राष्ट्रीय अस्मिता बड़े काम की चीज है। काम की होने के साथ-साथ यह मजेदार और सुविधाजनक भी है। बाजार में वो एक किसम की मिट्टी मिलती है ना - जिससे बच्चे अपने मनमाफिक खिलौने बना लेते हैं? बिलकुल वैसी ही है राष्ट्रीय अस्मिता। जैसी चाहे, वैसी शकल दे दो और मन भर जाए तो लोंदा बनाकर आलमारी में धर दो - अपनी सुविधा से कभी भी फिर से निकाल कर, मनमाफिक आकार देने के लिए। ईश्वर के बाद सम्भवतः राष्ट्रीय अस्मिता ही वह चीज है जिसके नाम से कुछ भी कर लेने की छूट चौबीसों घण्टे उपलब्ध रहती है।
राष्ट्रीय अस्मिता के नाम पर भावोन्माद पैदा कर देश में उपद्रव कराए जा सकते हैं, और सच्ची बात को नक्कारखाने में तूती की आवाज बनाया जा सकता है। इससे अपनी नई दुकान जमाई जा सकती है और जमी-जमाई दुकान को उखड़ने से बचाया जा सकता है।
इसके जरिये चुनाव की वैतरणी भी पार कर सत्ता हासिल करने की कोशिशें की जा सकती हैं। इसकी सबसे बड़ी सुविधा यह है कि इसके साथ चाहे जैसा बरताव कर लो, यह कभी, कुछ नहीं करती। कोई शिकायत नहीं करती। यह तो क्या, पूरे राष्ट्र में कोई भी, कुछ नहीं कर सकता, कुछ नहीं कर सकता। सबकी अपनी-अपनी राष्ट्रीय अस्मिता जो होती है! इस सुविधा के चलते ही इसे रखैल की तरह भी काम में लिया जा सकता है - जब चाहे, ‘रजनी-सुख’ ले लो और जब चाहे, दुत्कार कर, लात मार कर भगा दो। ‘निस्सीम अधिकार और शून्य उत्तरदायित्व’ की ऐसी सुविधा तथा इस सुविधा का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व उपयोग करने की सुविधा दुनिया में और कहाँ?
इसे मुद्दा बनाकर चुनाव लड़ा जा सकता है, संसद में अपना संख्या बल बढ़ाया जा सकता है। लेकिन भरपूर कोशिशों के बाद भी संख्या बल इतना न हो कि खुद सरकार बना सकें तो क्या किया जाए? बात जब राष्ट्रीय अस्मिता और सत्ता में से किसी एक को चुनने की हो तो यह राष्ट्रीय अस्मिता है जिसे ‘गंगा’ से ‘गटर’ बनाने में सबसे अधिक आसानी होती है। सत्ता-सिंहासन पर टिकने के लिए कुलबुला रहे अपने नितम्बों को राहत देने के लिए इसके सिवाय और कोई रास्ता भी तो नहीं! ऐसी राष्ट्रीय अस्मिता गई भाड़ में जो सत्ता में रोड़ा बने! कहा ना? राष्ट्रीय अस्मिता तो रखैल की तरह है! जब चाहो, भोग लो और जब चाहे लात मार कर भगा दो।
राष्ट्रीय अस्मिता को केवल रखैल की तरह ही नहीं, अमीबा की तरह भी काम में लिया जा सकता है। अमीबा की यह खूबी तो हर कोई जानता है कि वह ‘अमर’ होता है। मरता कभी नहीं। वह या तो जाग्रत होता है या सुप्त। जब अनुकूल परिस्थितियाँ हो तो जाग्रत हो जाता है और प्रतिकूल परिस्थितियों में ‘सुप्तावस्था’ ग्रहण कर लेता है। किन्तु दोनों में एक बड़ा फर्क है। अमीबा को बनाया नहीं जा सकता जब कि राष्ट्रीय अस्मिता को बनाया जा सकता है। अमीबा ‘प्राकृतिक’ होता है जबकि राष्ट्रीय अस्मिता ‘मानव-निर्मित’ होती है। जब चाहो, जिस बात को चाहो, राष्ट्रीय अस्मिता बना लो और अमीबा की तरह काम में ले लो। अमीबा सदैव प्रकृति-अधीन होता है जबकि राष्ट्रीय अस्मिता मुनष्य-अधीन। जब जरूरी हो तब कहो - ‘राष्ट्रीय अस्मिता! चल! उठ तो! जाग जा! हरकत में आ जा।’ और जब काम निकल जाए या काम न हो तो हड़का दो - ‘राष्ट्रीय अस्मिता! तू यहाँ क्या कर रही है? चल! भाग यहाँ से! जा अपनी कोठरी में। तेरी जरूरत होगी तो बुला लेंगे।’
जैसा कि पहले कहा गया है, ‘शून्य उत्तरदायित्व’ की सुविधा इसकी सबसे बड़ी खूबी है। इसी के चलते, इसके नाम पर उपद्रव करवा कर जिम्मेदारी से पल्ला झाड़ने में बड़ी आसानी होती है। फौरन कहा जा सकता है - ‘इस सबसे मेरा कोई लेना-देना नहीं। मेरा अपना कोई स्वार्थ नहीं। मैंने तो राष्ट्रीय अस्मिता की चिन्ता की थी। बाकी लोगों ने क्या किया, इससे मुझे क्या लेना-देना?’
चुनाव सामने हैं। राष्ट्रीय अस्मिता के लिए अनुकूल मौसम आ गया है। कोठरी में हकाली गई राष्ट्रीय अस्मिता के नाम की पुकारें लगने लगी हैं। ‘राष्ट्रीय अस्मिता-राष्ट्रीय अस्मिता’ के खेल का पारम्परिक मजमा लगाने की तैयारियाँ शुरु हो गई हैं। कुछ को इसमें मजा आएगा और कुछ सजा भुगतेंगे। सब अपनी-अपनी तैयारियों में लग गए हैं - भोगने या भुगतने के लिए।
सबकी अपनी-अपनी राष्ट्रीय अस्मिता होती है। कुछ के लिए राष्ट्रीय अस्मिता जीवन का चुनाव होती है। कुछ के लिए यह चुनावों में काम आती है।
सबकी अपनी-अपनी राष्ट्रीय अस्मिता जो होती है! इस सुविधा के चलते ही इसे रखैल की तरह भी काम में लिया जा सकता है - जब चाहे, ‘रजनी-सुख’ ले लो और जब चाहे, दुत्कार कर, लात मार कर भगा दो। ‘निस्सीम अधिकार और शून्य उत्तरदायित्व’ की ऐसी सुविधा तथा इस सुविधा का उच्छृंखल और निर्द्वन्द्व उपयोग करने की सुविधा दुनिया में और कहाँ?
ReplyDeleteपूरा पोस्ट मार्टम करती रचना आर पार दिखती बहुत सुन्दर रचना।
आप ने सारी बातें मेरे मुहँ से छीन लीं। बधाई!
ReplyDeleteबहुत समस्या है, अपनी अस्मिता पहले आये..
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