गुरुवार की सुबह जब मैं अपने शाखा कार्यालय पहुँचा तो मुझे बताया गया कि शाम सवा पाँच बजे, तीनों शाखाओं के कर्मचारी और अभिकर्ता, अण्णा हजारे के समर्थन में पहले तो हमारे शाखा कार्यालय के सामने एकत्र होकर नारे लगाएँगे और बाद में जुलूस की शकल में, धरना स्थल पर पहुँच कर सभा करेंगे।
मैं निर्धारित समय से पन्द्रह मिनिट पहले ही पहुँच गया। सवा पाँच बजते-बजते लोगों का आना शुरु तो हुआ किन्तु संख्या उत्साहजनक नहीं थी। नारेबाजी शुरु करने से लेकर जुलूस की शकल में रवाना होने तक हम लोग मुश्किल से तीस की संख्या तक ही पहुँच पाए।
नारे लगाते हुए हम लोग दो बत्ती पर बने धरना स्थल पर पहुँचे और थोड़ी सी देर के लिए छोटी सी सभा की। मुझे भी बोलने का अवसर दिया गया।
मैं अत्यधिक उत्साहित होकर पहुँचा था किन्तु मेरा उत्साह बहुत देर तक नहीं टिक पाया। हमारी संख्या अधिक होनी चाहिए थी - कम से कम तीन सौ तो होनी ही चाहिए थी।
लेकिन कोई क्या कर सकता है? जबरन तो किसी को लाद कर नहीं लाया जा सकता!
मेरी हाँडी का यह चाँवल अच्छी दावत के संकेत नहीं दे रहा। मैं दुःखी हूँ।
@लेकिन कोई क्या कर सकता है? जबरन तो किसी को लाद कर नहीं लाया जा सकता!
ReplyDeleteसहमत हूँ!
कवरेज के लिए मीडिया का इंतजाम हो तो 300 के 3000 बनते देर न लगती शायद. भीड़ का तात्पर्य, हमेशा समर्थन हो ऐसा नहीं, कुछ तमाशा देखने और कुछ तमाशा बनने भी जुटते हैं.
ReplyDeleteचल अकेला, चल अकेला...
ReplyDeleteराहुल जी की सलाह सही है।
ReplyDeleteसौ के दस मिलते "यह औसत मान है"
ReplyDeleteराजनीति का गणित, यह ज्ञान है !
'भ्रष्टता' की है मगर उलटी गणित,
"दस कम सौ" मिलते, यह अनुमान है!!
जरुरी नहीं है जी जो नहीं आये या आ पाये वो अन्ना का समर्थन ना कर रहे हों। हो सकता है उनमें कुछ अन्ना आन्दोलन के बारे में पर्चे छपवाने चले गये हों, या फेसबुक पर या ईमेल से कैम्पेन चला रहे हों या आस-पडोस में ही लोगों को इस बारे में बता रहे हों। आज 30 आये हैं कल 300 भी आयेंगें।
ReplyDeleteप्रणाम