इसका शीर्षक आप ही दीजिए

यह सब अनूठी, अनपेक्षित, विचित्र और उल्लेखनीय भले ही न हो किन्तु ‘लेखनीय’ और प्रथमदृष्टया रोचक तो है ही।

आयु में मुझसे छोटे किन्तु मेरे संरक्षक की भूमिका निभा रहे सुभाष भाई जैन के आग्रह पर हम लोगों ने एक संस्था बनाई। यह संस्था क्या करेगी और कैसे करेगी, इस पर बात करूँगा तो विषय भंग हो जाएगा। तनिक (याने भरपूर) सोच-विचार के बाद इसका नाम दिया गया - ‘हम लोग।’ इसका कामकाज कुछ ऐसा कि इससे जुड़ने पर ‘दो पैसे’ भी देने पड़ेंगे, हाजरी भी देनी पड़ेगी और मिल गई तो कोई जिम्मेदारी भी निभानी पड़ेगी। ऐसी अटपटी शर्तें माननेवाले ‘सूरमा’ कौन-कौन हो सकते हैं, यह याद करते हुए हम लोगों ने अपने-अपने परिचय क्षेत्र के ऐसे साहसी लोगों के नाम लिखने शुरु किए। हम आठ लोग मिल कर ऐसे सौ लोग भी तलाश नहीं कर पाए। आँकड़ा अस्सी को भी नहीं छू सका।

कोई दस महीनों की मशक्कत के बाद छाँटे गए, ‘अपना घर बारनेवाले’ इन्हीं सम्भावित शूरवीरों के साथ पहली बैठक बुलाई गई इसी ग्यारह सितम्बर रविवार को। शनिवार रात से ही अच्छी-खासी बरसात शुरु हो गई थी जो रविवार को भी जस की तस बनी रही। स्थिति कुछ ऐसी कि यदि बैठक हम ने ही नहीं बुलाई होती तो हम भी नहीं जाएँ। बैठक के निर्धारित समय दस बजे से कोई आधा घण्टा पहले मैं पहुँचा तो पाया कि मुझे ही सबकी अगवानी करनी है। हम आठ-दस भी सबके सब लगभग ग्यारह बजे एकत्र हो पाए। धीरे-धीरे लोग आने शुरु हुए। जिन पर खुद जितना भरोसा था ऐसे कुछ लोगों को डाँट-डपट कर तो कुछ से गिड़गिड़ाकर, बैठक में आने को कहा। बारह बजते-बजते हम लगभग चालीस लोग एकत्र हो गए।

बैठक शुरु हुई। संस्था के बारे में मैंने बताया और आमन्त्रितों के विचार जानने का सिलसिला शुरु हुआ। दो को छोड़कर शेष सब बोले। कोई पौने दो बजे बैठक समाप्त हुई। गपियाते हुए और अपने-अपने वक्तव्यों को परस्पर दोहराते हुए सबने सह-भोज का आनन्द लिया। तीन बजते-बजते हम लोग अपने-अपने घरों में थे।

सोमवार के अखबारों ने हमें चकित किया। प्रमुख अखबारों ने हमारी अपेक्षाओं और अनुमानों से कहीं अधिक विस्तार और प्रमुखता से सचित्र समाचार छापे थे। हम आठ-दस ने फोन पर एक-दूसरे को बधाइयाँ दीं। हम सब ‘परम प्रसन्न’ थे। लगा, ‘अच्छी शुरुआत याने आधी सफलता पर कब्जा’ वाली कहावत सच हो गई हो।

सुबह कोई पौने ग्यारह बजे एक परिचित का फोन आया। ‘हम लोग’ के गठन के लिए बधाइयाँ दी और कहा - ‘इसमें मेरा नाम भी लिख लीजिएगा।’ मैंने शर्तें बताईं तो बोले - ‘सुने बिना ही आपकी सारी शर्तें मंजूर हैं।’ उसके बाद, एक के बाद एक कुल जमा सात फोन आए और प्रत्येक ने अपना नाम लिखने और सारी शर्तें मानने की बात कही। अगले दिन, मंगलवार को छः फोन आए और सबने उसी प्रकार ‘आँख मूँदकर सारी शर्तें कबूल’ की तर्ज पर ‘हम लोग’ से जुड़ने की बात कही। मैंने ‘आठ-दस’ में बाकियों से सम्पर्क किया तो मालूम हुआ कि दो के पास ऐसे ही, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़ने के लिए एक-एक फोन आ चुके हैं। याने कुल पन्द्रह लोग अपनी ओर से जुड़े, ‘हम लोग’ की शर्तों पर जुड़े और अपनी ओर से फोन करके जुड़े। मेरी प्रसन्नता अब कौतूहल में बदल गई। यह क्या हो रहा है? क्या सतयुग आ गया कि लोग पैसे भी देने, हाजरी भी बजाने और जिम्मेदारी भी कबूलने को तैयार हो रहे हैं! खुद-ब-खुद! आगे होकर फोन करके हैं! मुझे तनिक घबराहट हुई - कहीं समाचारों में ‘हम लोग’ के कामकाज के बारे में कोई भ्रामक बात तो नहीं छप गई कि लोगों ने इसे ‘एण्टरटेनमेण्ट क्लब’ तो नहीं समझ लिया? सारे समाचार एक बार फिर पढ़े - खूब ध्यान से। नहीं। किसी भी अखबार में एक शब्द भी भ्रामक या अनर्थ करनेवाला नहीं था। फिर यह क्या हो रहा है? क्यों हो रहा है? पूछूँ तो किससे पूछूँ?

