‘आवश्यकता आविष्कार की जननी है’ वाली उक्ति इन दिनों बार-बार याद आने लगी है। होना तो यह चाहिए था कि जन भावनाओं का प्रकटीकरण, विधायी सदनों में, हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधियों के माध्यम से होता। किन्तु यह बात ‘कर्मण्योवाधिकारस्ते, मा फलेषु कदाचन्’ की तरह ही, केवल कहने भर को (वह भी आदर्श बघारने के लिए) ही रह गई है - मात्र एक किताबी बात। आज तो न्यायपालिका और ‘निमले’ (‘सीएजी‘ के मुकाबले, ‘नियन्त्रक एवम् महा लेखाकार’ का यह ‘प्रथमाक्षररूप’ मैंने बनाया है।) के श्रीमुख और मसि-कलम से ही जन भावनाएँ प्रकट हो रही हैं। ऐसा करने में इन दोनों को अतिरिक्त श्रम करना पड़ रहा है। मजबूरी है। परिवार के चार में से दो सदस्य यदि निकम्मापन बरतने लगें या अपना काम छोड़ कर दूसरे काम करने लगें तो उन दोनों के हिस्से का काम शेष दोनों सदस्यों को ही करना पड़ेगा न! यही तो हो रहा है आज हमारे देश में! हमारी विधायिका और कार्यपालिका ने अपना मूल काम करना छोड़ दिया तो यह तो होना ही था! सारा देश इन दोनों (न्याय पालिका और ‘निमले’) की वाहवाही करे तो इसमें विचित्र और आपत्तिजनक क्या? लोग तो उन्हीं के पास जाएँगे जो उनकी बात सुनें और उनकी इच्छाओं को साकार करने की कोशिशें करें! चार का बोझा ढो रहे इन दोनों की वाहवाही से परेशान निकम्मे, इन दोनों पर ‘अतिरिक्त सक्रियता’ का आरोप लगाएँ, चीखें-चिल्लाएँ और बकौल राजेन्द्र यादव ‘राँड रोवना’ करें तो हँसी ही आएगी।
सो, निकम्मों की इस (दुः)दशा पर सारा देश ‘मुदित मन’, तालियाँ बजा रहा है और निकम्मों को चपतियाते, लतियाते, जुतियाते देखकर गहरा सन्तोष अनुभव कर रहा है। दिल्ली के वृत्ताकार विधायी भवन से लेकर प्रदेशों की विधान सभाओं में, ये दोनों निकम्मे पूरे देश में समान रूप से छाए हुए हैं। इन निकम्मों में सारे झण्डे, सारे रंग, सारे नेता समान रूप से शामिल हैं। कोई नहीं बचा है। बेशर्मी की हद यह कि प्रत्येक निकम्मा, सामनेवाले को निकम्मा, भ्रष्ट, चोर बताता है। जबकि लोग दोनों की हकीकत बखूबी जानते हैं।
सत्तर की दशक के अन्तिम वर्षों से लेकर अस्सी की दशक के प्रथम सात वर्षों में भी ऐसी ही स्थिति बनी थी। तब केवल न्यायपालिका पर ‘अतिरिक्त सक्रिय’ (प्रोएक्टिव) होने के आरोप लगे थे। किन्तु ये आरोप न तब सच थे न अब सच हैं। उम्मीद की जा रही थी कि न्याय पालिका की इस अतिरिक्त सक्रियता को सबक और चुनौती की तरह लेकर हमारे निर्वाचित जन प्रतिनिधि और प्रशासन तन्त्र अपना उतरा हुआ पानी और उतरने से बचाएँगे भी तथा पानीदार बने रहेंगे भी। किन्तु सबक सीखना तो दूर रहा, इन्होंने तो ‘कोढ़ में खाज’ वाली स्थिति ला दी। पहले केवल न्याय पालिका तमाचे मारती थी। आज तो ‘निमले’ भी शरीक हो गया है। निर्वाचित जन प्रतिनिधियों और प्रशासकीय अधिकारियों ने दशा यह कर दी है कि तय करना मुश्किल हो गया है कि हड़काने की इस जुगलबन्दी में मुख्य कलाकार कौन है और संगतकार कौन - न्याय पालिका या ‘निमले’? कोई दिन ऐसा नहीं जा रहा जब दोनों ही, जबड़े भींचकर, बराबरी से चौके-छक्के न मार रहे हों।
