हमारी धार्मिक भावनाएँ सचमुच में विचित्र हैं। जिन बातों पर इन्हें अपनी सम्पूर्ण तीव्रता से भड़कना (भड़कना ही नहीं, भभकना) चाहिए, उन बातों पर इनमें सिहरन भी नहीं होती और जिन बातों की अनदेखी करने की बुद्धिमत्ता बरतनी चाहिए, उन पर ये आग लगा देती हैं।
तीन और चार सितम्बर की ‘सेतु-रात्रि’ में, मेरे कस्बे के एक मुहल्ले की मस्जिद की बाहरी दीवार पर किसी ने गोबर फेंक दिया। प्रतिक्रिया में भड़की धार्मिक भावनाओं के परिणामस्वरुप, 12-15 मुहल्लों में कर्यू लगा। कर्यू में पहली ढील पूरे तैंतीस घण्टों के बाद दी जा सकी, वह भी मात्र दो घण्टों के लिए। कर्यू को पूरी तरह से हटाने लायक दशा छठवें दिन हो पाई। इस बीच जैसा कि होता है, पुलिसिया कार्रवाई को लेकर आरोप-प्रत्यारोप लगे। मुस्लिम समुदाय ने पारम्परिक रूप से ईद न मना कर अपना आक्रोश जताया। लोग न केवल सिवैयों से वंचित रहे अपितु गणेश चतुर्थी के मोदकों की मीठास में भी भरपूर कमी आई। स्थिति अभी नियन्त्रण में अवश्य है किन्तु सामान्य नहीं। केवल उन 12-15 मुहल्लों के ही नहीं, पूरे कस्बे के लोग अभी भी भयभीत हैं-अनन्त चतुर्दशी का जन समारोह सामने जो है।
यह घटना मस्जिद से जुड़ी है किन्तु यह किसी मन्दिर की भी हो सकती थी। तब भी यही सब होता। अन्तर केवल प्रत्यक्षतः प्रभावित होनेवाले समुदाय का होता।
इस घटना को याद रखते हुए अब जरा (‘जनसत्ता’ के दिनांक 22 अगस्त 2010 के रविवारी परिशिष्ट में प्रकाशित) महिलाओं के प्रति हुए अपराधों के इन आँकड़ों को ध्यान से पढ़ें - 2004 से लेकर 2008 की अवधि में महिलाओं के विरुद्ध हुए अपराधों की संख्या क्रमशः 154333, 155553, 164756, 185312 और 195856 थी। अर्थात् महिलाओं के विरुद्ध हुए अपराधों में प्रति वर्ष बढ़ोतरी हुई। इन आँकड़ों के अनुसार 2004 की तुलना में 2008 में अपराधों की वृद्धि दर 26 प्रतिशत रही।
उपरोक्त आँकड़े सभी प्रकार के अपराधों के संयुक्त आँकड़े हैं। किन्तु ‘अपराधों के प्रकार’ में ‘प्रत्येक प्रकार’ में भी वृद्धि हुई। 2007 में बलात्कार के 20737 प्रकरण दर्ज हुए थे जो 2008 में बढ़कर 21467 हो गए। छेड़छाड़ के मामले 38734 से बढ़कर 40413, यौन उत्पीड़न अपराध 10950 से बढ़कर 12214, पति/सम्बन्धियों द्वारा निर्दयता बरतने के मामले 75930 से बढ़कर 81344, दहेज मृत्यु के मामले 8093 से बढ़कर 8172 हो गए। प्रतिशत के मान से 2007 के मुकाबले 2008 में बलात्कारों में 3.5, अपहरणों में 12.4, छेड़छाड़ में 4.3, यौन उत्पीड़न मे 11.5, पति/सम्बन्धियों की निर्दयता में 7.1 तथा दहेज मौतों में एक प्रतिशत की वृद्धि हुई।
वर्ष 2008 में, देश में महिलाओं के विरुद्ध प्रतिदिन 537 अपराध हुए। अर्थात् प्रति घण्टे 22 अपराध। देश में प्रतिदिन बलात्कार के 59 दर्ज होते हैं, 63 महिलाओं का अपहरण होता है, 33 महिलाएँ यौन उत्पीड़न की शिकार होती हैं, 111 महिलाओं से छोड़छाड़ की जाती है, 223 महिलाएँ पति/रिश्तेदारों से प्रताड़ित होती हैं, 22 महिलाओं की दहेज हत्या होती है और 15 बहुओं को अधिक दहेज की माँग के कारण उत्पीड़ित किया जाता है।
