कृतज्ञ-सजल नयनों की निमिष-निधि

कभी, कहीं पढ़ा था कि समय कि सबसे छोटी इकाई होती है - निमिष। पलक झपक कर उठने में जितना समय लगता है, समय के इसी अंश को निमिष कहते हैं। खुशियों का यही, एक निमिष किस तरह पूरी जिन्दगी ढक लेता है, किस तरह ‘आजीवन अनमोल निधि’ बन जाता है, इसी दैवीय अनुभव से अभी-अभी गुजरा हूँ। छोटी सी बात समझने में कितनी उमर बीत जाती है, यह भी अभी-अभी ही समझ पा रहा हूँ।


कैलाश भी बीमा अभिकर्ता है। अवस्था और अभिकरण (एजेन्सी) अवधि, दोनों में अवश्य मुझसे कनिष्ठ है किन्तु बीमा-ज्ञान के मामले में मैं उससे परामर्श लेता हूँ। यहाँ भले ही मैं कैलाश के लिए तृतीय पुरुष, एक वचन प्रयुक्त कर रहा हूँ किन्तु सामने तो प्रथम पुरुष, एक वचन प्रयुक्त करते हुए ‘कैलाशजी’ ही सम्बोधित करता हूँ। कैलाश शर्मा उसका पूरा नाम है और मूलतः राजस्थान निवासी है। आजीविका-अर्जन उसे रतलाम ले आया। उसका देहातीपन मुझे लुभाता है यह कहिए कि उसकी जीवन शैली और व्यक्तिगत आचरण में मैं अपनी देहाती जीवन शैली और आचरण में अपना प्रतिबिम्ब देखता हूँ। सम्पर्क और सम्बन्ध ऐसे हो गए हैं कि वह मुझ पर और मेरी उत्तमार्द्ध पर ‘आदरपूर्ण स्नेहाधिकार’ रखता है। मैं भी उसे, कभी-कभार अपनी गृहस्थी के छोटे-मोटे काम-काज बता देता हूँ जिन्हें वह प्रसन्नतापूर्वक कुछ इस तरह करता है मानो प्रतीक्षा ही कर रहा हो।

इसी कैलाश ने अभी-अभी अपने नए आवास-भवन का भूमि पूजन किया। समय था - सुबह साढ़े आठ बजे का। कैलाश भली प्रकार जानता है कि सुबह जल्दी उठने में मेरी नाड़ियाँ टूटती हैं। उसने कहा - ‘साहबजी! शनिवार को सुबह साढ़े आठ बजेपूजन है।’ वह भूमि पूजन करनेवाला है, यह तो पता था किन्‍तु किस दिन होगा, यह पता नहीं था। सो, कैलाश की बात सुनकर मुझे खुशी हुई। हाथ मिलाकर उसे बधाइयाँ दीं तो उसकी आँखें बोलती नजर आईं। लगा, वह कुछ और भी कहना चाहता था किन्तु कहा नहीं।


शनिवार को नींद तो जल्दी खुल गई किन्तु ‘दास मलूका’ का ‘अजगर’ बन, बिस्तर में पड़ा-पड़ा, ऊँचा-नीचा होता रहा। उठते ही याद आ गया था कि आज कैलाश का भवन भूमि पूजन मुहूर्त है। ‘मुझे वहाँ जाना चाहिए’ यह विचार तो नहीं आया किन्तु भूमि पूजनवाली बात, मन-मस्तिष्क पर बराबर ‘ठक्-ठक्’ कर रही थी। यह ‘ठक्-ठक्’ धीरे-धीरे बढ़ने लगी - आवृत्ति में भी और आवाज में भी। कुछ ही पलों में स्थिति यह हो गई कि चाय के ‘सिप’ की जगह भी यही ‘ठक्-ठक्’ सुनाई देने लगी और अखबारों की खबरों में भी ‘भूमि पूजन’ ही दिखाई देने लगा। लगे हाथों, कैलाश की बोलती आँखें भी नजर आने लगीं।


