ रहे हों और सत्ता का मीठा खाने के लिए उसे जब सहयोगी दलों पर ही निर्भर होना है तो उसे ‘राग मोदी’ आलापना बन्द करना ही पड़ेगा। ऐसा वह कर भी लेगी। सत्ता जरूरी है, मोदी नहीं। सत्ता के लिए जब ‘राष्ट्रीय अस्मिता’ और ‘धार्मिक आस्था’ के अपने (राम मन्दिर, समान नागरिक संहिता और धारा 370 जैसे) तमाम ‘बेस्ट सेलेबल मुद्दे’ हिन्द महासागर में डुबाए जा सकते हों (याद करें कि राजग गठन के समय केवल भाजपा ने अपने मुद्दे छोड़े थे, अन्य किसी भी दल ने अपना कोई मुद्दा नहीं छोड़ा था) तो ‘एक आदमी’ से जान छुड़ाना तो बिलकुल ही मुश्किल नहीं होगा। फिर, मोदी के बहाने एक बार फिर वही पुरानी (भाजपा और संघ की, एक साथ दोहरी सदस्यतावाली) बहस शुरु होने की आशंका बलवती हो जाएगी जिसके चलते जनता पार्टी का विघटन हुआ था! भाजपा इस वक्त तो यह जोखिम बिलकुल ही नहीं लेना चाहेगी।
इसलिए, जबकि खाँटी संघी और नादान भाजपाई भी मान रहे हों कि 2014 के लोकसभा चुनावों में भाजपा को स्पष्ट बहुमत मिलना नहीं (कोई भी 160-180 से आगे नहीं बढ़ रहा) और सहयोगी दलों की ‘अनुकम्पा’ के बिना दिल्ली दूर ही रहनी है तो फिर वही किया जाएगा जो करना पड़ेगा - मोदी के नाम से इस तरह मुक्ति पाई जाएगी जैसे कि कोई भी ‘समझदार’ आदमी, खटमलों भरी रजाई से पाता है - उसे फेंक कर। सो, बहुमत का नौ मन तेल नहीं मिलेगा और इसीलिए प्रधानमन्त्री पद पर, राधा के नाच की तरह मोदी नजर नहीं ही आएँगे।
लेकिन, राधा का और नाच का कोई न कोई रिश्ता है तो जरूर! नहीं होता तो भला यह कहावत कैसे बनती? तो ‘नाच’ के नाते से जुड़ी यह राधा यदि नाचेगी नहीं तो ठुमकेगी भी नहीं? इसके पाँव भी नहीं उठेंगे? क्या करेगी यह राधा?
बेबात की इसी बात में बात तलाश करने की कोशिश, अगली, ‘चकल्लसी’ कड़ी में।
सही विश्लेषण।
ReplyDeleteएकदम सहमत हैं तीनों किस्तों में आपके विश्लेषण से। अर्जुनसिंह के बारे में आपकी बात एकदम सही है। मोदी के लिए दिल्ली दूर ही नहीं, कठिन है। आज के मोदी के देखते हुए मुझे अक्सर भोपाल के भाजपा मुख्यालय में अकेले टहलते १९९७-९८ के दौर वाले मोदी याद आते हैं।
ReplyDeleteएकदम सहमत हैं तीनों किस्तों में आपके विश्लेषण से। अर्जुनसिंह के बारे में आपकी बात एकदम सही है। मोदी के लिए दिल्ली दूर ही नहीं, कठिन है। आज के मोदी के देखते हुए मुझे अक्सर भोपाल के भाजपा मुख्यालय में अकेले टहलते १९९७-९८ के दौर वाले मोदी याद आते हैं।
ReplyDeleteज्योतिष का कार्य बड़ा कठिन है, जनता कभी भी औरों के सोचे अनुसार कार्य नहीं करती है, वह अपना रंग दिखायेगी।
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा। जनता अच्छे-अच्छों के भ्रम दूर करती रही है। मैं बहुत आलसी हूँ। 'कठिन काम' करना तो दूर रहा, करने की सोचने की मेहनत भी नहीं कर पाता।
Deleteभले हि आपका विश्लेषण अपनी जगह पर सही है लेकिन ज़रा यह भी विश्लेषण कर लीजिए कि भाजपा नें अगर मोदी को आगे करके चुनाव नहीं लड़ा और उसको मोदी का सहारा नहीं मिला तो गटबंधन तो बाद कि बात है वो अपनी वर्तमान स्थति भी बरकरार रख पाएगी या नहीं मुझे तो इसमें भी संदेह हि नजर आता है !
ReplyDeleteआपसे असहमत होने की रंचमात्र भी गुंजाइश नहीं। आपकी टिप्पणी ने मेरी अगली, 'चकल्लसी' पोस्ट की पोल अभी से खोल दी है। मेरा काम बढा दिया है आपने। हॉं, इससे मेरा आनन्द भी बढ जाएगा।
Deleteआपकी जय हो।
'सत्ता-स्नान' क्या खूब कहा है . . . .
ReplyDeleteभाई साहब आपका विश्लेषण सो फी सदी सही है,भाजपा के पास नो मन तेल न
ReplyDeleteही है,इसलिए राधा नही नाचेगी ।
बहुत सार्थक विश्लेषण कियें है,आभार.