मेरे कस्बे की घटना को और उपरोक्त आँकड़ों को याद रखते हुए, अपने दिमाग पर भरपूर जोर दीजिए। लाख कोशिशों के बाद भी याद नहीं आएगा कि उपरोक्त घटनाओं ने किसी समुदाय की धार्मिक भावनाओं को आहत किया हो। यहाँ यह याद रखिएगा कि इन महिलाओं में सभी धर्मों, वर्गों, समाजों, जातियों की महिलाएँ शामिल हैं।
हमारी धार्मिक भावनाएँ सचमुच में विचित्र हैं। कोई मुसलमान यदि किसी हिन्दू स्त्री की तरफ आँख उठाकर देख ले तो भूचाल आ जाता है और कोई हिन्दू किसी मुसलमान स्त्री को बुरी नजर से देख ले तो इस्लाम खतरे में आ जाता है। किन्तु हिन्दू महिलाओं को हिन्दू समाज के ही लोग निर्वस्त्र कर गाँव में घुमाते हैं तो किसी हिन्दू की धार्मिक भावनाएँ आहत नहीं होतीं और मुसलमान औरतों के झूठे हस्ताक्षर बनाकर मुल्लों-मौलवियों द्वारा तलाकनामे जारी कर दिए जाते हैं तो किसी भी मुसलमान की धार्मिक भावनाएँ आहत नहीं होतीं। क्या मतलब निकाला जाए? यही कि हमारा धर्म तभी खतरे में आता है जब कोई विधर्मी उस पर अंगुली उठाए? या फिर यह कि किसी धर्म का अपमान करने का अधिकार उस धर्म के ही अनुयायियों के पास सुरक्षित है? याने हिन्दू स्त्री पर कोई हिन्दू बलात्कार करे या मुसलमान स्त्री पर कोई मुसलमान बलात्कार करे तो वह अधर्म नहीं होता?
हमारे किसी धार्मिक ग्रन्थ या प्रतीक पर कोई अंगुली उठा दे तो हम मरने-मारने पर उतर आते हैं किन्तु उन ग्रन्थों के निर्देशों/आदेशों पर अमल करने के मामले में हमारा आचरण क्या है? हम अपने-अपने धर्म ग्रन्थों को, रंगीन कपड़ों में कस कर बाँध कर रखते हैं (इतना कस कर कि खोलने में भरपूर श्रम करना पड़े क्यों कि खोल दिए तो पढ़ने पड़ेंगे और पढ़ लिए तो फिर उनका कहा मानना पड़ेगा) और उनकी पूजा करते हैं। उनके निर्देशों/आदेशों की अवहेलना हम पूरी बेशर्मी से करेंगे किन्तु कोई विधर्मी उन पर अंगुली उठाए, यह हम बिलकुल सहन नहीं करेंगे। याने? मतलब वही कि हमारे धर्म ग्रन्थों की अवमानना, उपेक्षा करने का अधिकार हमें ही है, किसी विधर्मी को नहीं।
प्रायः सभी धर्मों ने ब्याज का निषेध किया है। किन्तु ब्याजखोरी के कारण पूरे देश में असंख्य लोग आत्महत्या करने की दशा में आ जाते हैं। सरकारों ने ब्याजखोरी के विरुद्ध कानून बना रखे हैं किन्तु ब्याजखोरी न केवल बनी हुई है अपितु अधिक सेहतमन्द भी हो रही है। समय-समय पर ब्याजखोर साहूकारों पर छापे पड़ते हैं, गिरफ्तारियाँ होती हैं। किन्तु इस मुद्ददे पर किसी भी समुदाय की धार्मिक भावनाएँ आज तक आहत नहीं हुईं।
ये तो कुछ ही उदाहरण हैं। यदि बारीक नजर से देखना शुरु किया जाए तो ‘धार्मिक भावनाओं’ के आहत होने के नाम पर हमारी कारगुजारियों का ऐसा ग्रन्थ रचा जा सकता है जिसके वार्षिक खण्ड निरन्तर प्रकाशित करने पड़ जाएँ।
धार्मिक भावानाओं के नाम पर जो ध्वंस किया जाता है, वह अधर्म के सिवाय और कुछ भी नहीं होता। इस नाम पर यदि यही सब कुछ किया जाता रहा तो लोग धर्मविहीन रहना पसन्द करने लगेंगे और धार्मिक भावनाओं का नाम लेते ही मैले से बजबजाती गटर की बदबू नथुनों में घुस आएगी।
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लेख पसंद आया, धर्मविहीन होने पर लोग नये मुद्दे तलाश कर लेंगे।
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