सोच रहा हूँ, एक मठ या आश्रम खोल ही लूँ।
उम्र बढ़ती जा रही है, शारीरिक क्षमता दिन-प्रति-दिन कम होती जा रही है, चिढ़-झुंझलाहट जल्दी आने लगी है, लेप टॉप और ब्लेकबेरी से लैस नौजवान बीमा एजेण्टों से मुकाबला करना कठिन होता जा रहा है। किन्तु अभी छोटे बेटे की पढ़ाई और विवाह की जिम्मेदारियाँ माथे पर हैं। काम तो करना ही पड़ेगा! तो मठ या आश्रम ही खोलने में हर्ज ही क्या है?
न्यूनतम निवेश, शून्य जोखिम और प्रप्ति के नाम पर माल ही माल। शुरुआत के लिए कमरा तो बहुत बड़ा हो जाएगा, बरामदे से ही काम चलाया जा सकता है। मुझे तो बस शुरुआत करनी है, बाकी तो भक्तगण स्वयम् ही सब सम्हाल लेंगे और जल्दी ही मुझे बरामदे से उठाकर, हाथी-घोड़ा-पालकी वाली शोभा-यात्रा सहित, ढोल ढमाकों के साथ, भरपूर क्षेत्रफलवाले सरकारी भूखण्ड पर अतिक्रमण कर बनाए गए मठ/आश्रम में बैठा देंगे।
अपने चारों ओर देखता हूँ, धर्म का झण्डा थामे बैठे गुरुओं/महाराजों का आचरण और उनसे जुड़ी नाना प्रकार की असंख्य घटनाओं को देखता हूँ तो अत्यधिक आश्वस्त हो, आश्रम/मठ खोलने की इच्छा से पेट में मरोड़ें उठने लगती हैं।
दक्षिण के एक गुरु ने मुझे सर्वाधिक प्रेरित किया। युवतियों को इनकी शिष्या बनने के लिए स्टाम्प पर किए गए अनुबन्ध के अधीन सम्भोग की अनिवार्यता से बद्ध होना पड़ता था और अनुबन्ध को गोपनीय रखने का वचन भी देना पड़ता था। गए साल बात सामने आई तो बड़ा हल्ला मचा। इन गुरुजी के चित्रों को जूतों-चप्पलों से पिटते सारी दुनिया ने देखा। पुलिस और कानून हरकत में आए। समाचार चैनलों और अखबारों को कुछ दिन अच्छा काम मिला। किन्तु जल्दी ही सब ठण्डा हो गया। सोडा वॉटर की बोतल के उफान की तरह। अभी-अभी वे ही गुरुजी फिर समाचार चैनलों पर छाए हुए थे। लोग उन्हें स्वर्ण रथारूढ़ कर, भव्य शोभा-यात्रा से आश्रम में लाए। आश्रम में उनके चारों ओर स्त्रियाँ जोर-जोर से उछल रही थीं। कुछ इस तरह मानो धरती से ऊपर उठ रही हों। चैनल के उद्घोष कह रहे थे कि गुरुजी अपनी मन्त्र शक्ति से स्त्रियों को हवा में उड़ाने का चमत्कार कर रहे थे। वे ही गुरुजी, वे ही स्त्रियाँ, वे ही समाचार चैनल, वे ही अखबार किन्तु इस बार दुराचार, व्यभिचार का कोई उल्लेख नहीं। गोया, जो भी हुआ था, धर्म ही था।
आश्रम/मठ में कुछ भी करने की छूट और सुविधा रहती है। आश्रम में संदिग्ध स्थितियों में मौतें हो जाएँ, प्रवचन शिविरों में, बाहर से आई अवयस्क किशोरियों से बलात्कार हो जाए - किसी को कोई फर्क नहीं पड़ता। चिल्लानेवाले चिल्लाते रहते हैं और धर्म गंगा बहती रहती है।
करने के नाम पर मुझे बस यही सावधानी बरतनी होगी कि मैं कुछ कर न लूँ। उत्कृष्ट शब्दावली, प्रांजल भाषा, आलंकारिक वाक्य विन्यास, प्रभावी वक्तृत्वता में अनुप्रास और उपमाओं से लदे उपदेश ही तो देने होंगे? यह सावधानी भी बरतनी होगी कि उपदेशों पर अमल करने का आग्रह भूलकर भी न करूँ। लोग धर्म को अपने जीवन में उतारें, धर्म को अपना आचरण बनाएँ, यह आग्रह तो मुझे भूल कर भी नहीं करना है। मुझे यह चतुराई भी बरतनी पड़ेगी मैं लोगों से, खड़े-खड़े, कदम ताल कराता रहूँ और भरोसा दिलाता रहूँ कि मैं उन्हें आगे ले जा रहा हूँ। हाँ, मुझे यह ध्यान भी रखना पड़ेगा कि कहीं मैं भी उनके साथ कदम ताल ही करता न रह जाऊँ।
