आसार अच्छे नहीं हैं। अण्णा विफल होते नजर आ रहे हैं। उनकी शब्दावली और शैली, उनकी विफलता की पूर्व घोषणा करती लग रही है।
अण्णा के नाम के साथ गाँधी का नाम सहज ही जुड़ जाता है। किन्तु आज ‘गाँधी तत्व’ अण्णा के अभियान के आसपास तो क्या, कोसों दूर तक भी नजर नहीं आ रहा। अण्णा को किसी हीन महत्वाकांक्षी, सड़कछाप राजनेता की तरह पेशेवर आरोप लगाते देखना किसी दुर्भाग्य से कम नहीं लग रहा। वे (सिब्बल पर) व्यक्तिगत आरोप-प्रतिरोप में व्यस्त हो गए हैं, (मनमोहनसिंह सहित अन्य नेताओं की) खिल्ली उड़ाने में अपार आनन्द का अनुभव करते नजर आ रहे हैं। विनम्रता का स्थान दम्भोक्तियाँ लेती नजर आ रही हैं। उन्होंने मानो अपने आप को अभी से ही ‘शहीद’ मान लिया है और इसी ‘शहीदाना मुद्रा’ में वे बातें कर रहे हैं। उनका ‘आग्रह’, ‘हठ’ में बदल गया है। ‘जन लोकपाल’ के अपने मसवदे की पैरवी के बजाय सरकार की आलोचना पहली प्राथमिकता पर आ गई है। ‘गाँधी’ में यह सब तो क्या, इनमें से कुछ भी नहीं है! ‘गाँधी’ में तो आत्म चिन्तन, आत्म मन्थन, आत्म विश्लेषण, आत्म शुद्धि और आत्मोत्थान के सिवाय और कुछ है ही नहीं! लेकिन अण्णा में फिलवक्त तो इनमें से कुछ भी नजर नहीं आ रहा।
अण्णा वही कहने लगे हैं और करने लगे हैं जो सरकार उनसे कहलवाना और करवाना चाहती थी। सरकार ने अण्णा के आन्दोलन का उद्ददेश्य, सरकार के विरुद्ध वातावरण निर्मित करना बताया था। ताज्जुब है कि अण्णा ने सरकार की इस धारणा को सार्वजनिक रूप से सच साबित कर दिया। उन्होंने कहा कि उनका आन्दोलन आन्दोलन सरकार के वरुद्ध है। संसद की अवमानना से बचने के लिए अण्णा ने यह बात कही थी। काँग्रेस और संप्रग के विरोधी दलों की सहानुभूति प्राप्त करने की रणनीति के तहत भले ही अण्णा ने ऐसा कहा हो किन्तु वास्तविकता तो यही है कि अण्णा का विरोध संसद से ही है!
अण्णा यदि यह माने बैठे हैं कि काँग्रेस और संप्रग के घटक दलों को छोड़ कर तमाम दल उनके, जन लोकपाल के मसवदे का आँख मूँदकर समर्थन करने को उतावले बैठे हैं तो अण्णा की इस मासूमियत पर सहानुभूति ही जताई जा सकती है। जन लोकपाल मसवदे के जिन 6 मुद्दों को अण्णा ने अपनी नाक का सवाल बना लिया है, उन छहों मुद्दों पर, प्रतिपक्षी दलों में से एक भी दल अण्णा के साथ नहीं है। प्रधानमन्त्री को लोकपाल के दायरे में लानेवाले केवल एक मुद्दे पर भाजपा सहित गिनती के कुछ दल अवश्य अण्णा के साथ हैं किन्तु यह उनकी सदाशयता और ईमानदारी नहीं, राजनीतिक मजबूरी (या कि राजनीति की ‘रणनीतिक धूर्तता’) है। ध्यान से देखें तो साफ नजर आ जाता है कि इस माँग का समर्थन करनेवाले किसी भी दल का प्रधानमन्त्री इस देश में कभी नहीं बन सकता।
यह सच है कि केन्द्र सरकार इस समय ‘सर्वाधिक भयभीत और कमजोर सरकार’ है किन्तु अण्णा के अभियान का दिशा परिवर्तन उसकी ताकत बनता जा रहा है। रामदेव की तरह ही अण्णा भी बड़बोलेपन के शिकार हो रहे हैं, दम्भोक्तियों/गर्वोक्तियों सहित आरोप लगा रहे हैं, अपनी बात कम और सरकार की खिंचाई ज्यादा कर रहे हैं। अण्णा ‘अतिरेकी आत्म मुग्धता’ के शिकार लग रहे हैं। वे यह भूल जाना चाह रहे हैं जिस संसद का विरोध न करने की दुहाई वे दे रहे हैं, उस संसद में एक भी दल, उनके जन लोकपाल के मसवदे के छहों विवादास्पद मुद्दों पर उनके साथ नहीं है।
