कोई बाप अपनी बेटी को एक दिन स्कूल जाने से रोक दे तो रोक दे! कौन सा पहाड़ टूट गया होगा? लेकिन यही बात मुझे लग गई। अब, बात लगी तो मुझे है लेकिन झेलनी आपको पड़ रही है। भला यह भी कोई बात हुई? नहीं हुई ना? लेकिन मेरे लिए तो यह बहुत बड़ी बात हो गई।
वह, श्वेताम्बर जैन समाज के पर्वाधिराज पर्यूषण पर्व का अन्तिम दिन था - क्षमापना दिवस। अपराह्न कोई साढ़े तीन/चार बजे प्रेस पहुँचा तो सचिन मानो थकान दूर कर ताजादम हो रहा था और उसकी बड़ी बेटी महक अपनी स्कूल की कॉपी से कोई पाठ पढ़ रही थी। शायद प्रश्नोत्तर के लिए पाठ याद कर रही थी। महक को देखकर मुझे अटपटा लगा। वह समय तो उसके स्कूल में होने का था? पहली बात जो मन में आई वह यह कि कहीं महक अस्वस्थ तो नहीं? किन्तु महक को पाठ याद करते देख बात जैसे अचानक आई थी उससे अधिक अचानक खत्म हो गई। मैंने सचिन से पूछा - ‘आज महक यहाँ कैसे? स्कूल नहीं गई?’ सचिन ने सस्मित उत्तर दिया - ‘आज मैंने इसे स्कूल जाने से रोक लिया। आज सुबह से यह मेरे साथ है।’ मुझे तनिक विस्मय हुआ। आज तो क्षमापना दिवस है! सचिन तो आज ‘उत्तम क्षमा याचना’ हेतु सुबह से घूमता रहा होगा? भला इसमें महक का क्या काम?
मेरी आँखों में उभरा सवाल सचिन ने आसानी से पढ़ लिया। आलस झटकते हुए बोला - ‘‘अंकल! ‘क्षमापना’ से परिचित कराने के लिए मैंने आज इसे स्कूल नहीं जाने दिया और सुबह से अपने साथ लिए घूम रहा हूँ ताकि यह पर्यूषण का मतलब और महत्व समझ सके। दिन भर से मैं इसके सवालों का जवाब दे रहा हूँ। यह छोटी से छोटी बात पर सवाल कर रही है और मैं जवाब दिए जा रहा हूँ। अब यह पर्यूषण का मतलब और महत्व पूरा का पूरा न सही, काफी कुछ तो समझेगी।’’
सचिन की बात सुनकर मुझे रोमांच हो आया। झुरझुरी छूट गई। सचिन अभी पैंतीस का भी नहीं हुआ है। उसे इस बात मलाल है कि वह अपने धर्म की कई बातों, परम्पराओं से अनजान है। वह सहजता से स्वीकार करता है कि वह इन सारी बातों को जानने की कोशिश कर रहा है, सीख रहा है। अपना यह अधूरापन उसे अच्छा नहीं लगता। इसी बात ने उसे प्रेरित किया। हम समझते हैं कि बच्चे स्कूल में सब कुछ सीखते हैं। यह हमारा भ्रम है। वहाँ तो वे किताबी बातों से परिचत होते हैं, अच्छे अंकों से परीक्षा उत्तीर्ण करने के गुर सीखते हैं। वहाँ वे ‘जिन्दगी’ नहीं सीखते। ‘जिन्दगी’ तो बच्चे अपने घर में ही सीखते हैं। हम बड़े-बूढ़े बच्चों को डाँटते हैं कि वे हमारा कहा क्यों नहीं मानते। उस समय हम भूल जाते हैं कि उनके लिए हमारा ‘कहा’ कम और हमारा ‘किया’ अधिक मायने रखता है। बच्चे, अपने बड़ों की ही तो नकल करते हैं? घर में जो कुछ देखते हैं, वही तो वे भी करते हैं? जरा याद करें, हमारे घर की बातें बच्चों के जरिए ही सड़कों तक आती हैं! इसीलिए ऐसा होता है कि जब समूचा नगर अपने निर्वस्त्र राजा की जय-जयकार रहा होता है तो एक बच्चा कहता है - ‘राज तो नंगा है।’ बच्चे ने नगरवासियों के जयकारे में अपनी आवाज नहीं मिलाई। उसने तो वही कहा जो उसने देखा!
