हम में से कोई भी अहम् रहित नहीं। कुछ लोगों को इस बात का अहम् होता है कि उन्हें कोई अहम् नहीं है। इस अहम् के चलते कैसे-कैसे विचित्र व्यवहार होते हैं, इसकी एक बानगी मुझे अभी अभी ही मिली।
ब्राह्मणों की गली से लौट रहा था। सोचा, कान्ति बाबू से भी मिल लूँ। वे विधुर हैं। गया तो वे अकेले मिले। बहू के मायके में एक मंगल प्रसंग के सिलसिले में बेटा-बहू अजमेर गए हुए हैं। पोता-पोती थे तो यहीं किन्तु स्कूल गए हुए थे। मैं पहुँचा तो कान्ति बाबू खुश हो गए। मेरे लाख मना करने के बाद भी चाय बनाई। पूरे घर में सन्नाटे का साम्राज्य था। मैं कोई बात शुरु करता उससे पहले ही वे पूछ बैठे - ‘आपकी श्रीमतीजी जब मायके जाती हैं तो आप टिफिन कहाँ से मँगवाते हैं?’ मैंने बताया कि मैं टिफिन नहीं मँगवाता, पासवाली कॉलोनी स्थित भोजनालय पहुँच जाता हूँ। कान्ति बाबू ने पूछा - ‘क्यों? टिफिन क्यों नहीं मँगवाते?’ मैंने बताया कि भोजनालयवाले दोयम दर्जे का आटा वापरते हैं। घर आते-आते रोटियाँ तनिक कड़ी हो जाती हैं। सो, भोजनालय पहुँचकर, तवे से उतरती, गरम-गरम रोटियाँ खाने के लालच में वहीं चला जाता हूँ।
अचानक मुझे ध्यान आया कि सुबह के पौने ग्यारह बज रहे हैं और कान्ति बाबू के रसोई घर से कोई आवाज नहीं आ रही है। मैंने पूछा - ‘आज खाना बनानेवाली बाई नहीं आई?’ तनिक क्षुब्ध हो कान्ति बाबू ने बताया कि वे सवेरे से उसकी प्रतीक्षा कर रहे हैं। न तो वह आई न ही उसका कोई समाचार।
भोजन व्यवस्था को लेकर कान्ति बाबू की परेशानी वाजिब और स्वाभाविक थी। पोता-पोती दोपहर में लौटेंगे। उन्हें भोजन तैयार मिलना चाहिए। मैंने पूछा - ‘टिफिन की व्यवस्था करूँ?’ बोले - ‘नहीं। मैं ही कुछ न कुछ व्यवस्था कर लूँगा।’ तभी मुझे वीरेन्द्र का ध्यान आया। वीरेन्द्र उनका इकलौता छोटा भाई है और कान्ति बाबू के निवास से दो मुहल्ले दूर ही रहता है। मैंने कहा - ’आप वीरेन्द्र के यहाँ खबर क्यों नहीं कर देते? वह आप तीनों के भोजन की व्यवस्था कर देगा।’
मेरा सवाल कान्ति बाबू को अच्छा नहीं लगा। सरोष बोले - ‘क्यों? मैं खबर क्यों करुँ? चार दिन पहले से उसे पता है कि अजय और प्रीती को अजमेर जाना है। उसने खुद ने चिन्ता करके अपनी ओर से पूछना चाहिए!’ मुझे अच्छा नहीं लगा। हैरत हुई। कान्ति बाबू के जवाब ने मुझे काफी कुछ याद दिला दिया। मैंने तुर्की-ब-तुर्की कहा - ‘इससे पहले दो बार ऐसा हुआ कि जब आप अकेले थे तो एक बार आपने शर्माजी को और दूसरी बार पाठकजी को अपनी ओर से फोन करके कहा था कि आप उनके यहाँ भोजन करेंगे!’ मेरी बात कान्ति बाबू को अच्छी नहीं लगी।
बोले - ‘हाँ कहा था। वे मेरे दोस्त हैं। उन पर मेरा अधिकार है। मैं उनसे कभी भी, कुछ भी माँग सकता हूँ, कह सकता हूँ।’
मेरी हैरत बढ़ गई। कान्ति बाबू का व्यवहार मुझे अजीब और अप्रिय लगा। मैंने तनिक तेज और तीखी आवाज में कहा - ‘दोस्तों को तो आप निस्संकोच कह सकते हैं। उन पर अपना हक मानते हैं। और छोटे भाई से कहने में आपको हेठी लग रही है? उस पर तो आपका सबसे पहला हक है?’ कान्ति बाबू अब प्रकटतः नाराज हो गए। मानो मैं वीरेन्द्र का वकील होऊँ, इस तरह जवाब दिया - ‘उस पर मेरा हक है तो उसकी भी तो जिम्मेदारी बनती है कि वह मेरी खोज-खबर ले! मेरा ध्यान रखे। आप चाहते हैं कि मैं उसके सामने भिखारी की तरह हाथ फैला कर रोटी माँगूँ? मेरी भी अपनी इज्जत है कि नहीं?’