एक बार आश्रम/मठ खोल लिया तो बाकी सब कुछ अपने आप जुड़ता जाता है। लोग पहले तो टटोलते हैं कि बाबाजी वही सब कहते हैं या नहीं जो वे सुनना चाहते हैं। एक बार उनका भरोसा बँधा कि फिर तो गाड़ी चल निकलती है। चल निकलती क्या, सुपर फास्ट रेल की तरह, छोटे स्टेशनों पर रुके बिना, अपने गन्तव्य पर पहुँच कर ही रुकती है। लोगों का अटाटूट जमावड़ा ऐसा कि डिब्बों में जगह तो क्या डिब्बे ही कम पड़ जाएँ। यह जमावड़ा ही मेरी सबसे बड़ी ताकत होगा। इस जमावड़े के दम पर ही मैं प्रधानमन्त्री और भारत सरकार तक को गरिया सकता हूँ। सारे राजनीतिक दलों के नेता-मुखिया मेरे दर्शन कर स्वयम् को कृतार्थ अनुभव कर, गद्गद होंगे। लोकतन्त्र में माथे ही गिने जाते हैं - यह सत्य वे भी जानते हैं और मैं भी। हम दोनों एक दूसरे के लिए आवश्यक और अपरिहार्य होंगे। वे मेरी रक्षा करेंग और मैं उनके लिए वोटों की फसल उगाऊँगा। जब नेता मेरे कब्जें में होंगे तो सरकारी अधिकारी मेरा क्या बिगाड़ लेंगे? वे तो मेरे सामने पंक्तिबद्ध नत मस्तक खड़े रहेंगे और मैं उनसे मिलकर अपने भक्तों को शासन-प्रशासन और कानून की सुरक्षा उपलब्ध कराऊँगा। भक्तगण खुल कर नहीं खेल पाएँगे तो मेरी सेवा कैसे कर पाएँगे? मैंने देखा है, गेरुआ और दुग्ध-धवल श्वेत वस्त्र केवल वस्त्र नहीं होते। वे तो अभेद्य कवच होते हैं। मैं लोगों की काली कमाई को सफेद में बदलने, अपराधियों को अपने आश्रम में शरण-सुरक्षा देने का काम आराम से करूँगा। जाहिर है, ये नेक काम मैं मुफ्त में तो करने से रहा?
कुछ धर्म/सम्प्रदाय अवश्य ऐसे हैं जो अपने साधुओं के स्ख्लित आचरण को सहन नहीं करते और उन्हें साधु वेश से मुक्त कर, सद्गृहस्थ के कपड़े पहना देते हैं। किन्तु मेरे धर्म/सम्प्रदाय में ऐसी जोखिम पल भर को भी, रंच मात्र भी नहीं। साधु वेश के नीचे मैं बरमूडा पहनूँ, राजनीति करूँ, कारखाने-फैक्ट्रियाँ खोलूँ, करोड़ों का व्यापार करूँ, अपना अखबार निकालूँ, अपनी टीवी चैनल शुरु करूँ - कोई रोकने-टोकनेवाला नहीं। मैं जो भी करूँगा, वह धर्म ही होगा।
हाँ, एक काम मैं लीक से हटकर करूँगा। अपना और अपने मठ/आश्रम का नाम रखने में मैं कोई आदर्श नहीं वापरूँगा। खुद के लिए मैंने, लीक से हटकर नाम तय कर लिया है। मेरा नाम होगा - ‘असली पाखण्डी बाबा।’ मेरा यह नाम ही जादू और चमत्कार करेगा। लोग इसी नाम से आकर्षित होकर, जिज्ञासा-भाव से मेरे पास आएँगे। इतना भरोसा तो मुझे अपने आप पर है कि एक बार जो आया, उसे बार-बार आना पड़ेगा।
