भटे वाले भट्टजी


‘क्या कर रहे हो प्यारे भाई? मेरे दफ्तर आओ यार! फुरसत में बैठा हूँ। चाय पीएँगे, कुछ गपशप करेंगे।’ यह सोलह सितम्बर का दिन था और पूर्वाह्न लगभग साढ़े ग्यारह बजे का समय। मुझे आश्चर्य हुआ। इस समय वे फुरसत में? यह तो उनकी चरम व्यस्तता का समय होता है!

सम्पर्क सबसे बड़ा धन होता है किसी भी बीमा एजेण्ट का। ‘बीमा आग्रह की विषय वस्तु है’ वाले सूत्र वाक्य के अधीन बीमा एजेण्ट घर-घर जाकर लोगों से सम्पर्क करता है। किन्तु बीमा एजेण्ट की ‘स्थापित जन छवि’ ऐसी है कि बीमा एजेण्ट को अपने घर की ओर आता देख हर कोई (बीमा एजेण्ट के आने से पहले ही) घर से निकल जाना चाहता है - ‘स्साला! माथा खा जाएगा।’ जैसी उक्ति उच्चारते हुए। ऐसे में यदि कोई आगे चलकर किसी बीमा एजेण्ट को बुलाए तो एजेण्ट की बाँछे खुल जाती हैं। सो, मैं भी अपनी खुली बाँछों सहित (वैसे, बकौल श्रीलाल शुक्‍ल, पता नहीं, ये बाँछे शरीर के किस हिस्से में होती हैं?) उनके दफ्तर पहुँच गया।

उनका दफ्तर याने उनका स्कूल। वे छोटे-बड़े तीन स्कूलों के मालिक हैं, लेकिन कागजी और कानूनी तौर पर नहीं। कागजों में तीन समितियाँ उनके तीन स्कूल की मालिक हैं। यह अलग बात है कि ये तीनों समितियाँ उनकी पारिवारिक समितियाँ हैं। ऐसी समितियाँ, जिनके अधिकांश सदस्यों और पदाधिकारियों ने आज तक (अपनी समिति के स्वामित्ववाले) स्कूल का मुँह नहीं देखा। उनका दफ्तर उनके स्कूल जैसा नहीं था। दतर और स्कूल में बिलकुल वही और वैसा ही अन्तर था जैसा कि ‘इण्डिया’ और ‘भारत’ में है।

दफ्तर में वे अकेले बैठे थे। प्रधानाध्यापिका अपने कार्यालय में और अध्यापिकाएँ स्टाफ रूम में बैठी थीं। बस। सारे क्लास रूम खाली थे। एक भी बच्चा मौजूद नहीं था। स्कूल परिसर वैसे ही खूब बड़ा और खुला-खुला है। किन्तु सुनसान होने से और अधिक बड़ा लग रहा था। दो चपरासी ड्यूटी पर थे - एक प्रधानाध्यापिका के कार्यालय के बाहर और दूसरा ‘उनके’ दफ्तर के बाहर।

मैं पहुँचा तो उनके चेहरे पर वैसा ही सन्तोष भाव उभरा जैसा किसी आई. ए. एस. के चेहरे पर उभरता है - अपने किसी मातहत को, मूक पशुवत, प्रसन्नतापूर्वक आज्ञा-पालन करते देख कर। उन्होंने मेरी अगवानी तो की किन्तु इतने ठण्डेपन से कि मुझे सोचना पड़ा कि मैं क्यों आया हूँ - अपनी मर्जी से या उनके बुलावे पर?

‘आ गए? अच्छा किया। बैठो।’ कहते हुए घण्टी बजाई। चपरासी ऐसे आया मानो पहले से ही वहीं कमरे में था, अदृश्य, घण्टी बजने की प्रतीक्षा कर रहा हो और घण्टी बजते ही हवा में से प्रकट हुआ हो। उसकी ओर देखे बिना ही मुझसे पूछा - ‘क्या लोगे? चाय? काफी? या कुछ ठण्डा? या पहले कुछ नाश्ता हो जाए?’ उनकी आदतों से वाकिफ हूँ। वे पहले ही तय कर चुके होते हैं कि क्या मँगवाना है। पूछ कर तो महज रस्म अदायगी करते हैं। मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना चपरासी को आदेशित किया -‘प्रभाकर! दो लोगों के लिए खमण ले आओ और साथ में कॉफी। कॉफी कम शकर की और गरम, उबलती-उबलती।’

वे जब अपने दफ्तर में होते हैं तो अपनी ओर से बात शुरु नहीं करते। आदत ही नहीं। उनसे मिलने के लिए जो भी आता है, आते ही, उनके बिना कहे ही अपनी बात शुरु कर देता है। आनेवाले तमाम लोग बच्चों के पालक होते हैं। सो, यह भूलकर कि मुझे उन्होंने बुलाया है, भौंहे उचकाकर सवाल किया - ‘बोलो?’ उन्हें याद दिलाते हुए मैंने कहा - ‘मैं तो सुनने के लिए आया हूँ, आपके बुलाने पर।’ वे निमिष मात्र को भी नहीं शरमाए। बोले -‘स्कूल में सन्नाटा है। पूछोगे नहीं क्यों?’ मैंने कहा -‘बताने की उतावली तो आपको है किन्तु यदि आप चाहते हैं कि मैं पूछूँ? तो पूछ लेता हूँ। बताइए! स्कूल में सन्नाटा क्यों है?’

