अज्ञान का आतंक

सूचनाओं के विस्फोटवाले इस समय में भला कोई कैसे इतना अनजान रह सकता है? वह भी उस मुद्दे पर जो समय-समय पर देश को उद्वेलित करता है!

कल दोपहर हम सात लोग बैठे थे। सब के सब पढ़े-लिखे (स्नातक से कम कोई भी नहीं), अखबारों और खबरिया चैनलों से अच्छी-खासी वाकफियत रखनेवाले। सबसे अधिक आयुवाला मैं - 65 वर्ष का और सबसे कम आयुवाला अजमत, 32 वर्ष का। पाँच सनातनी और दो इस्लाम मतावलम्बी। पहले हम सबने धार्मिक गुरुओं, उपदेशकों के खोखले प्रवचनों की खिल्ली उड़ाई, फिर धर्म के नाम पर किए जा रहे अत्याचारों और फैलाए जानेवाले आंतक को कोसा, धार्मिक कट्टरता की आलोचना की और ‘फतवे’ पर आ पहुँचे।

मुझे यह जानकर आश्चर्य हुआ कि मुझे छोड़कर बाकी छहों में से किसी को फतवे के बारे में न्यूनतम जानकारी भी नहीं थी। पहले तो मुझे लगा कि वे सब मुझसे खेल रहे हैं या मेरी परीक्षा ले रहे हैं। किन्तु बात जब ‘भगवान की सौगन्ध’ और ‘अल्ला कसम’ तक आ पहुँची तो मुझे उन सबके अनजानपन पर विश्वास करना पड़ा। फतवे को लेकर मैंने जब अपनी जानकारियाँ उन्हें दीं तो किसी को विश्वास नहीं हुआ। अजमत और नासीर को तो मेरी बातें दूसरी दुनिया की लगीं। अजमत के माथे से तो मानो पहाड़ का वजन उतर गया। बोला - ‘अल्ला कसम दादा! फतवे की हकीकत अगर वाकई में वही है जो आपने बताई है, तो यकीन मानिए बन्दा तो आज से फतवे को ठेंगा दिखाना शुरु कर देगा।’

मुझे यह देखकर हैरत हुई कि छहों के छहों, फतवे को ‘आँख मूँदकर माने जानेवाला, अनुल्लंघनीय धार्मिक आदेश’ माने बैठे हैं। चारों सनातनी मित्र तो पश्चात्ताप की मुद्रा में आ गए। इस्लाम का विरोध करने के लिए फतवा उनके लिए अब तक अमोघ अस्त्र बना हुआ था। उपेन्द्र बोला - ‘यदि वाकई में ऐसा ही है जैसा आपने कहा है तो फिर तो हम अब तक बिना समझे ही आरोप लगाने और निन्दा करने का अपराध करते रहे हैं।’

यह विश्वास करते हुए कि समूचा ब्लॉगर समुदाय फतवे की हकीकत भली प्रकार जानता है, इस अनुभव से प्रेरित होकर मैं फतवे के बारे में अपनी जानकारियाँ यहाँ

जानबूझकर दे रहा हूँ - केवल इसलिए कि यदि मैंने कुछ गलत बता दिया हो तो ब्लॉगर समुदाय मुझे दुरुस्त करने का उपकार करे ताकि मैं भविष्य में गलती करने से बच सकूँ।

फतवा कोई अनुल्लंघनीय धार्मिक आदेश नहीं है। यह इस्लामी कानूनों से सम्बद्ध

केवल ‘धार्मिक मत’ है। गली-मुहल्ले का या रास्ते चलता कोई मुल्ला-मौलवी फतवा जारी नहीं कर सकता। कम से कम ‘मुफ्ती’ पदवीधारी इस्लामी विद्वान् ही फतवा देने का अधिकार रखता है। किन्तु यह ‘मुफ्ती’ भी अपनी मर्जी से, अपनी ओर से फतवा जारी नहीं कर सकता। किसी के माँगने पर ही फतवा दिया जा सकता है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है, फतवा ‘धार्मिक मत’ अर्थात् परामर्श या सलाह होता है जिसे मानना न मानना, उस पर अमल करना न करना, फतवा माँगनेवाले की मर्जी पर निर्भर करता है। बिलकुल उसी तरह जिस तरह किसी वकील या डॉक्टर से सलाह ली जाए और उस पर अमल करने की छूट, सलाह लेनेवाले को होती है।


गिनती की ये ही बातें मैंने बताईं किन्तु छहों की शकलें देख कर लगा कि यह ‘सार संक्षप’ भी उन्हें ‘महा सागर’ की तरह लगा।

5 comments:

  1. अपने मूल अर्थों पर भारी पड़ते हैं उनके अभिप्राय.

    ReplyDelete
  2. वेब पर एक शब्‍दकोश में 'फतवा' का अर्थ-
    धर्म-गुरु विशेषतः किसी मुसलमान धर्म-गुरु द्वारा धर्म-संबंधी किसी विवादास्पद बात के संबंध में दिया हुआ शास्त्रीय लिखित आदेश। व्यवस्था।

    ReplyDelete
  3. विष्णु बैरागी ने जब फतवे पे इक 'फ़तवा'* दिया,
    चौंके पंडित और मुल्ला भी अचंभित रह गया.


    .....continue at... http://aatm-manthan.com

    ReplyDelete
  4. रहिमन निज मन की व्यथा....

    ReplyDelete
  5. जानकारीपूर्ण आलेख! ज्ञान निर्भय बनाता है और अज्ञान आतंक का पर्याय बनता है।

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.