शारीरिक बल से परास्त आत्म-बल

गुरुवार नौ सितम्बर वाली, इतना तो मेरे बस में है शीर्षक मेरी पोस्ट, उसी दिन साप्ताहिक उपग्रह में भी छपी थी। ऐसे मुद्दों के प्रति व्याप्त सार्वजनिक और सामाजिक उदासीनता के चलते मुझे पूरा भरोसा था कि इसका नोटिस नहीं लिया जाएगा। किन्तु मुझे सुखद आश्चर्य हुआ कि ऐसा नहीं हुआ।

रविवार, बारह सितम्बर को जब माँगीलालजी यादव के ‘अन्नपूर्णा मिष्ठान्न और भोजनालय’ में यादवजी और मैं गपिया रहे थे तथी ‘पेंशनर्स समाज’ और ‘वरिष्ठ जन मंच’ के कटारियाजी पहुँचे। उन्होंने सूचित किया कि मेरी बात उन्हें अच्छी लगी है और ‘महारानी के डण्डे’ का मैदानी विरोध करने के बारे में वे अपनी दोनों संस्थाओ के लोगों से बात करेंगे। जैसा कि दोनों संस्थाओं के नाम से ही स्पष्ट है, इन संस्थाओं के समस्त सदस्य साठ वर्ष से ऊपर के ही हैं। मैंने कहा - ‘आप यदि ऐसा करते हैं तो उसके लिए बनाए जानेवाले फ्लेक्स बैनर की व्यवस्था मेरी ओर से।’ यह जानकारी मैंने अपने कुछ और मित्रों को भी दी। सबने कहा कि समय और स्थान की सूचना मैं उन्हें दूँ, वे भी इस विरोध में शामिल होंगे।

‘महारानी का डण्डा’ पन्द्रह सितम्बर को मेरे कस्बे में आनेवाला था। याने, हमारे पास पूरे तीन दिन थे। मैं प्रसन्नता और उत्साह से सराबोर था। किन्तु ‘मेरे मन कछु और है, कर्ता के कछु और’ वाली बात चरितार्थ हो गई। हम लोग यह मैदानी विरोध नहीं कर पाए।

हुआ यूँ कि परिवार में उपजी आकस्मिकता के चलते कटारियाजी को, तेरह सितम्बर को भाग कर उज्जैन जाना पड़ा। वे लौटे चौदह की अपराह्न। उनके उज्जैन जाने की कोई सूचना वे दे नहीं पाए और इधर हम सब इसी भरोसे में रहे कि कटारियाजी सब कुछ देख ही रहे हैं।

कटारियाजी से सम्पर्क हुआ चौदह की शाम को लगभग सात बजे। मालूम हुआ, बात उसी मुकाम पर है जहाँ बारह सितम्बर को छूटी थी।

विचार विमर्श मेरे निवास पर ही शुरु हुआ। हम तीन लोगों (कटारियाजी, सूबेदारसिंहजी और मैं) ने ‘महारानी के डण्डे’ के यात्रा-कार्यक्रम की जानकारी लेनी शुरु की। मालूम हुआ कि ‘डण्डे’ का मध्य प्रदेश प्रवेश रतलाम से लगभग 45-50 किलोमीटर दूर स्थित ग्राम कुण्डा से होगा। वहाँ का घोषित समय अपराह्न चार बजे का था। वहाँ से रतलाम आने के बीच रास्ते भर, गाँव-गाँव में उसका स्वागत होगा - सरकार की ओर से। इस रास्ते में ही सैलाना कस्बा भी है। वहाँ पूरे कस्बे में ‘डण्डे’ की शोभा यात्रा और स्वागत का कार्यक्रम निर्धारित था। सड़क-दूरी और स्वागत, शोभा-यात्रा के कार्यक्रमों के आधार पर हमने अनुमान लगाया कि यदि सब कुछ निर्धारित समयानुसार हुआ तो भी ‘डण्डे‘ को रतलाम आते-आते, कम से कम सात तो बज ही जाएँगे। इस बीच यदि ‘इण्डियन टाइम’ की मानसिकता का असर हो गया तो रात के आठ-नौ भी बज सकते हैं।

‘डण्डे’ का आगमन-समय, दोनों संस्थाओं के सदस्यों को उनकी सेहत और दिनचर्या के कारण तनिक भी अनुकूल नहीं था। उस पर विलम्ब की आशंका! तब हमें प्रकाश व्यवस्था भी करनी पड़ेगी। प्रदर्शन के स्थान को लेकर भी उहापोह बनी हुई थी। फिर, देर इतनी हो गई थी कि समय और स्थान की जानकारी देनेवाली प्रेस विज्ञप्ति तैयार कर बाँटने तक इतनी देर हो जाएगी कि अखबारों में उसके छपने की सम्भावना शून्यवत रहेगी।

ऐसे में दो ही विकल्प रह गए थे - या तो हम तीनों ही, ‘डण्डे’ के रास्ते में कहीं खड़े होकर विरोध जताएँ और इसकी जानकारी यथा सम्भव अधिकाधिक मित्रों को दे दें। या फिर, विरोध प्रदर्शन का विचार निरस्त कर दें।

कटारियाजी और सुबेदारसिंहजी ने निर्णय मुझ पर छोड़ना चाहा तो मैंने कहा कि अन्तिम निर्णय वे ही लें क्योंकि मैंने तो पहले ही कह रखा है कि कोई विरोध करेगा तो मैं साथ में खड़ा रहूँगा।
दोनों ने बुझे मन से, स्थितिजन्य विवशता के अधीन इस विचार को निरस्त करने का निर्णय लिया। दोनों की शकलें कह रही थीं कि इस निर्णय से कहीं भी प्रसन्न नहीं हैं। सुबेदारसिंहजी हृदयाघात झेलकर शल्य क्रिया से गुजर चुके हैं और कटारियाजी भी, आयु-प्रभाव के चलते दिन भर में दो-चार गोलियाँ लेते हैं। दोनों संस्थाओं के सदस्यों की दशा भी न्यूनाधिक यही है। मैं भी उनके पीछे-पीछे ही चल रहा हूँ।

सो, हम तीन बूढ़ों का आत्म-बल, हमारे शाररिक बल के सामने परास्त हो गया और मेरा विचार तथा कटारियाजी का उत्साह वास्तविकता में नहीं बदल पाया।

मुझे केवल इसी बात का दुख नहीं है। दुख यह भी है कि निरर्थक बातों के लिए सड़क पर आनेवाले, और सड़क पर आ कर राष्ट्रीय सम्पत्ति को फूँक देनेवाले नौजवानों का ध्यान इस ओर क्यों नहीं गया?

मैं आशावादी हूँ। आज नहीं तो कल, उन्हें इस ओर ध्यान देना ही पड़ेगा।
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