यह सब मैंने अपने चिट्ठे के लिए नहीं, ‘जनसत्ता’ के लिए लिखा था। पाँच अगस्त को दिल्ली और ग्वालियर से, कुल तीन कृपालुओं ने इस पत्र के छपने की बधाई दी तो मालूम हुआ कि ‘जनसत्ता‘ ने ‘परदे के पीछे’ शीर्षक से इसे अपने दिल्ली संस्करण में छापा है। मेरे कस्बे में ‘जनसत्ता’ एक दिन बाद आता है। सो, पाँच अगस्त का ‘जनसत्ता’ ‘ अगस्त को मेरे कस्बे में पहुँचा। मुझे आश्चर्य (और आनन्द भी) हुआ कि सात मित्रों ने फोन पर भरपूर ऊष्मायुक्त बधाइयाँ देते हुए इसकी प्रशंसा की। इन्हीं बातों से प्रेरित और प्रोत्साहित होकर मैं इसे यहाँ प्रस्तुत कर रहा हूँ।
(बाबा) रामदेव को खदेड़ने के लिए, भारत सरकार ने चार जून की रात को दिल्ली पुलिस के जरिये ‘आत्मघाती मूर्खता’ करते हुए जो बर्बर कार्रवाई की, उसका दण्ड तो उसे मिलना ही चाहिए किन्तु इस पूरे मामले में इस आधारभूत तथ्य की अनदेखी की जा रही है कि जो कुछ हुआ वह ‘मूल क्रिया’ नहीं, ‘प्रतिक्रिया’ थी। ‘प्रतिक्रिया’ को अवश्य दण्डित किया जाए किन्तु यदि ‘मूल क्रिया’ को छोड़ दिया गया तो यह अनुचित तो होगा ही, प्राकृतिक न्याय के विरुद्ध भी होगा।
अब यह बात साफ हो चुकी है कि (बाबा) रामदेव का अभियान न तो भ्रष्टाचार के विरुद्ध था और न ही इसके पीछे ‘देश प्रेम’ जैसी कोई भावना थी। इसका एकमात्र लक्ष्य था - ‘खुद को स्थापित करना।’
तीन जून की अपराह्न, होटल क्लेरेजिज में प्रवेश करते समय अवश्य (बाबा) रामदेव, ‘बाबा रामदेव’ थे किन्तु लौटे ‘रामकिशन’ बनकर। इस पाँच सितारा होटल के वातानुकूलित कमरों की बन्द चारदीवारी में उन्होंने सरकार से समझौता किया और लिखित वचन दिया वह प्रथमदृष्टया अवश्य हतप्रभ करनेवाला रहा किन्त ‘ऐसे’ आन्दोलनों/अभियानों से जुड़े तमाम लोग और इन्हें ‘कवर’ करनेवाले तमाम पत्रकार और चैनलकर्मी भली प्रकार जानते हैं कि सड़कों पर जब आन्दोलन चल रहा होता है तो परदे के पीछे, सम्वाद की समानान्तर प्रक्रिया भी इसी प्रकार चलती है। कई बार तो यह भी तय हो जाता है कि कौन जूस पिलाएगा और किस-किस की उपस्थिति में अनशन समाप्त होगा।
इस लिहाज से, दुनिया से छुपाकर, बन्द कमरों में सरकार से समझौता कर और लिखित वचन देकर रामदेव ने कुछ भी अनूठा और अव्यवहारिक नहीं किया। वस्तुतः यह ‘अपने बचाव में लगे हुए दो जरूरतमन्दों का आपसी समझौता’ था। सरकार रामदेव से मुक्ति चाहती थी और रामदेव सरकार से स्वीकृती या मान्यता। दोनों को अपना-अपना नंगापन छिपाने के लिए एक दूसरे की मदद चाहिए थी।किन्तु परदे के पीछे खेले गए, बेईमानी के इस खेल में रामदेव ने बेईमानी कर दी। इसे यूँ भी कहा जा सकता है कि भ्रष्टाचार के विरोध का झण्डा उठाए रामदेव ने भ्रष्टाचार को भ्रष्ट कर दिया।
रामदेव ने मान लिया कि सरकार ने उनके सामने समर्पण कर दिया है और अब वे सरकार से, जो चाहे करवा सकते हैं। इसी ‘आत्म-भ्रम के अतिरेक’ के अधीन वे, चार जून की अपराह्न से लेकर सन्ध्या तक सरकार के विरुद्ध धुँआधार भाषण देते रहे जबकि लिखित वचनबद्धता निभाते हुए उन्हें चार बजे तक मंच से घोषणा कर देनी थी कि सरकार ने उनकी अधिकांश माँगें मान ली हैं इसलिए वे अपना आन्दोलन बन्द कर रहे हैं और सांकेतिक रूप से, छः जून तक ‘तप’ करेंगे।