जैसा कि प्रत्येक स्कूल मालिक के साथ होता है, उन्होंने विस्तार को भी विस्तारित करते हुए सारी बात बताई। सार यह था कि अखिल भारतीय विद्यार्थी परिषद् ने शिक्षा के व्यवसायीकरण (परिषद् वालों को ‘व्यवसायीकरण’ और ‘व्यापारीकरण’ का अन्तर नहीं मालूम) के विरुद्ध आज पूरे प्रदेश के स्कूलों में बन्द का आह्वान किया है। कल ही आकर ‘हिन्दी में’ समझा गए थे। कह गए थे कि स्कूल सही-सलामत रहने देना या नहीं रहने देना, यह मुझ पर ही निर्भर करेगा। इसलिए स्कूल में सन्नाटा है।’ मालूम तो मुझे था ही। किन्तु, नई-नई खरीदी हुई, भारी-भरकम मँहगी, बनारसी साड़ी पहने किसी महिला से यदि कोई साड़ी के बारे में कुछ भी नहीं पूछे तो जो उसकी दशा होती है, वही दशा ‘उनकी’ भी हो जाती यदि मैं नहीं पूछता।

विस्तार को विस्तार देनेवाला अपना वक्तव्य समाप्त कर उन्होंने अचानक ही मुझसे सहायता माँग ली -‘तुम्हारा उठना-बैठना तो सबके बीच में है। इन्हें समझाओ यार! क्यों बन्द-वन्द कराते हैं? बच्चों का नुकसान होता है।’ उनकी यह याचना मेरे लिए किसी सदमे से कम नहीं थी। अचकचा कर पूछा -‘क्या समझाऊँ?’ तय कर पाना मुश्किल था कि वे मुझे लड़िया रहे थे या दुत्कार रहे थे, कुछ इसी तरह बोले -‘ अरे! यही यार! कि जो भी बदलाव चाहते हैं, वह अपने घर से शुरु करें।’ मुझे सचमुच में कुछ भी पल्ले नहीं पड़ा। मैं अहमक की तरह उनकी ओर देखने लगा। मानो बड़ी कठिनाई से मेरी पिटाई की हसरत को काबू में कर रहे हों, कुछ इस तरह बोले -‘अरे! यार, विद्यार्थी परिषद् याने संघ। संघवालों से कहो कि शिक्षा के व्यवसायीकरण का खात्मा खुद से शुरु कर दे।’ मैं फिर भी नहीं समझा। ‘तुम्हारी समझ पर भरोसा करना इतना खतरनाक होगा, यह मैंने नहीं सोचा था। अरे! भाई, (और एक के बाद एक, तड़ातड़ पाँच-सात नाम गिनाते हुए जारी रहे) ये सब के सब संघ के लोग हैं और स्कूल चलाते हैं। यदि संघ वाकई में मँहगी शिक्षा के खिलाफ है तो ये सब के सब अपने-अपने स्कूलों की फीस घटा दें। हम जैसे सारे स्कूलवालों को झख मारकर अपनी फीस घटानी पड़ेगी।’

मुद्दा अब समझ पड़ा मुझे। उन्होंने जो नाम गिनाए, वे सब मेरे कस्बे के प्रतिष्ठित और अच्छे-खासे मँहगे स्कूल हैं और सब के सब, ‘संघ’ के निष्ठावान, प्रतिदिन शाखा में जानेवाले लोगों के स्वामित्व के हैं। मुझे तर्क में दम लगा। सारे लोग मेरे परिचित तो हैं किन्तु यह बात कहनेवाला मैं कौन होता हूँ? सो मैंने कहा -‘माफ करें। यह कर पाना मेरे लिए मुमकिन नहीं। आप खुद ही यह नेक काम करें। वैसे भी, आप निजी स्कूलवालों का तो अच्छा-भला एक संगठन है। आप वहीं क्यों नहीं यह बात उठाते?’ ‘नहीं उठा सकता मेरे भाई! नहीं उठा सकता। सरकार इनकी, राज इनका। पता नहीं, मेरी बात की कितनी बड़ी कीमत चुकानी पड़ जाए मुझे।’ उनकी आवाज में दहशत थी। मुझे अजीब तो लगा ही, अच्छा भी नहीं लगा। मैंने तनिक रूखे स्वरों में पूछा -‘जब आप कुछ कह नहीं सकते तो दुखी क्यों हो रहे हैं? जो सबका होगा, वही आपका भी होगा।’

‘तुम बिलकुल ठीक कह रहे हो। चुप रहूँगा तो मेरा कोई नुकसान नहीं होगा। लेकिन इनका यह व्यवहार मुझे कचोटता है, गुस्सा दिलाता है।’ मैं तनिक चौंका। पूछा - ‘कौन सा व्यवहार?’