हम अपने बच्चों की शिकायत करते हैं कि वे हमारी संस्कृति, हमारी परम्पराओं से दूर हो रहे हैं। वे हमारे देवी-देवताओं की हँसी उड़ाते हैं। उनकी यह अगम्भीरता, परम्पराओं की यह अवहेलना हमें कचोटती है। किन्तु उस समय हम भूल जाते हैं कि अपनी परम्पराओं से हम ही उन्हें दूर करते हैं - कभी बच्चों की जिद मानकर तो कभी उनके कैरीयर का हवाला देकर। कुटुम्ब में कोई मांगलिक प्रसंग हो तो हम सपरिवार जाने की सोच ही नहीं सकते। कभी बच्चे की परीक्षा तो कभी टेस्ट तो कभी उसके स्कूल का कोई आयोजन आड़े आ जाता है। यह सब न हो तो उसकी कोचिंग कक्षा तो आड़े आ ही जाती है। तब, बच्चे को घर में छोड़कर हम उत्सव, त्यौहार में शामिल होते हैं। हमारे बड़े-बूढ़े और हमारे बच्चे आपस में एक दूसरे की शकल भी नहीं पहचानते। उन्हें (बच्चों को) रिश्ते समझाने पड़ते हैं। बरसों-बरस बीत जाने के बाद अचानक जब हमारे बच्चों का आमना-सामना हमारे कुटुम्बियों से होता है तो हमें खिसिया कर रह जाना पड़ता है। कहना पड़ता है - ‘ये तुम्हारे फूफाजी हैं। इनके पाँव छुओ।’ तब बच्चा पाँव छूता तो है किन्तु फूफाजी को पहचानने की जरूरत ही अनुभव नहीं करता - बरसों में आज पहली बार मिले हैं, पता नहीं आज के बाद फिर कितने बरसों में मिलेंगे? याद रखने का झंझट कौन पाले? जब मिलेंगे तक देखा जाएगा। यही हाल हमारे सांस्कृतिक, पारम्परिक सन्दर्भों का भी है। पंगत में बैठ कर भोजन करना तो हमारे बच्चे भूल ही गए हैं। कभी पंगत में बैठ कर भोजन करते भी है तो पंगत-परम्परा की जानकारी उन्हें नहीं होती। पंगत में जीम रहा प्रत्येक व्यक्ति जब तक जीम न ले, तब तक नहीं उठने की परम्परा हमारे बच्चों को कैसे याद रहे?
सचिन का महक को स्कूल जाने से रोक लेना मुझे ये सारी और ऐसी ही अनेक बातें याद दिला गया। यदि हम अपने बच्चों को अपनी संस्कृति, अपनी परम्पराओं से वाकिफ बनाए रखना चाहते हैं तो हमें उसकी कीमत तो चुकानी ही पड़ेगी और आज के हालात में यह कीमत, कैरीयरवाद से आंशिक मुक्ति पाए बिना मुझे सम्भव नहीं लगती। सचिन ने महक को एक दिन स्कूल जाने से रोका। मुमकिन है, महक को उस दिन का होम वर्क करने के लिए अगले दिन ज्यादा वक्त लगाना पड़ा होगा। किन्तु तीसरी कक्षा में पढ़ रही सात-आठ साल की बच्ची, पर्यूषण और क्षमापना पर्व का महत्व अपने जीवन में शायद ही कभी भूल पाए।
बात तो छोटी सी ही है किन्तु देखिए न, कितनी बड़ी बन गई? कहाँ पहुँच गई?
सुन्दर प्रसंग। सच है, सुविधा की बेडी को झटके बिना संस्कार की सुगन्ध कैसे आयेगी?
ReplyDeleteपरंपरा, संस्कार और रूढि़यां अपनी पहचान बदलती रहती हैं, कभी खुद, कभी देखने वाले के नजरिए के साथ.
ReplyDeleteपरम्पराओं का महत्व तो समझना ही होगा।
ReplyDeleteयह तो बात का बतंगड हो गया- ना छोटी न बड़ी:)
ReplyDeleteहम बच्चों को सिखाये ही नहीं तो वे सीखेंगे कैसे ...
ReplyDeleteसही है !
Sahi kaha aapne....Abhar
ReplyDeleteकितनी ठोस बात कही है आपने. हमारी परम्पराओं से बच्चे यदि अनजान हैं तो दोषी तो पलक ही हैं.
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