बात बिगड़ने लगी थी। मुझे लगा, मेरी बातों से अकारण ही वीरेन्द्र का नुकसान हो जाएगा और दोनों भाइयों में मन-मुटाव हो जाएगा। सो, मैंने कोई उत्तर नहीं दिया। चुपचाप कान्ति बाबू की ओर देखता रहा। हाँ, मेरी नजरों में हैरत, गुस्सा, क्षोभ साफ-साफ देखा जा सकता था। कान्ति बाबू भाँप गए। मुझे उकसाते हुए बोले - ‘हाँ! हाँ!! कह दीजिए जो आपके मन में आ रहा है।’ मैंने यथा सम्भव संयत स्वरों में कहा - ‘कान्ति बाबू! बेचारे वीरेन्द्र को क्या पता कि आपकी, भोजन बनानेवाली बाई आज नहीं आई है? वह तो यही मानकर चल रहा होगा कि आपके यहाँ सब कुछ सामान्य और रोज की तरह ठीक-ठाक चल रहा होगा।’
मेरी बात में शायद दम था। कान्ति बाबू फौरन ही (याने पलट कर) जवाब नहीं दे पाए। तनिक सोच कर (और बहुत ही धीमी आवाज में) बोले - ‘आपकी बात सही हो तो भी उसने कम से कम एक बार पूछना तो चाहिए कि हमारे भोजन की कुछ व्यवस्था है या नहीं?’
कान्ति बाबू की मुख-मुद्रा, धीमी आवाज और लचर दशा ने मुझे हँसा दिया। ‘आक्रमण ही श्रेष्ठ बचाव है’ वाली रणनीति पर अमल करते हुए मैंने (मानो, उनकी खिल्ली उड़ाते हुए) कहा - ‘आप मानें न मानें किन्तु आप वीरेन्द्र के साथ ज्यादती और अत्याचार कर रहे हैं। जो आपकी मर्जी पड़े कीजिए लेकिन आपका सोचना सही नहीं है।’ इस बार कान्ति बाबू कुछ भी नहीं बोले। वे सचमुच में निरुत्तर हो गए थे। मानो, रंगे हाथों पकड़ लिए गए हों, उनके झूठ की कलई खुल गई हो।
मैंने अपना ब्रीफकेस उठाया और चलने से पहले नमस्कार करने ही वाला था कि फोन की घण्टी बजी। मुझे रुकने का इशारा करते हुए कान्ति बाबू ने फोन उठाया। मैंने देखा, ‘हैलो’ कहने के बाद उनके चेहरे की रंगत बदलने लगी। उन्हें जवाब देने में कठिनाई हो रही थी। दूसरे छोर से क्या बोला जा रहा था यह तो मुझे पता नहीं चलना था किन्तु कान्ति बाबू की बातों से साफ हो गया था कि उधर से वीरेन्द्र बोल रहा था और कान्ति बाबू तथा पोते-पोती के भोजन की व्यवस्था उसी के यहाँ होने की सूचना दे रहा था।
सम्वाद समाप्ति के लिए बोला गया ‘अच्छा’, कान्ति बाबू के मुँह से ऐसे निकला मानो वे निष्प्राण हो गए हों। फोन का चोंगा ऐसे रखा मानो मुर्दे के हाथ में हरकत हुई हो।
चोंगा रखकर कान्ति बाबू, नीची नजरें किए, धरती देखने लगे। कहने की जरुरत नहीं कि मुझसे नजरें मिलाने का साहस उनमें नहीं रह गया था। इस क्षण मैं विजेता था। होना तो यह चाहिए था कि मैं कान्ति बाबू के मजे लेता, उन पर तंज कसता। किन्तु मैं चाह कर भी ऐसा नहीं कर पाया। मेरा जी भर आया। कान्ति बाबू पर दया भी आई और वीरेन्द्र जैसा छोटा भाई होने के कारण उन पर गुमान भी हो आया। मैंने पूछा -‘कहिए! कान्ति बाबू। कैसी रही? अब तो आप खुश?’ उनसे बोला नहीं गया। मुण्डी हिला कर ‘हाँ’ कहा।
अपनी सीमाएँ छोड़ कर, कान्ति बाबू से मिलनेवाली छूट का अशालीन उपयोग करते हुए, अपनी सम्पूर्ण सदाशयता से मैंने पूछा - ‘वीरेन्द्र से क्षमा माँग सकेंगे?’ मेरा यह कहना था कि कान्ति बाबू बिखर गए। आँखों ने तट-बन्ध तोड़ दिए। बहते स्वरों में, बमुश्किल बोले - ‘माँगनी तो चाहिए। किन्तु नहीं माँग सकूँगा।’
मुझे तो आना ही था। मैं आ गया।
यह अहम् जो कराए, कम है।
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nice write-up!
ReplyDelete‘माँगनी तो चाहिए। किन्तु नहीं माँग सकूँगा।’
ReplyDeleteहाँ जी, हम भारत में हैं - बड़े के पाँव पड़ो और छोटे के कान उमेठो.