‘यार! तुम इतने नासमझ नहीं हो। शिक्षा के व्यवसायीकरण का यह विरोध ढोंग और दिखावा है। इन्हें केवल लोगों को बताना है कि ये लोगों के खैरख्वाह हैं। ये जताना-बताना चाहते हैं, लोगों का भला करना नहीं चाहते। देश की तो मालूम नहीं किन्तु पूरे प्रदेश में संघ प्रशासित स्कूल चल रहे हैं। यदि ये ईमानदार होते तो किसी से पूछे बिना और किसी को बताए बिना अपनी फीस कम कर देते। किन्तु ये खुद शिक्षा को मँहगे दाम पर बेचना चाहते हैं। फीस बढ़ानी होती है तो कोई कारण बताए बिना बढ़ा देते हैं। लेकिन कम करने की बात है तो देखो, सरकार का बहाना बना रहे हैं। याने बढ़ाएँगे तो खुद और कम करने की जिम्मेदारी सरकार की? ऐसे दिखा रहे हैं मानो ये तो कम करने को उतावले बैठे हैं किन्तु कम करें तो कैसे करें? सरकार खुद कम नहीं कर रही है!’

उनकी बात में तार्किक औचित्य लग रहा था। सहमति में मेरी मुण्डी हिलती देख बोले - ‘तुमने वो कहावत तो सुनी होगी?’ मैंने पूछा - ‘कौन सी?’ बोले - ‘अरे! वही। भटजी भटे खाएँ, औरों को परहेज बताएँ।’ मैंने कहा - ‘सुनी क्या, यह तो मैंने पचासों बार वापरी भी है।’ खुश होकर बोले - ‘ये संघवाले भी यही कर रहे हैं। पट्ठे, खुद मँहगी फीस वसूल रहे हैं, माल काट रहे हैं और परिषद् वालों से हंगामा करवा रहे हैं, पूरे प्रदेश के स्कूल बन्द करवा रहे हैं। और अपनी सरकार है तो खुल कर खेल रहे हैं।’

उनकी बात तो सही थी किन्तु उनका दर्द मैं अभी भी समझ नहीं पा रहा था। इस बीच, प्रभाकर खमण और कॉफी कभी की रख चुका था। खमण स्वादिष्ट थे और कॉफी सचमुच में उबलती-उबलती, गरम थी। मैं खमण साफ कर, कॉफी का आनन्द ले चुका था। और वे? उनकी खमण की प्लेट ज्यों की त्यों थी और उनकी, ‘उबलती-उबलती कॉफी’ अब ‘कोल्ड कॉफी’ का दर्जा हासिल कर चुकी थी। वे गमगीन बैठे थे। मेरे लिए करने को कुछ भी नहीं था, सिवाय उनकी बात से सहमत होकर उन्हें नैतिक समर्थन देने के। वह तो मैं कर ही चुका था।

मैंने सुस्वादु अल्पाहार के लिए उन्हें धन्यवाद दिया, अपना ब्रीफ केस उठाया, नमस्कार किया और लौट पड़ा। सीढ़ियाँ उतरते हुए मुझे अपने पीछे किसी और की भी पदचाप सुनाई दी। पल भर ठिठक कर मैंने अपने पीछे देखा। वहाँ कोई नहीं था। मैं सीढ़ियाँ उतरने लगा। वही पदचाप मुझे फिर सुनाई दी।

इस बार मैंने पलट कर नहीं देखा। समझ गया। ‘भट्टजी’ की पदचाप थी वह।

(मूल पोस्‍ट में, 'बाँछो' को लेकर मैंने श्री शरद जोशी का उल्‍लेख किया था जबकि यह श्री श्रीलाल शुक्‍ल की उक्ति है। ब्‍लॉगर श्री बृजमोहनजी श्रीवास्‍तव ने मेरी यह गलती पकडी। मैं श्रीवास्‍तवजी का आभारी हूँ।)
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2 comments:

  1. sir jee ye doosre pera me sharad joshi ka nam kat kr Shrilal Shukl kar deejiye .Thanks

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  2. सारा किस्सा आपकी रोचक शैली में पढ़कर आनंद आ गया मगर यह बात समझा नहीं कि महंगी शिक्षा का धंधा करने वाले अपने ही बन्दों को इसका विरोध कैसे करने दे रहे हैं - एक बार बात हाथ से निकल गयी तो संभालेगी कैसे?

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