अण्णा ने तो सब गुड़ गोबर कर दिया। उनके चाहनेवाले और प्रशंसक हम चार बूढ़ों को तो उन्होंने निराश कर ही दिया यह कहकर कि उनके जन लोकपाल मसवदे के शब्दशः लागू होने के बाद भी कम से कम 35-40 प्रतिशत भ्रष्टाचार तो बना ही रहेगा। इस 35-40 प्रतिशत भ्रष्टाचार का आयतन और घनत्व, समाप्त होनेवाले 60-65 प्रतिशत भ्रष्टाचार के मुकाबले अधिक हुआ तो? तो फिर यह ताण्डव और उठा-पटक क्यों और किसलिए?
दादा से नीमच में और जीजी से (निम्बाहेड़ा से मंगलवाड़ के रास्ते पर स्थित) निकुम्भ में मिलने के लिए इसी रविवार को कोई चार सौ किलोमीटर की यात्रा की। दादा के साथ कच्चा-पक्का एक घण्टा बिताया। दादा ने मेरी उदासी का कारण जानकर मुझे ढाढस बँधाते हुए कहा - ‘‘मेरा शब्द चयन अटपटा हो सकता है किन्तु तू समझने की कोशिश करना कि मन्दिरों की बहुलता और ‘सबका काम छोड़कर मेरा काम सबसे पहले हो’ की मानसिकतवाले नागरिकों के देश में भ्रष्टाचार कैसे समूल नष्ट हो सकता है?’’ बात ‘बाउंसर’ की तरह सनसनाती हुई मेरे सर के ऊपर से गुजर गई और मैं अकबकाया, बौड़म की तरह दादा की ओर देखने लगा। दादा ने कहा - ‘नहीं! मैं और कुछ नहीं कहूँगा। तू खुद ही इन दोनों बातों का भाष्य और व्याख्या करने और मन ही मन समझने की कोशिश करना।
आज चौथा दिन है। ज्यों-ज्यों सोच रहा हूँ, त्यों-त्यों दोनों सूत्र वाक्य मानो अपना-अपना बखान खुद करने लगे। पहली नजर में देखूँ तो भला, मन्दिरों का भ्रष्टाचार से क्या वास्ता? लेकिन एक बिजली कौंधी और बात ‘हाथ कंगन को आरसी क्या’ की तरह दाने-दाने बिखर कर खुलती गई।
मन्दिर याने देवालय, हमारे देवताओं, आराध्यों, इष्टों का निवास स्थान। मनुष्यों की बस्ती में वह स्थान जहाँ खुद ईश्वर रह रहा हो। ईश्वर याने वह अजर, अमर, अगम, चिरन्तन तत्व जो सारी दुनिया को देता ही देता हो, जिसके यहाँ कोई कमी नहीं, जिसे मनुष्य की भक्ति-भावनाओं के सिवाय और किसी भी चीज की आवश्यकता नहीं। मनुष्य यह भी न दे तो भी ईश्वर खिन्न/कुपित नहीं होता। सस्मित, दोनों हाथों से मनुष्य को असीसता रहता है, अपना कृपा-प्रसाद अनवरत लुटाता रहता है। लेकिन मनुष्य ने अपनी कमजोरी, अपनी लोलुपता ईश्वर पर थोप दी - अपनी मनोकामनाएँ पूरी करने के लिए चढ़ावा चढ़ाने लगा। किसे? जिसे कुछ भी नहीं चाहिए, उसी ईश्वर को। चढ़ावा किस बात का? तू मेरा यह काम कर दे, मैं तेरी कथा करवाऊँगा, तेरे मन्दिर में सोने/चाँदी का छप्पर चढ़ाऊँगा आदि-आदि। यह चढ़ावा क्या है? यह चढ़ावा कभी-कभी अग्रिम होता है तो कभी-कभी काम हो जाने के बाद। ईश्वर और मनुष्य के सम्पर्क सेतु के रूप में पण्डितजी विराजमान रहते हैं। उन्हीं के मुँह से हमें भगवान बोलता अनुभव होता है और उसी के माध्यम से हमारी बात ईश्वर तक पहुँचती है।
यही सब और ऐसा ही कुछ-कुछ सोचते-सोचते अनायास ही याद हो आए हमारे लोक कुम्हार के चाक पर गढ़े गए तीन शब्द - नजराना, शुकराना और जबराना। इन तीन शब्दों में रिश्वतखोरी और भ्रष्टाचार का संसार समाया हुआ है। ‘नजराना’ याने मुझे याद रखने की, जरूरत पड़ने पर मेरा काम सर्वोच्च प्राथमिकता से करने के लिए एडवांस बुकिंग। यादों की अपनी कोठरी को तनिक झाड़ेंगे-बुहारेंगे तो अनायास ही, ‘मिठाई’ के लिए नोटों की गड्डियाँ लेकर उन्हें ड्राअर में रखते हुए लक्ष्मण बंगारू याद आ जाएँगे। ‘तहलका’ के स्टिंग ऑपरेशन के तहत यह ‘नजराना’ ही था। ‘शुकराना’ याने आपने मेरा काम कर दिया। आपको धन्यवाद। मेरी ओर से यह छोटी सी (या जो तय हुई थी, वह) भेंट स्वीकार करें।
मन्दिरों का चढ़ावा इन दो श्रेणियों में से किसी एक श्रेणी में आता है। राजस्थान के प्रख्यात तीर्थ क्षेत्र ‘साँवरियाजी’ में तो डकैत और तस्कर मनौतियाँ लेकर जाते हैं और अभियान सिद्ध होने पर भगवान का हिस्सा दान पेटी में डाल जाते हैं। यहाँ की दान पेटी में से अफीम निकलने के समाचार आए दिनों अखबारों में पढ़ने को मिल जाते हैं। तिरुपति की दान पेटियाँ जो समृद्धि उगलती हैं उनकी गणना और मूल्यांकन करने के लिए तो तिरुमला देवस्थान ट्रस्ट ने एक पूरा विभाग ही बना रखा है। कहने की जरूरत नहीं कि वह सब या तो नजराना है या शुकराना। कोई ताज्जुब नहीं कि तिरुपति का वार्षिक बजट गोवा, झारखण्ड, उत्तराखण्ड जैसे किसी छोटे राज्य के वार्षिक बजट के बराबर बैठ जाए!