वास्तविकता यह है कि तनिक धूर्तता बरतते हुए केन्द्र सरकार यदि, अण्णा के जन लोकपाल मसवदे को ज्यों का त्यों संसद में पेश कर दे और व्हीप का प्रतिबन्ध हटा कर सांसदों को ‘आत्मा की आवाज’ पर मतदान करने की छूट दे दे तो कोई ताज्जुब नहीं कि इस मसवदे के पक्ष में एक भी मत न पड़े।
अण्णा को वास्तविकताएँ समझने की कोशिश करनी चाहिए। इसके लिए वे तैयार न हों तो उनके आसपासवालों को यह कोशिश करनी चाहिए। जन लोकपाल का मसवदा जस का तस स्वीकार हो न हो, इसके जरिए अण्णा ने, भ्रष्टाचार के प्रति केन्द्र सरकार की बेशर्मी, नंगई और नंगापन अत्यन्त प्रभावशीलता से प्रमाणित कर दी है। अभियान अपने मुकाम पर भले न पहुँचे किन्तु इसका मकसद तो पूरा हो गया है। यह जन उद्ववेलन अब शान्त होनेवाला नहीं है। किन्तु अण्णा को यह हकीकत माननी ही पड़ेगी कि उनके मसविदे को कानून बनाने का रास्ता सरकार से होकर नहीं, संसद से होकर जाता है। इस अभियान को, संसद में ऐसी अनुकूल स्थितियाँ बनाने की दिशा में मोड़ने पर विचार किया जाना चाहिए। अण्णा मानें, न मानें, चाहें, न चाहें, हकीकत तो यही है। परोक्षतः (संसद की अनिवार्यता की) इस बात को अण्णा खुद स्वीकार भी कर रहे हैं। सिब्बल और राहुल गाँधी के निर्वाचन क्षेत्रों सहित देश के अन्य नगरों में वे जन लोकपाल पर सार्वजनिक मतदान करवा कर लोगों की राय ले रहे हैं। एक ओर तो सार्वजनिक मतदान के जरिए अपने मसविदे के पक्ष में (और सिब्बल तथा राहुल गाँधी के विपक्ष में) जन भावना की बात कहना और दूसरी ओर संसद से बचने की कोशिश करना, समूचे अभियान की मंशा को कटघरे में खड़ा करता है।
यह बात याद रखी जानी चाहिए कि इस अभियान से जुड़ने के लिए अण्णा खुद चल कर ‘सिविल सोसायटी’ के पास नहीं आए थे। केजरीवाल, भूषण, बेदी आदि उनके पास गए थे क्योंकि इन्हें ऐसा व्यक्ति और व्यक्तित्व चाहिए था जिस पर लोग विश्वास कर सकें। अण्णा को न्यौतनेवाले सारे लोग इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि इनमें से एक के भी पास न तो ‘जनाकर्षण’ (मास अपील) है और न ही जन विश्वास (मास फेथ)। अण्णा में ‘जनाकर्षण’ (मास अपील) भले ही कम रह हो किन्तु जन विश्वास (मास फेथ) भरपूर था और अब भी है। हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं। हम खुद शहीद हों न हों, गर्व करने के लिए हमें ‘शहीद’ चाहिए होते हैं। सारा देश अत्यधिक उत्सुकता और अधीरता से एक शहादत की प्रतीक्षा कर रहा है। विडम्बना है कि इस प्रतीक्षा को अण्णा अपने पक्ष में प्रचण्ड जन समर्थन मान कर चल रहे हैं।
भविष्य के गर्त में क्या छुपा है, कोई नहीं जानता। ईश्वर अणा को शतायु प्रदान करे। किन्तु यदि दुर्भाग्यवश अण्णा को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा तो वे शहीद हों न हों, केजरीवालों, भूषणों, बेदियों आदि की इच्छा-वेदी के बलि-पुरुष अवश्य बन जाएँगे।
@ केन्द्र सरकार इस समय ‘सर्वाधिक भयभीत और कमजोर सरकार’ है- सरकारों की सजगता को इस नजरिये से भी देखा जाना संभव होता है.