उलझन रात भर बनी रही। सुबह भी उलझन जस की तस थी। चाय के साथ अखबार-पान चल रहा था कि मोबाइल की घण्टी बजी। इस बार भी वही आग्रह था। बात शुरु होते ही मैंने तय कर लिया - इनसे पूछूँगा। वे फोन रखते उससे पहले ही मैंने कहा - ‘आखिर ऐसी क्या बात हो गई कि आप महरबान हो गए?’ उनके जवाब ने मुझे धरती पर ला पटका। वे फोन बन्द कर चुके थे। मुझे सम्पट बँधती कि एक और फोन आया। सब कुछ वही का वही। मैंने इनसे भी पूछा - ‘क्यों?’ इनका जवाब भी वही रहा जो पहले का था। अब मुझे बात समझ में आई। पहले तो मैं खूब हँसा - अकेले ही, किन्तु कुछ ही क्षणों में मेरी हँसी बन्द हो गई। इस बात पर मेरा हँसना वाजिब होगा या चिन्ता करना? मैं खुद से कोई जवाब पाता कि एक के बाद एक तीन फोन लगातार आ गए। तीनों ने मानो पहले आपस में बात की हो और फिर मुझे फोन किया हो। केवल शब्दों का अन्तर किन्तु सन्देश भी और मेरी जिज्ञासा का जवाब भी वही का वही।

मैंने ‘वह बात’ जान बूझ कर अब तक नहीं लिखी है। यकीन मानिए, नामों की सूची बनाते समय हममें से किसी का ध्यान इस ओर नहीं गया था। हममें से प्रत्येक ने संस्था के उद्देश्यों के अनुरूप सम्भावित सहयोगियों के नाम लिखे थे। किन्तु अनजाने में ही हम आठ-दसों ने वह समानता बरत ली जो मेरी जिक्षासा का उत्तर बनी। बाद में मैंने पहले दो दिनों में फोन करनेवाले पन्द्रह लोगों में से कुछ से पूछा तो उनसे भी वही बात सामने आई।


अब तक आपकी जिज्ञासा बढ़ गई होगी और कोई ताज्जुब नहीं कि आप मुझ पर चिढ़ने लगे हों। तो सुन लीजिए वह जवाब जो अलग-अलग शब्दों में कमोबेश एक ही था - ‘आपकी संस्था पर हमें विश्वास है कि आप झाँकीबाजी और दुकानदारी नहीं करेंगे क्योंकि जितने नाम छपे हैं उनमें किसी भी नेता का नाम नहीं है।’

9 comments:

  1. "हम लोग" की स्थापना पर बधाई हो! आपको जाना तब ही ऐसा अन्दाज़ था कि किसी दिन ऐसा कुछ होगा - कब के बारे में पता न था। विश्वास वाकई बड़ी शक्ति है और तथाकथित नेता जनता का विश्वास खो चुके हैं यह दोनों ही बातें सर्वमान्य हैं परंतु तीसरी बात जो आपने बताई सतयुग की - तो सतयुग तो बहुत लोगों के हृदय में आज भी बसा है और अपना मार्ग ढूंढ रहा है। "हम लोग" जैसी संस्थायें उसे वह दिशा दे पायें, यही कामना है।

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  2. नेताओं पर विश्वास की घटती पूँजी लोकतन्त्र के लिये घातक है।

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  3. "हम लोग" की सार्थक पहल की शुभकामनाएं

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  4. शुभकामनाएं, दुनिया हम जैसी सोचते हैं, वैसी नहीं है और जैसा नहीं सोचते, वैसी भी है.

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  5. यह इस बात का द्योतक तो है की लोग राजनीति और राजनीतिज्ञों से कितना ऊब चुके हैं. एक सार्थक पहल और सफलता के लिए बधाईयाँ.

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  6. मगर, आप तो हमारे "नेता" हैं!

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  7. कहीं संस्था के नामे पर आश्रम तो नहीं खोल दिया है| थोड़े दिन पहले ही आपने आश्रम खोलने का चिटठा लिखा था :) मुझे तो बहुत ज्यादा जिज्ञासा हो चली है संस्था का काम जानने की | अब अख़बार में छपा है तो हमे भी बता ही देते :)

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  8. हम तो नहीं है इसमें , पर हम लोग के लिए शुभकामनाएं॥

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