प्रासंगिक लेखन मुझे नहीं रुचता। यान्त्रिक अथवा खनापूर्ति लगता है। मैं इससे बचने की कोशिश करता हूँ। लेकिन, कभी-कभी आपको अनिच्छापूर्वक भी लिखना पड़द्यता है। इसी तरह मुझे ‘साप्ताहिक उपग्रह‘ के, अपने स्तम्भ ‘बिना विचारे‘ के लिए ‘लिखना पड़ा’, स्तम्भ की अनिवार्यता के अधीन। अनिच्छापूर्वक, विवशता में लिखा गए इस आलेख से मैं रंच मात्र भी सन्तुष्ट और प्रसन्न नहीं हूँ। किन्तु विस्मित हुआ यह देख कर कि इस पर भी बीसियों कृपालुओं के प्रशंसात्मक फोन आए।
‘वह’ पैंसठवीं बार मेरे सामने खड़ा है। वही स्निग्ध, ममताभरी मुस्कुराहट है ‘उसके’ होठों पर जैसी पहली बार थी। ‘वह’ वैसा का वैसा ताजा दम है, थकावट की एक लकीर नहीं, ‘उसकी’ आँखों में आशाओं के झरने वैसे ही रोशन बने हुए हैं जैसे पहली बार थे, मेरे प्रति ‘उसका’ भरोसा तनिक भी कम नहीं हुआ है, कोई सवाल पूछना तो दूर, ‘वह’ न तो झुंझला रहा है न ही खीझ रहा है मुझ पर। बस! ताजा दम, मुस्कुराए जा रहा है मेरी नजरों में नजरें गड़ाए। नहीं सहा जा रहा मुझसे ‘उसका’ इस तरह मुझे देखना। असहज ही नहीं, निस्तेज हो, शर्मिन्दा हुआ जा रहा हूँ मैं अपनी ही नजरों में। ‘उससे’ नजरें मिलाने का साहस, हर वर्ष कम होता जा रहा है मुझमें।
‘वह’ कभी चुपचाप नहीं आता। हर वर्ष, ‘उसके’ जाते ही ‘उसका’ अगला आगमन न केवल सुनिश्चित हो जाता है बल्कि ‘उसके’ आने से कई दिन पहले ही ढोल-नगाड़े बजने लगते हैं, दसों दिशाएँ गूँजने लगती हैं, आसमान में इन्द्रधनुष के रंग पुतने शुरु हो जाते हैं, शहनाइयाँ मंगल प्रभातियाँ बजाने लगती हैं। पहली बार से लेकर इस बार तक, ‘वह’ जब भी आया, उत्सव, उमंग, उल्लास लेकर ही आया। ‘उसने’ तो त्यौहार ही रचे। किन्तु मैंने?
डर रहा हूँ कि ‘उस’ उदारमना, औढरदानी ने कभी पूछ लिया - ‘मैंने अपने आपको तुम पर न्यौछावर कर दिया, तुम्हें दासता से मुक्ति दिला दी, तुम स्वाधीन हो गए। लेकिन तुमने क्या किया मेरे लिए? मेरी छोड़ो! खुद अपने लिए क्या किया? अपनी आजादी को बचा पाए?’ यही सवाल मेरी शर्मिन्दगी का कारण है। ‘उसने’ तो मुझे आजादी दे दी - अधिकार के रूप में। किन्तु इस आजादी को बचाने की जिम्मेदारी मैंने कभी याद नहीं रखी। नहीं। याद तो रही किन्तु जानबूझकर भूल जाने की आत्म वंचना करता चला आ रहा हूँ। शारीरिक रूप से मैं जरूर आजाद हो गया हूँ किन्तु गुलामी तो शायद मेरे लहू में रच-बस गई है। जाने का नाम ही नहीं लेती। अपनी मर्जी से काम करना मेरी आदत में ही नहीं। मुझे तो डण्डे से हाँके जाने की आदत है। मुझे तो अपने लिए एक राजा स्थायी रूप से चाहिए ही चाहिए। इसीलिए मैंने अपने आप को गुलाम बना लिया है - अपने नेताओं का, स्थितियों का, भ्रष्ट व्यवस्था का। मैं यह भी भूल जाने का नाटक करता रहता हूँ कि जिन लोगों को, जिन स्थितियों को, जिस व्यवस्था को मैं गालियाँ देकर आत्म-सन्तोष, अपने कर्तव्य की इतिश्री कर रहा हूँ, वह सब मैंने ही बनने दी हैं।
आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन होता है - एक सन्तुष्ट गुलाम। मैंने अपनी दशा ऐसी ही बना ली है। मैं हमेशा कुछ न कुछ माँगता ही रहता हूँ। कहता रहता हूँ - ‘यह तो मेरा अधिकार है। यह मुझे मिलना चाहिए।’ सामान्यतः मेरी बात कोई नहीं सुनता। यदि कभी कुछ मिल गया, किसी ने कुछ दे दिया तो खुश हो जाता हूँ वर्ना सारा दोष भाग्य और भगवान के माथे मढ़कर खुश हो जाता हूँ। अपनी ओर से कभी कुछ नहीं करता।
करने के नाम पर मैं एक ही काम करता हूँ - पाँच साल में एक बार वोट देने का। वोट लेने के लिए, मेरा नेता जब याचक-मुद्रा में मेरे सामने आता है तो मेरी छाती ठण्डी होे जाती है। मैं अपनी भड़ास निकालता हूँ। वह, नीची नजर किए, मुस्कुराते हुए चुपचाप सुनता रहता है। मैं खुश हो जाता हूँ और मन ही मन ‘निपटा दिया स्साले नेता को’ कह अपना वोट उसे दे देता हूँ। वह मेरा वोट जेब में डालकर मुस्कुराते हुए चला जाता है। मैं तब भी जानता हूँ कि मैंने पाँच साल की गुलामी अपने नाम लिख दी है। लेकिन इसके लिए भी नेता को ही जिम्मेदार बताता रहता हूँ और उसे गालियाँ देता रहता हूँ।
अधिकारों की माँग कोई गुलाम ही करता है। आजाद आदमी तो अपने अधिकार पुरुषार्थ से और पुरुषार्थ से नहीं मिले तो छीन कर हासिल करता है। वोट देकर अपनी सरकार बनानेवाली व्यवस्था में तो वोट देनेवाला ही राजा होता है और राजा को अपने वजीरों, कारिन्दों, सेवकों पर चौबीसों घण्टे नजर रख कर उनसे काम लेना होता है। बेशक काम करना उन सबकी जिम्मेदारी है लेकिन उससे पहले राजा की जिम्मेदारी बनती है - उन सबसे काम लेने की। जब राजा गैर जिम्मेदार हो जाता है तो वजीर, कारिन्दे, सेवक याने सबके सब खुद राजा हो जाते हैं। मैंने भी यही होने दिया है। ‘उसने‘ तो मुझे राजा ही बनाया था किन्तु राज सम्हालने, सुव्यवस्थित और नियन्त्रित रखने की जिम्मेदारी निभाने के झंझट के मुकाबले गुलामी कर लेना अधिक आसान होता है। मैंने भी यही किया। ‘उसने’ मुझे ‘नागरिक’ बनाया था किन्तु ‘नागरिक’ को तो चौबीसों घण्टे जागरूक रहना पड़ता है! वह मेरे बस की बात नहीं। ‘प्रजा’ बनकर जीना अधिक आसान भी है और इस जीवन की मुझे आदत भी है।
फिर भी मुझे ‘उससे’, ‘उसके’ सम्भावित सवालों से डर लग रहा है। मैं कैसे कहूँ कि मैंने उसके लिए अब तक न तो कुछ किया है और न ही आगे कुछ करने की मानसिकता ही है। मैं अपने और अपने परिवार के लिए हाथ-पाँव हिलाऊँगा, उन्हीं के लिए कमाऊँगा-धमाऊँगा, ‘उसके’ नाम की दुहाइयाँ दूँगा, ‘उसके लिए’ मर मिटने की बातें चौराहों पर करूँगा किन्तु मर मिटना तो कोसों दूर रहा, मौका आएगा तो नाखून भी नहीं कटाऊँगा। यह सब मैं कर लूँगा तो फिर आप क्या करेंगे? आपकी भी तो कुछ जिम्मेदारी बनती है?