ReplyDeleteआपका संशय एकदम सही है. आंदोलन ने कुटिल राजनीति की राह पकड़ ली है तो इसका असफल होना तय है.
ReplyDelete# "यह बात याद रखी जानी चाहिए कि इस अभियान से जुड़ने के लिए अण्णा खुद चल कर ‘सिविल सोसायटी’ के पास नहीं आए थे। केजरीवाल, भूषण, बेदी आदि उनके पास गए थे क्योंकि इन्हें ऐसा व्यक्ति और व्यक्तित्व चाहिए था जिस पर लोग विश्वास कर सकें। अण्णा को न्यौतनेवाले सारे लोग इस बात से बखूबी वाकिफ थे कि इनमें से एक के भी पास न तो ‘जनाकर्षण’ (मास अपील) है और न ही जन विश्वास (मास फेथ)। अण्णा में ‘जनाकर्षण’ (मास अपील) भले ही कम रह हो किन्तु जन विश्वास (मास फेथ) भरपूर था और अब भी है। हम ‘आदर्श अनुप्रेरित समाज’ हैं। हम खुद शहीद हों न हों, गर्व करने के लिए हमें ‘शहीद’ चाहिए होते हैं। सारा देश अत्यधिक उत्सुकता और अधीरता से एक शहादत की प्रतीक्षा कर रहा है। विडम्बना है कि इस प्रतीक्षा को अण्णा अपने पक्ष में प्रचण्ड जन समर्थन मान कर चल रहे हैं।"
ReplyDelete# "भविष्य के गर्त में क्या छुपा है, कोई नहीं जानता। ईश्वर अणा को शतायु प्रदान करे। किन्तु यदि दुर्भाग्यवश अण्णा को अपने प्राणों से हाथ धोना पड़ा तो वे शहीद हों न हों, केजरीवालों, भूषणों, बेदियों आदि की इच्छा-वेदी के बलि-पुरुष अवश्य बन जाएँगे।"
विचारणीय विश्लेषण. एसी निर्भीक अभिव्यक्ति का नैतिक साहस आपकी लेखनी की विशिष्टता है. साधुवाद.
तापमान बढ़ रहा है, सब सकुशल हो, यही प्रतीक्षा है।
ReplyDelete@ वास्तविकता यह है कि तनिक धूर्तता बरतते हुए केन्द्र सरकार यदि, अण्णा के जन लोकपाल मसवदे को ज्यों का त्यों संसद में पेश कर दे
ReplyDeleteऐसी धूर्तता बरतने के लिये भी उस कोटि का साहस चाहिये जिसकी कल्पना भी बेईमान और धूर्त कर नहीं सकते।
@Smart Indian - स्मार्ट इंडियन
ReplyDeleteजब विवेक नष्ट हो जाए और बुध्दि भ्रष्ट तो ऐसा आत्मघाती साहस करनेवाले कम नहीं हैं हमारे अतीत में।
मुझे भी लग रहा है कि अन्ना को आधुनिक 'दधिची' के रूप में इस्तेमाल न कर लिया जाये. सिर्फ़ उनके द्वारा ही नहीं जो साथ दिख रहे हैं, बल्कि उनके द्वारा भी जो छुपे हो सकते हैं.
ReplyDeleteऔर रही बात कानून की तो कांग्रेस चाहती तो इसे 'महिला आरक्षण विधेयक' का भी हश्र पहुंचा सकती थी. मगर शतरंज के इस खेल में फिलहाल तो दबाव में दिख रही है वो.