सारा देश भले ही न जाने किन्तु दिल्ली का पूरा मीडिया (और खुद रामदेव) जानता है कि रामदेव के आन्दोलन को लेकर ही, चार जून की सन्ध्या 6 बजे सरकार की पत्रकार वार्ता भी होनी थी जिसमें रामदेव और सरकार के बीच, बन्द कमरों में हुए समझौते के अनुसार सरकारी घोषणाएँ होनी थीं। किन्तु सबने देखा कि रामदेव भाषण दिए जा रहे थे और सराकर, साँस रोके, रामदेव द्वारा आन्दोलन स्थगित किए जाने की घोषणा की प्रतीक्षा कर रही थी। इधर सरकार की बेचौनी पल-पल बढ़ रही थी, उधर रामदेव का भाषण पूरा होता नजर नहीं आ रहा था। समस्त सम्बन्धित लोग और पक्ष भली प्रकार जानते हैं कि रामदेव के भाषण के दौरान, सरकार ने बार-बार फोन करके रामदेव से अपना वादा निभाने के लिए कहा और रामदेव की घोषणा की प्रतीक्षा करते हुए अपनी पत्रकार वार्ता रोके रही। लेकिन रामदेव के लिए तो मानो खुद को नियन्त्रित कर पाना सम्भव नहीं रह गया था। अपने अन्तिम फोन में सरकार ने रामदेव को दो टूक सूचित किया यदि रामदेव ने अपना वादा नहीं निभाया तो मजबूर होकर सरकार, बालकृष्ण के हस्ताक्षरों वाला, रामदेव की वचनबद्धतावाला पत्र सार्वजनिक कर देगी। किन्तु रामदेव ने यह चेतावनी भी अनदेखी-अनसुनी कर दी। तब, सारे देश ने देखा कि, निर्धारित/घोषित समय से पौन घण्टा देरी से, शाम पौने सात बजे सरकार ने (या कहें कि ‘सिब्बल एण्ड कम्पनी’ ने) अपनी पत्रकार वार्ता शुरु की और रामदेव की लिखित वचनबद्धता की प्रतिलिपियाँ प्रेस तथा मीडिया को सौंप दी। कहना न होगा कि पर्दे के पीछे खेले गए इस खेल में सरकार ने, रामदेव के मुकबाले अधिक धैर्य ही नहीं अधिक ईमानदारी भी बरती।
यदि रामदेव अपनी वचनबद्धता निभाने की ईमानदारी बरतते तो दिल्ली पुलिस को कोई कार्रवाई करने की न तो स्थिति बनती और न ही नौबत आती।
इसलिए, चार जून की रात को, प्रतिक्रियास्वरूप की गई बर्बर कार्रवाई के लिए सरकार और पुलिस को तो दण्डित किया ही जाना चाहिए किन्तु यदि मूल क्रिया की अनदेखी कर उसे छोड़ दिया गया तो इससे अनुचित माँगों को लेकर आन्दोलन करनेवाले भी प्रोत्साहित होंगे।
यह बिलकुल वैसा ही होगा कि फुनगियों को काटा जा रहा है और जड़ों को छोड़ा जा रहा है। या कि चोर को तो दण्डित किया जा रहा है किन्तु चोर की माँ को अभयदान दिया जा रहा है।
राज नीति है, कोई मजाक नहीं.
ReplyDeleteराजनीति की घातें और प्रतिघातें।
ReplyDeleteअण्णा हजारे के बारे में क्या खयाल है?
ReplyDelete1) कांग्रेसी एजेण्ट हैं?
2) कांग्रेसी एजेण्ट थे, लेकिन अब माथे आ गये, तो लतियाए जा रहे हैं।
3) अग्निवेश जैसों के साथ बैठे, लेकिन हिन्दूवादियों को धकियाते-दूरी बनाते पाखण्डी हैं?
4) रामदेव बाबा के मुकाबले खड़े किये गये फ़र्जी गाँधीवादी?
bhhiya, jis tarh anna se, 3 din ka hi anshan karenge, aisa likh kar dene ki shart par anshan ki jagah dene ki bat sarkar taraf se hui he, isse to ab RAMDEV BABA ki fail hui muhim par bhi bharosa hone laga he
ReplyDeleteकैसी मूर्खता वाली बाते करते हो यार.
ReplyDeleteबाबा रामदेव किसी भी हालत मे नही झुके थे.
इसलिये सरकार को डंडा चला कर भगाना पड़ा.
और एक अन्ना है जो डंडे के डर से और अपनी इमेज बनाये रखने के लिये बिना मांगे मनवाये ही भाग खड़ा हुआ.
कैसी मूर्खता वाली बाते करते हो यार.
बाबा रामदेव किसी भी हालत मे नही झुके थे.
इसलिये सरकार को डंडा चला कर भगाना पड़ा.
और एक अन्ना है जो डंडे के डर से और अपनी इमेज बनाये रखने के लिये बिना मांगे मनवाये ही भाग खड़ा हुआ.