बड़ी देर कर दी मेहरबाँ आते-आते


गडकरी को यदि यही करना था तो पहले ही दिन कर लेते! तब न केवल खुद की इज्जत बचती बल्कि पार्टी की इज्जत भी बढ़ती। ‘नैतिकता’ शब्द को सार्थकता मिलती। 

‘पूर्ति समूह’ को लेकर जब उन पर पहली बार आर्थिक कदाचरण के आरोप लगे थे तब उन्होंने बड़ी दृढ़ता दिखाई थी। दो टूक शब्दों में कहा था कि उन्होंने कुछ भी अनुचित नहीं किया है इसलिए वे त्याग पत्र नहीं देंगे।

तब, किन्हीं गुरुमूर्तिजी से एक जाँच करवाई गई थी जिसके निष्कर्षों को, गड़करी के लिए क्लीन चिट कहा गया था। इसी क्लीन चिट को लेकर पूरी पार्टी उनके पीछे खड़ी हुई थी - हिमालय की तरह।

तब, 22 जनवरी को अचानक यह क्या हो गया?

अपने पलायन वक्तव्य में गडकरी ने कहा कि यूपीए सरकार और सीबीआई उनके विरुद्ध दुराशयतापूर्वक आरोप फैला रही है और वे अपने कारण पार्टी पर कोई लांछन नहीं लगने देना चाहते। इसलिए वे दूसरी बार अध्यक्ष नहीं बनेंगे।

बात गले नहीं उतरती।

22 जनवरी को आयकर विभाग ने मुम्बई में जिन आठ-दस (या बारह) कम्पनियों के यहाँ ‘सर्वे’ किया, उनमें से एक भी कम्पनी, ‘पूर्ति समूह’ का हिस्सा कभी नहीं रही। ये कम्पनियाँ तो ‘पूर्ति समूह’ की कम्पनियों में निवेशक कम्पनियाँ थीं। फिर, इन कम्पनियों के ‘सर्वे’ के निष्कर्ष भी सार्वजनिक नहीं हुए! न तो पूर्ति समूह पर और न ही गडकरी पर कोई नया आरोप लगा।

जब कोई नया आरोप नहीं लगा और गुरुमूर्ति की क्लीन चिट यथावत् है तो पार्टी पर लांछन भला अब कैसे लग गए? यदि लांछन लगे ही थे तो वे तो पहले ही दिन लग गए थे! तब तो ‘दाग अच्छे थे!’ पार्टी की छवि की चिन्ता इतनी देर से क्यों हुई?

सच तो यह है कि इस सबमें गडकरी का कोई दोष नहीं। वे खुद के दम पर भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बने ही नहीं थे इसीलिए अपनी रवानगी का समय तय करना भी उनकी मर्जी पर नहीं था। ‘उन्होंने’ कहा/चाहा - ‘भाजपा के राष्ट्रीय अध्यक्ष बन जाओ।’ गडकरी बन गए। आरोप लगे तो ‘उन्होंने’ कहा - ‘घबराओ मत! बने रहो।’ गडकरी बने रहे। अब ‘उन्होंने’ कहा - ‘त्याग-पत्र दे दो।’ गडकरी ने ‘अच्छे बच्चे’ की तरह, कहा मानते हुए त्याग-पत्र दे दिया। इस सबमें किसी का कुछ नहीं बिगड़ा। बस, गडकरी की हालत यह हो गई कि सौ कोड़े भी खाए और सौ प्याज भी।

जिनकी अपनी जड़ें नहीं होतीं, वे अन्धड़ तो दूर रहा, तेज हवा का एक झोंका भी झेल नहीं पाते। गमलों के पौधे, मालियों की कृपा पर ही जीवित रह पाते हैं और बरामदों की शोभा बने रह पाते हैं।  

पहले आते तो बात कुछ और ही होती। बड़ी देर कर दी मेहरबाँ आते-आते।

12 comments:

  1. देर आयद दुरुस्त आयद

    ReplyDelete
  2. koi maan se chhona nahi chahta.....majboori ka naam sukroya

    ReplyDelete
  3. फेस बुक पर श्री दिलीप काला, उज्‍जैन की टिप्‍पणी -

    बहुत खूब कहा।

    ReplyDelete
  4. बकरे की माँ कब तक खेर मनाती, एक दिन तो हलाल होना ही था-बकरे को । पर ईद पर हलाल होते तो बात कुछ और होती ।

    ReplyDelete
  5. जिनकी अपनी जड़ें नहीं होतीं, वे अन्धड़ तो दूर रहा, तेज हवा का एक झोंका भी झेल नहीं पाते। गमलों के पौधे, मालियों की कृपा पर ही जीवित रह पाते हैं और बरामदों की शोभा बने रह पाते हैं।
    EK SATY JISE SWIKAR KAR PANA ATI DUSHKAR

    ReplyDelete
  6. सच यही है..
    शुभकामनायें आपको ...

    ReplyDelete
  7. जिनकी अपनी जड़ें नहीं होतीं, वे अन्धड़ तो दूर रहा, तेज हवा का एक झोंका भी झेल नहीं पाते। गमलों के पौधे, मालियों की कृपा पर ही जीवित रह पाते हैं और बरामदों की शोभा बने रह पाते हैं।

    बिलकुल सही ...

    ReplyDelete
  8. सच है, देर आये दुरुस्त आये..

    ReplyDelete
  9. फेस बुक पर श्री भुवनेश दशोत्‍तर, भोपाल की टिप्‍पणी -

    सही कहा आपने। काश!ऐसे लोग कभी अपनी आत्मा की आवाज़ भी सुन पाते।

    ReplyDelete
  10. फेस बुक पर श्री रवि शर्मा, इन्‍दौर की टिप्‍पणी -

    आईटी के लट्ठ पड़े तो हट पड़े।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.