ReplyDeleteवाक्य विन्यास भाव प्रभाव जबरदस्त-
ReplyDeleteएक एक शब्द समझने की कोशिश की
आभार-
*सौदायिक बिन व्याहता, करने चली सिंगार |
लेकर आई मांग कर, गहने कई उधार |
गहने कई उधार, इधर पटना पटनायक |
खानम खाए खार, समझ ना पावे लायक |
बिन हाथी के ख़्वाब, सजाया हाथी हौदा |
^नइखे खुद में ताब, बड़ा मँहगा यह सौदा ||
*स्त्री-धन
^ नहीं
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Deleteसौदायिक बिन व्याहता, करने चली सिंगार |
Deleteगहने पहने मांग कर, लेती कई उधार |
(भाजपा की ओर इशारा)
लेती कई उधार, खफा पटना पटनायक |
खानम खाए खार, करे खारिज खलनायक |
(जदयू, बीजद , मुस्लिम)
हौदा हाथी रहित, साइकिल बिना घरौंदा |
नहीं हिन्दु में ताब, पटे ना मोदी सौदा ||
(माया-मुलायम)
सौदायिक= स्त्री-धन नइखे= नहीं
आपने बिलकुल सही कहा बहुत खूब
ReplyDeleteमेरी नई रचना
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
आपकी उत्कृष्ट प्रस्तुति बुधवारीय चर्चा मंच पर ।।
ReplyDeleteबैरागी भाई साहब अच्छा हुआ आपको डॉ नहीं बनाया गया , अन्यथा आप मरीज को आपरेशन टेबल पर झापड़ पहले मारते बाद में आपरेशन करते . लेकिन मैं आपसे ही इलाज करवाता . आज की राजनैतिक स्थिति का खुबसूरत विश्लेषण अजब गजब
ReplyDeleteबैरागी भाई साहब अच्छा हुआ आपको डॉ नहीं बनाया गया , अन्यथा आप मरीज को आपरेशन टेबल पर झापड़ पहले मारते बाद में आपरेशन करते . लेकिन मैं आपसे ही इलाज करवाता . आज की राजनैतिक स्थिति का खुबसूरत विश्लेषण अजब गजब
ReplyDeleteBhaijee ! soot na kapaas,julaahon me laththaalath......!
ReplyDeletesundar aur satik vyakhya " ak thi vo krishn ki radha,tha bhara aankh me pyar ka pani,kalyg me nav radhavo ki sukh gya hai aankh ka pani, bhitar-bhitar paksh aur pratipaksh mil gye,nahi sharam enko hai aani... radha nache ya mat nache ,hai inki ab khatam kahani..."(aziz jaunpuri)
ReplyDeleteबहुत खूब जनाब
ReplyDeleteमेरी नई रचना
ये कैसी मोहब्बत है
खुशबू
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ReplyDeleteमेरा भी मानना है कि कुछ भी कहा नही जा सकता कि ऊँट किस करवट बैठेगा । बहुत ज्यादा वोट हैं नौ जवानों के जिनाका संयम चुक गया है .
ReplyDeleteबाकी तो सब बात चुनाव मे जीती गई सीटो पर निर्भर करता है॥ आज जनता इस काँग्रेस सरकार से बहुत ज्यादा परेशान है और मुक्ति भी चाहती है। मध्यप्रदेश और उत्तर भारत की कहानी तो मुझे पता ही है लेकिन आपको यह बता दु की यही हाल दक्षिण भारत मे भी है और यहा मोदी का जलवा है। भाजपा की सबसे ज्यादा सीटे भी जब आई थी तब दक्षिण भारत मे इतनी नही थी ॥ लेकिन आज अगर मोदी को दक्षिण भारत दे दिया जाय तो यहा वो हो सकता है जो उत्तर भारत मे पैदा हुये और व्ही पूरा जीवन बिता चुके लोग कभी सपने मे भी नही सोच सकते है ॥ जनता एक बड़े नेता की तलाश मे है जिसने हीरो जैसा आकर्षण हो॥ मोदी मे वो सब है और अगर पूरी भाजपा मोदी के साथ ताकत के साथ चुनाव मे उतनी तो 200 की संख्या मुसकिल नही है॥ युवाओ के बीच मोदी का जलवा इतना है की मोदी को चुनाव प्रचार की जिम्मेवारी लेने दीजिये फिर देखिये, युवा आग उगलेगे । आज की जनता विशेष रूप से युवा वर्ग जानकारी भी रखता है और समाधान भी खोजता रहता है॥ मेरा विसवास मानिए, जनता मे इतना अंदर करेंट है की मुझे शोले का डायलाग याह आता है की 'लोहा गरम है , मार दो हथोड़ा"
ReplyDeleteसचिन त्रिपाठी
बैंग्लोर, कर्नाटक (मूल रूप से मध्यप्रदेश से )
facebook.com/sachin.tripathi18
आप वहीं हैं और जिस तरह से आप कह रहे हैं उससे अनुमान होता है कि आप जमीनी हकीकत ही बयान कर रहे होंगे। अपने कहे के प्रति मैं आत्म-मुग्ध बिलकुल ही नहीं हूँ क्योकि खूब अच्छी तरह जानता हूँ कि जनता ने अच्छे-अच्छों के मुगालते दूर किए हैं। मैं तो 'इस क्षण' जो देख रहा हूँ, वही कह रहा हूँ - कोई भविष्यवाणी नहीं कर रहा। यह भी जानता हूँ कि क्रिकेट और भारतीय राजनीति को लेकर भविष्यवाणी मूर्खता के सिवाय और कुछ नहीं।
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