गए दिनों मेरे कस्बे के कुछ मोहल्ले, साम्प्रदायिक तनाव के कारण लगभग एक सप्ताह भर कर्फ्यूग्रस्त रहे। दोनों समुदायों के बीच भरपूर अविश्वास और सन्देह फैला रहा। साम्प्रदायिक सद्भाव बनाने के लिए प्रशासन तथा दोनों समुदायों के अनेक लोगों ने अपने-अपने स्तर पर प्रयास किए और सन्देह मिटाकर विश्वास लौटाने की कोशिश की। सतह पर तो अब सब कुछ सामान्य है किन्तु सतह के नीचे थेड़ी-बहुत खदबद अभी भी हो रही है।
सन्देह और अविश्वास के इन दिनों के बीच यहाँ प्रस्तुत घटना हमारी जड़ों की मजबूती उजागर कर भरोसा दिलाती है कि सब कुछ वैसा नहीं है जैसा कि गिनती के कुछ लोग साबित करना चाहते हैं।)
एक माँगू सो रहा था,
एक माँगू रो रहा था (भाग-1)
सात सितम्बर की रात की शुरुआत मुझ पर बहुत भारी पड़ी। उस रात मैं ‘एक नींद’ नहीं सो पाया। यादवजी की शकल रात भर मेरी आँखों के सामने बनी रही। कोई आठ - सवा आठ बजे वे आये थे। वे जब भी आते हैं, लगभग इसी समय आते हैं। किन्तु उस रात का उनका आना सामान्य नहीं था। उनसे बोला नहीं जा रहा था। आँखें, सावन की भरी-भरी बदलियों की तरह बरसने को उतावली हुई जा रही थीं। ऐसी दशा में पहली बार देखा था मैंने उन्हें। मुझे अकुलाहट हो आई। इतनी, कि पूछने की हिम्मत ही जाती रही। बैठे भी तो इस तरह मानो कोई महल भरभरा कर गिर रहा हो। बैठ तो गए किन्तु बैठ नहीं पा रहे थे। मेरी नजरों में सवालों का जंगल उग आया था और जबान लकवाग्रस्त हो गई थी। वे मेरी तरफ नहीं देख पा रहे थे। कमरे की छत को चीर कर मानो अनन्त आकाश को सम्बोधित कर रहे हों, इस तरह बोले - ‘भाई साहब! कल मैंने खुद को जनाजे में देखा। खुद को मिट्टी दी और खुद को दफनाया।’
इस अबूझ पहेली का जवाब यादवजी के पास ही था। उनके जवाब को जानने के लिए मैं आपको यहीं रोक कर कोई पाँच-सात बरस पीछे लिए जा रहा हूँ।
वह झुटपुटी शाम, रात का चोला पहन रही थी। मेरे कस्बे के माणक चौक पुलिस थाने में, दो गुटों में बँटे कोई आठ-दस लोग खड़े थे। दोनों पक्ष एक दूसरे को हमलावर बता रहे थे। पूरा किस्सा सुन थाना प्रभारी ने हेड मोहर्रिर से कहा - ‘दोनों की रिपोर्टें लिख कर भगाओ इन सबको।’ हेड साहब ने फौरन कहा माना और चिरपरिचित पुलिसिया अन्दाज में शुरु हो गए-
‘तेरा नाम?’
‘माँगीलाल कुँजड़ा।’
‘बाप का नाम?’