मेरा यह अनूठा विचार आपको कैसा लगा? लेकिन उत्साह के अतिरेक भूल कर भी खुद ‘असली पाखण्डी बाबा’ बनने की बात मत सोचिएगा। यारी दोस्ती गई भाड में। पापी पेट का सवाल है और धन्धे-पानी का मामला है। आपने यदि ऐसा कुछ किया तो मुझे मेरे धर्म की सौगन्ध, आपको बख्शूँगा नहीं। ध्यान रखिएगा, मैंने इस नाम और विचार का ‘कॉपी राइट’ करवा लिया है।
पाखण्डों की इस दुनिया में वही एक बस सच होगा।
ReplyDeleteअसली क्यों? पाखण्डी बाबा ही पर्याप्त है।
ReplyDeleteहोश संभाला तो मंदिर में था। पच्चीस वर्ष की उम्र में मंदिर से निकला। इन पच्चीस वर्षों में धर्मध्वजाओं के नीचे जितना पाखण्ड देखा, धर्म से वितृष्णा हो चली। थोड़ी सी सदाशयता, ईमानदारी भी वहाँ थी। लेकिन उस से क्या वहाँ कब्जा तो पाखण्डियों का ही है और बना रहेगा। अपने लिए धर्म से इतर ही मार्ग तलाशना पड़ा।
आश्रमों की माया दुनियावी से कहीं अधिक रहस्यमय होती है.
ReplyDeleteआपका विचार उत्तम है, और हम भी इसे अमली जामा पहनाने को तत्पर हैं. अलबत्ता हम नाम अलग रखेंग ताकि आपके कॉपीराइट का उल्लंघन भी न हो और लोगों को ज्यादा बेहतर तरीके से उल्लू बनाया जा सके - "श्री श्री 10000000000000000000... श्री रविरतलामी !"
ReplyDeleteधरम-करम पर आपकी सोच विचारनीय है. ऐसे लेख व व्यंग्य पढ़ने को मिलते रहते हैं. जिस शिद्दत के साथ आपने मुद्दे को उठाया वहा काबिले तारीफ़ है. समाज के ऊपर आपकी पानी निगाहें रही है.
ReplyDeleteमेरे मन में एक सवाल उठा रहा है. आपने ‘असली पाखण्डी बाबा’ बनाने की तो सोच ली. धरम-करम के ठेकेदारों कि बखिया तो उधेड़ दी, लेकिन आपने सच्चा बाबा बनने की बात क्यों नहीं सोची? बड़ी-बड़ी बातें करना आसन है, लेकिन जमीं से जुड़े रहकर धर्म व अध्यात्म के लियें काम करना, उसमें सही अर्थों में योगदान देना मुश्किल है. ज्यादा अच्छा होता अगर, आप सकारात्मक भूमिका के साथ सेवा-साधना के लियें कमर कसते, धर्म व अध्यात्म के लियें समाज में अपना सकारात्मक योगदान देते , अगर आप ऐसा करते है तो यही सच्चे अर्थों में ‘असली पाखण्डी बाबाओं ’ के मुह पर तमाचा होगा...
समय की कमी है... इस मुद्दे पर फिर कभी विस्तार से बात करेंगे...
संभोग के लिए इकरारनामा में हस्ताक्षर करने होते थे और इसके बाद भी कन्यायें शिष्या बनने की चाहत रखते थे. आश्चर्य. वैसे आपका ख्याल बुरा नहीं है. सहयोगी के रूप में मैं अपनी सेवायें दे सकता हूँ.
ReplyDeleteहा! हा! नामली में नित्यानन्द जी और आसाराम जी के आश्रम का क्या हाल है? यह देख मेरा भी मन आश्रम खोलने का होता था! :-)
ReplyDeleteha ha ha ha ha ha ha .. mazedar ... kisi rastriya patrika/akhbar ko bheje... jyada log anand le payenge.... ha ha ha
ReplyDeleteआश्रम खोलने से पहले हमारे स्कूल से "बाबागिरी का डिप्लोमा कोर्स" अवश्य करें। और उसके बाद हमारे "अक्रेडिटिड बाबागिरी आश्रम्स" की सूची में अपना नाम दर्ज़ अवश्य करायें। उसके बाद "विश्वसनीय व्यवसायी मण्डल" की प्रीमियम सदस्यता पर भी विचार कर सकते हैं।
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