नजराना और शुकराना में तो फिर भी, ‘प्रसन्नता का भाव’ रहता है किन्तु तीसरा ‘ना’ याने ‘जबराना’ कम से कम एक पक्ष को तो दुखी करता ही है। ‘जबराना’ सुनते ही हममें से प्रत्येक को किसी न किसी नेता, अधिकारी, कर्मचारी का चेहरा याद आ जाएगा। ये भी किसी भगवान से कम नहीं। सरकारी मन्दिरों में बैठे भगवान। तीर्थ क्षेत्रों के पण्डे/पुजारी भी इसी श्रेणी में शामिल होने की आधिकारिक पात्रता रखते हैं। जरा, दिलीप कुमार, संजीव कुमार, वैजयन्तीमाला अभिनीत फिल्म ‘संघर्ष’ को याद करें जिसमें यजमान से वसूली के लिए पण्डे हत्या करने में भी चूकते। गोया, ‘जबराना’ न केवल दुखी कर सकता है अपितु प्राण भी ले सकता है। माँगी गई रिश्वत की रकम जुटाने में असमर्थ लोगों द्वारा आत्महत्या करने के समाचारों की संख्या और आवृत्ति साल-दर-साल बढ़ रही है।
चौथे ‘ना’ का नामकरण मैंने किया है और तुकबन्दी मिलाने के लिए यह ‘ना’ मैंने ठेठ मालवी बोली से लिया है - ‘छानामाना’ जिसके लिए आप हिन्दी में ‘गुपचुप’ या फिर ‘चुपचाप’ प्रयुक्त कर सकते हैं। इस चौथे ‘ना’ को हम सब, चौबीसों घण्टे पालते-पोसते रहते हैं, अनजाने में भी। कर चोरी, मोल में भी मारना और तोल में भी मारना, बताना कुछ और बेचना कुछ आदि-आदि रूपों में यह ‘छानामाना’ विद्यमान रहता है।
साल में पाँच-सात बार मैं भी इस ‘छानामाना’ में शरीक होता हूँ। जब-जब भी भाड़े की टैक्सी लेकर जाता हूँ, तब-तब हर बार इस ‘छानामाना’ में भागीदारी करता हूँ। सारी की सारी टैक्सियाँ, निजी कारें होती हैं। एक भी कार का पंजीयन टैक्सी के रूप में नहीं होता। एक की भी नम्बर प्लेट पीली नहीं होती। टैक्सी में रजिस्ट्रेशन कराओ तो दुगुना/तिगुना टैक्स देना पड़ेगा और ड्रायवर भी ‘वाणिज्यिक लायसेंसधारी’ होगा। वह भी अपने आप में अलग से खर्चा माँगता है। सो, सब कुछ ‘छानामाना’ चल रहा है।
दादा से मिले दो सूत्रों पर हुए इस निठल्ले चिन्तन ने अण्णा के वक्तव्य से उपजा मेरा संत्रास कम कर दिया। अब अण्णा असफल भी हो जाएँ तो कष्ट नहीं। अण्णा का बेचारा एक ‘ना’ और उधर एक साथ चार-चार ‘ना’ और चारों में से प्रत्येक ‘ना’ अण्णा के इकलौते ‘ना’ पर भारी! आखिर बेचारा ‘एक ना’ कब तक ‘चार ना’ से जूझेगा?
अब मैं बेफिकर हूँ। ‘अण्णा तुम संघर्ष करो’ वाले नारे का अर्थ मुझे अब समझ पड़ा। हे! अण्णा!! केवल ‘तुम’ संघर्ष करो। हम नहीं करेंगे। हम तो केवल साथ रहेंगे। तुम अपने इकलौते ‘ना’ के साथ मरो-मिटो। हम अपने चारों ‘ना’ के साथ राजी-खुशी रहेंगे।
"ना" की मौजुदगी "छाना-माना" रहेगी ही। सार्थक चिंतन।
ReplyDeleteआभार
एक पहल सबकी ओर से, देश लाभान्वित होगा।
ReplyDeleteयह तो 'ना ना करते...' टाइप चल रहा है.
ReplyDeleteअन्ना हजारे ने कहा कि देश में जनतंत्र की हत्या की जा रही है और भ्रष्ट सरकार की बलि ली जाएगी। यानि खून के बदले खून?
ReplyDeleteविजयी हुए अन्ना, घर घर बान्धो बन्धनवार!
ReplyDeleteaaj unhi ki jai-jaikar hoti hai jo CHANEMANE bethe rahate hai....
ReplyDeletechouthe NA CHANEMANE ki khoj aapke gahare aubhav ko darshata hai...
आपका लेखन बहुत रोचक होता है और सारगर्भित भी. बधाई
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