‘फारुख मोहम्मद कुँजड़ा।’
हेड साहब की कलम रुक गई। आँखे तरेरकर हड़काया - ‘स्साले मजाक करता है। गलत नाम लिखवाता है? जूते पड़ेंगे तो होश ठिकाने आ जाएँगे। बाप का नाम बता।’
‘वही तो बताया सा‘ब। फारुख मोहम्मद नाम है मेरे बाप का।’
हेड साहब चकरा गए। उन्होंने विरोधी गुट की ओर देखा तो जवाब मिला - ‘सही कह रहा है सा‘ब। इसके बाप का नाम फारुख मोहम्मद ही है।’ हेड साहब ने लिखा पढ़ी तो कर ली लेकिन बात उन्हें हजम नहीं हुई।
हजम होती भी कैसे? इसके लिए उन्हें लगभग तरेसठ-चैंसठ बरस पीछे जाना पड़ेगा। चलिए, हेड साहब को साथ लिए चलते हैं सन् 1946-47 में। लेकिन हेड साहब को 46-47 में छोड़कर, आप-हम उससे भी थोड़ा पीछे चलते हैं।
अब सन्-वन् का चक्कर छोड़िए। यह तब की बात है जब शंकरलालजी यादव गायें चराया करते थे और फखरु भाई ऊँट। दोनों की दोस्ती इन जानवरों की गवाही में ही जंगलों में परवान चढ़ी। शुरु-शुरु मे दोनों एक दूसरे को दूर-दूर से ही देखते थे। फिर दुआ-सलाम, राम-राम से होते हुए दोनों एक ही झाड़ के नीचे बैठकर रोटी खाने लगे। लेकिन दोनों को पता नहीं लगा कि अलग-अलग धर्मों के होते हुए भी कब दोनों एक दूसरे के चूल्हे पर बनी रोटियाँ और सब्जी अदल-बदल कर खाने लगे। मजे की बात यह रही कि इसके बावजूद दोनों के धर्मों ने इनका साथ नहीं छोड़ा। बाद में हुआ यह कि शंकरलालजी ने होटल खोल ली और फारुख भाई ने सब्जी का धन्धा शुरु कर दिया। काम-धन्धे से फुरसत मिलती तो फारुख भाई, शंकरलालजी की दुकान पहुँच जाते। शंकरलालजी बिना कुछ पूछे, मनुहार किए फारुख भाई को, (उस जमाने के चाल-चलन के मुताबिक) मुसलमानों के लिए अलग से रखे कप-प्लेट में चाय पेश करते। फारुख भाई सहजता से चाय पीते। अपने लिए अलग से कप-प्लेट रखे जाने पर उन्हें न तो कभी असहज लगा और न ही ऐतराज हुआ।
दोनों की दोस्ती पारिवारिकता में बदली। शंकरलालजी के घर में पीतल का पहला बरतन फारुख भाई ने खरीदा और फारुख भाई के घर के लिए चाँदी की पहली अँगूठी शंकरलालजी ने खरीदी। उसके बाद तो यह स्थायी व्यवहार हो गया - शंकरलालजी कभी कसारा बाजार नहीं गए और फारुख भाई ने कभी सराफा बाजार की शकल नहीं देखी। फारुख भाई की खरीदी थालियों में शंकरलालजी के कुनबे ने रसोई का जायका लिया और शंकरलालजी के खरीदे गहनों से फारुख भाई की बहन-बेटियों-बहुओं ने खानदान की इज्जत बढ़ाई।
घरोपे के घनत्व की कल्पना इस बात से ही की जा सकती है कि फारुख भाई के बच्चों के निकाह के दावतनामों में शंकरलालजी का नाम छपता और शंकरलालजी के परिवार में होनेवाले विवाहों के निमन्त्रण पत्रों में फारुख भाई का नाम ‘दर्शनाभिलाषियों’ में शामिल होता। दोनों परिवारों के निमन्त्रण पत्र हर बार सारे जमाने के लिए कातूहल और जिज्ञासा के विषय बने रहे।
(शेष भाग कल)
(बॉंया चित्र श्री मॉंगीलालजी यादव का और दाहिना चित्र स्वर्गीय श्री मॉंगीलालजी कुँजडा का)
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अभी तक की बात बहुत रोचक लग रही है। यादव जी का दर्द समझने की जिज्ञासा भी बढ गयी है। अगली कडी का बेसब्री से इन्तज़ार है।
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