ऐसे में, किसी ‘आविष्कार’ की भले ही न हो किन्तु तनिक ‘प्रक्रियागत बदलाव’ की प्रबल सम्भावनाएँ तो बनती ही हैं।
क्यों नहीं, ‘निमले’ की भूमिका का स्थान बदल दिया जाए? शासन-प्रशासन के वित्तीय निर्णयों की जाँच-परख तो ‘निमले’ अभी भी करता ही है! अभी यह जाँच-परख, निर्णय ले लिए जाने और उनके क्रियान्वयन के बाद की जाती है। क्यों नहीं यह जाँच-परख, निर्णय लेने से पहले ही कर ली जाए? अर्थात् ‘निमले’ को निर्णय लेने की प्रक्रिया के अन्तिम चरण का, अन्तिम निर्णय लेने से ठीक पहले का अनिवार्य हिस्सा बनाया जाए? काम तो वही का वही रहेगा किन्तु इसका वह असर होगा कि अखबारों के पन्ने और चैनलों के कई-कई घण्टे खाली हो जाएँगे। इसके लिए अतिरिक्त अमले की भी जरूरत नहीं होगी क्योंकि अभी भी यह सारा काम मौजूदा अमला ही कर रहा है।
एक और बदलाव पर विचार करना बुरा नहीं होगा। वित्तीय मामलें के तमाम निर्णय, बन्द कमरों में न लेकर, बड़े सभागारों में लिए जाएँ। ऐसे सभागार देश और प्रदेशों की राजधानियों में होते ही हैं। सारी निविदाएँ इन्हीं सभागारों में खोली जाएँ और उस समय, अधिकारियों तथा निविदाकारों अथवा उनके प्रतिनिधियों के साथ ही साथ जन-सामान्य और मीडिया को भी उपस्थित रहने की छूट दी जाए। अर्थात्, अभी ‘अँधेरे-बन्द कमरों में गुड़ फोड़ने’ की पारम्परिक शैली के स्थान पर सारे निर्णय ‘चौड़े-धाले’ लिए जाएँ। वैसे भी, पारदर्शिता की माँग और आवश्यकता दिन प्रति दिन बढ़ ही रही है।
पूरा देश देख रहा है कि बात तो कोई छुपती नहीं। यत्नपूर्वक छुपाए गए सारे ‘काले-धोले’, एक के बाद एक, रिस-रिस कर सामने आ ही रहे हैं! यदि पहले ही सब कुछ जाँच-परख लिया जाएगा तो लोग जरूर तमाशे से वंचित हो जाएँगे किन्तु हेराफेरी की आशंकाएँ समाप्त भले ही न हों, न्यूनतम तो होंगी ही। कल्पना कीजिए कि कितनी बचत होगी - जन-धन की लूट समाप्त होगी, मलेनि की रिपोर्टों के कारण विधायी सदनों में हंगामे समाप्त हो जाएँगे, अनेक जाँच समितियाँ गठित नहीं करनी पड़ेंगी, अखबारों और समाचार चैनलों पर समाचारों के लिए अधिक जगह और समय उपलब्ध रहेगा। हाँ, तब हमारे राजनीतिक दलों और नेताओं को कोई नया काम तलाश करना पड़ेगा। तब, मलेनि की रिपोर्ट के आधार पर वे किससे त्याग पत्र माँगेंगे?
‘निमले’ की भूमिका में यह बदलाव, इस समय मुझे तो ‘लाख दुःखों की एक दवा’ लग रहा है।
आपको?
कभी चुनाव आयोग में आए बदलाव की तरह निमले से भी आशाएं हैं.
ReplyDeleteदेखिये, आशा तो रख ही सकते हैं...
ReplyDeleteभ्रष्टाचार राक्षस रूप धर चुका है, नाभि-संधान करना होगा।
ReplyDelete