सबके साथ ऐसा हो

मुझे बुलाकर बीमा देने के लिए, कोई दो बरस पहले, मैंने, जिस प्रकार उज्जैन निवासी डॉ. सत्यनारायण पाण्डे का सचित्र उल्लेख किया था, काश! उसी प्रकार मैं इन कृपालु का उल्लेख भी कर पाता। किन्तु क्या करूँ? ऐसा न करने के लिए इन्होंने न केवल अत्यन्त विनयपूर्वक आग्रह किया अपितु मुझे शपथ-बद्ध भी कर दिया।

एक सुबह इनका फोन आया। बोले - ‘एक बीमा करने के लिए आ जाइए।’ मुझे अच्छा तो लगना ही था किन्तु आश्चर्य भी हुआ। इनसे मेरा, कभी-कभार का ‘राम-राम, शाम-शाम’ का का ऐसा, रास्ते चलते का नाता है जिसे ‘परिचित’ की श्रेणी में भी नहीं रखा जा सकता।

मैं पहुँचा। परस्पर अभिवादन की सामान्य औपाचारिकता के बाद बोले - ‘घर में लक्ष्मी आई है। पोती हुई है। उसकी उच्च शिक्षा के लिए कोई ढंग-ढांग की पॉलिसी बना दीजिए।’ मैंने चार-पाँच पॉलिसियों की विस्तृत जनकारी दी तो बोले - ‘मैं तो कुछ जानता-समझता नहीं। जो आपको सबसे अच्छा लगे, वह कर दीजिए।’ अपने स्तर मैंने सर्वाधिक अनुकूल और उपयोगी पॉलिसी बताई। उन्होंने बेटे को बुलाया। कागजी खानापूर्ति कराई और भुगतान कर दिया।

यह सब मेरे लिए ‘विचित्र किन्तु सत्य’ जैसा था। मैंने कहा - ‘मुझसे न तो रहा जा रहा है और न ही सहा जा रहा है। आपने अपनी ओर से बुलाकर मुझे बीमा दिया इस हेतु तो मैं आपका आभारी और कृतज्ञ हूँ किन्तु जिज्ञासा बनी हुई है कि आपने ऐसा क्यों किया।’ उन्होंने शान्त स्वरों में, लगभग निर्लिप्त भाव से कहा - ‘मैं आपके लेख ‘उपग्रह’ में पढ़ता हूँ। आप अच्छा लिखते हैं। आपके बारे में तलाश किया तो दो बातें ऐसी लगीं जिनके कारण आपको अपनी ओर से बुलाया।’ मैंने सवालिया नजरों से उन्हें देखा। उत्तर मिला - ‘आप कितने ईमानदार और साफ-सुथरे हैं यह तो मैं नहीं जानता किन्तु लोगों ने बताया कि आप कोरे उपदेश नहीं देते। जो लिखते-कहते हैं, उस पर अमल भी करते हैं। सो, मैंने माना कि आप यदि सौ टका ईमानदार न भी हों तो भी ‘अधिकतम ईमानदार’ तो हैं ही। ईमानदारी किसे अच्छी नहीं लगती? मैं ढंग-ढांग का, ठीक-ठीक व्यापारी हूँ लेकिन उतनी ईमानदारी नहीं बरत पाता जितना आप कहते-लिखते हैं। सो, सोचा कि जो अच्छा काम कर रहा है, वह अच्छा काम करता रहे इसलिए उसकी मदद क्यों न की जाए? दूसरा कारण जानकर आप इतरा मत जाइएगा। मुझे बताया गया कि पॉलिसी बेचने के बाद अच्छी ग्राहक सेवा देते हैं। मेरे लिए यह भी जरूरी था। बस! इन दो बातों के कारण आपको बुलाया।’ उनकी बातों ने मुझे अभिभूत और विगलित कर दिया। मुझसे बोला नहीं गया। जी भर आया था। (लगभग रुँधे कण्ठ से) उन्हें फिर धन्यवाद दिया और चला आया।

यह सब लिखते हुए भी मैं सामान्य नहीं हूँ। क्या कहूँ? कुछ बातें समझा पाना कठिन होता है।


यह भी, ऐसी ही एक बात है।


6 comments:

  1. @ उतनी ईमानदारी नहीं बरत पाता जितना आप कहते-लिखते हैं।

    इतनी ईमानदारी भी सुलभ तो नहीं है। बाकी बातें भी बता रही हैं कि खुशबू तो मुश्क की ही है। अच्छे लोग उन्नति करें, आगे बढें, उनकी कीर्ति भी फैले।

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  2. घोर निराशावादी माहौल जहाँ ईमानदार आदमी हारता ही है , इस तरह के वाकये एक उम्मीद जगाये रखते हैं ...
    बधाई !

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  3. शायद ऐसे होते कई-एक हैं, लेकिन उनके साथ ऐसा बर्ताव कम ही होता है.

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  4. विश्वास पर ही आधारित हो सम्बन्ध।

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  5. 'पोती' को 'लक्ष्मी' मान के बीमा कराते लोग,
    'खर्च' वर्तमान करके यूं future सजाते लोग,
    अपनी ही ज़ात में छुपी कमिया गिनाते लोग,
    सच्चाई को ही अपना 'आदर्श' बनाते लोग.

    क्यूँ भाव विह्वल मन न हो, मिल जाए ऐसे लोग !
    ख़ुश किस्मती ही कहिये जो मिल जाए ऐसे लोग.

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  6. आपके इस लेख में दो बातें अच्छी लगीं, एक तो कि उस व्यक्ति ने ढूँढकर आपको चुना व बुलाया था, दूसरी यह कि उसे पोती के जन्म की खुशी थी व उसकी शिक्षा की चिन्ता थी।
    बधाई।
    घुघूती बासूती

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