इसलिए, मुझे शर्मिन्दगी भले ही हो रही हो और ‘उसके’ सम्भावित सवालों से भले ही भय उपज रहा हो और ‘उसकी’ देखभाल की जिम्मेदारी भले ही मेरी हो किन्तु मैं तो गुलाम हूँ, प्रजा हूँ, मेरे पास तो कोई अधिकार भी नहीं है! अधिकार होता तो अपने नेताओं को नियन्त्रित करता, भ्रष्ट अफसरों को नकेल डालता, अनुचित का प्रतिकार और विरोध करता। किन्तु इस सबकी कीमत चुकानी पड़ती है। मैं कीमत चुकाने को तैयार नहीं हूँ। इसीलिए तो मैंने इन सबकी गुलामी कबूल कर ली है।
‘वह’ पैंसठवी बार मेरे सामने खड़ा है। मैं उसका सामना नहीं कर पा रहा हूँ। उसकी मोहक मुस्कान और चुम्बकीय आँखें मुझे असहज कर रही हैं, मुझे अपराध बोध से ग्रस्त कर रही हैं। मैं ‘उसे’ आपके दरवाजे पर भेज रहा हूँ।
‘वह’ भले ही मेरा स्वाधीनता दिवस हो लेकिन उसकी खातिरदारी की, उसके मान-सम्मान की रक्षा की जिम्मेदारी आपकी है। मुझे तो बस! बपने अधिकार चाहिए। जिम्मेदारी निभाने का यश आप हासिल करें।
याद दिलाते रहिये, आंखें भी खुलते-खुलते ही खुलती हैं। शुभकामनायें!
ReplyDeleteक्या थे हम और क्या होंगे अभी।
ReplyDeleteआज के दिन आपकी पहली पंक्ति- ‘वह’ पैंसठवीं बार मेरे सामने खड़ा है। - पढ़ना मार्मिक है.
ReplyDeleteयान्त्रिकपूर्वक आपको बधाई दे ही देते हैं स्वतंत्रता दिवस की :)
ReplyDelete“गुलामी में एक सुरक्षा है.अनुकरण और निर्भरता में एक सुरक्षा है -खासकर बौद्धिक निर्भरता में.इसलिए इसकी लत लग जाती है.जो लोग,व्यक्ति या समूह लम्बे समय तक गुलाम बने रहते हैं,उनके स्वभाव में कुछ परिवर्तन आ जाता है.ज्यादा समय तक गुलाम रहने वाले देशों और कम समय तक या न के बराबर गुलाम रहने वाले देशों के चरित्र में एक भिन्नता होती है.पहली किस्म के लोग अपने निर्णय से कठिन काम नहीं कर सकते.गुलाम व्यक्ति आदेश मिलने पर कठिन काम करता है,अनिच्छा से करता है,उसमें रस नहीं मिलता.इस तरह कठिन काम के प्रति उसका स्वभाव बन जाती है.बाद में जब वह आज़ाद होता है,तब भी वह कठिन काम,कठोर निर्णय से भागता है.कठिन काम करने में जो रस है ,जो तृप्ती है, उसे वह समझ नही पाता.जो कठिन है वह संभव है,दीर्घकालीन हित के लिये हरेक के लिये आवश्यक है -यह भाव उसके आचरण से गायब हो जाता है.”
ReplyDelete- किशन पटनायक (विकल्पहीन नहीं है दुनिया,पृष्ट २१,राजकमल प्रकाशन)
@आजादी का सबसे बड़ा दुश्मन होता है - एक सन्तुष्ट गुलाम।
ReplyDeleteआपको स्वतंत्रता दिवस की बधाई