इस सबका एक ही मतलब था - ‘मुझे कैलाश के यहाँ भूमि-पूजन में जाना चाहिए।’ ‘चाहिए’ नहीं, ‘जाना ही है।’ और मेरा काया पलट हो गया। अजगरपन हवा होकर हरकत में बदल गया। चाय और आखबार, दोनों ही अधूरे छोड़ मैं तैयार होने लगा। उस दिन न तो प्राणायाम किया और न ही देव पूजा। स्नान कर, फटाफट तैयार हो भूमि पूजन स्थल पहुँचा तो देखा, पूजन प्रक्रिया प्रारम्भ हो चुकी थी। कैलाश और उसकी पत्नी जया, पुरोहित के निर्देशानुसार पूजा-उपक्रम सम्पादित कर रहे थे। उनका बेटा दिव्यश कौतूहल भाव से देख रहा था। स्कूल जाने के कारण दोनों बेटियाँ, प्रियंका और डिम्पी अनुपस्थित थीं। कैलाश के विकास अधिकारी श्रीसुजय गुणावत तथा एक और सज्जन मौजूद थे। थोड़ी ही देर में एक और अभिकर्ता राजेन्द्र मेहता भी पहुँच गया।


अचानक ही मेरा ध्यान गया - ‘मौके पर कोई फोटोग्राफर नहीं है।’ इस क्षण तक नहीं जानता कि मैंने ऐसा क्यों किया किन्तु मैं अपने मोबाइल से आयोजन के चित्र उतारने लगा। साढ़े नौ बजते-बजते पूजा सम्पन्न हो गई। कैलाश और जया ने प्रणाम किया, मुँह मीठा कराया। कैलाश ने कहा - ‘साहबजी! परसों से लेकर आज सुबह तक, आठ-दस बार जी में आया कि आपको यहाँ आने के जिए कहूँ लेकिन आपको जानता हूँ इसलिए कहने की हिम्मत नहीं हुई। आपने आकर मेरी मनोकामना पूरी कर दी।’ मैं हँस कर रह गया। कुछ ही क्षणों में हम अपने-अपने घर लौट आए।


रास्ते में ही विचार आया - ‘ये चित्र मेरे तो किसी काम के नहीं। किन्तु यदि ये चित्र आज ही कैलाश के घर पहुँच जाएँ तो पूरे परिवार को कितनी खुशी होगी?’ मैं सीधा फोटो स्टूडियो पहुँचा। पूछताछ में मेरी उतावली देख कर स्टूडियो मालिक सुनील अग्रावत ने कहा कि दोपहर बारह बजे तक वे मुझे चित्र उपलब्ध करा देंगे।


अपने कुछ काम निपटा कर मैं भाजीबीनि के अपने शाखा कार्यालय पहुँचा। ठीक बारह बजे सुनील का फोन आया - ‘फोटो तैयार हैं।’ मैं तनिक व्यस्त था। कहा - ‘थोड़ी देर में आता हूँ।’ काम निपटाते-निपटाते एक बज गया। मैं उठ ही रहा था कि कैलाश भी पहुँच गया। मैंने कहा - ‘मेरे आने तक चले मत जाना। मेरी राह देखना।’ स्टूडियो पहुँचा, तब तक सब सामान्य था। किन्तु जैसे ही चित्रों का लिफाफा हाथ में आया, मुझे रोमांच हो आया, यह सोचकर कि चित्र देखकर कैलाश को कितनी खुशी होगी। सामान्य से तनिक अधिक तेज गति से स्कूटर चलाकर कार्यालय पहुँचा। अभिकर्ता-कक्ष में जाकर कैलाश को बुलाया और लिफाफा उसे सौंपते हुए कहा - ‘यह आपके लिए सरप्राइज है।’ कैलाश ने जिज्ञासापूर्वक, सवालिया नजरों से मेरी ओर देखते हुए लिफाफा खोला और यह जानते ही कि ये आज सम्पन्न हुए भूमि पूजन के चित्र हैं, मानो संज्ञा-शून्य हो गया। उससे बालते नहीं बना। अत्यन्त कठिनाई से, (कुछ ऐसे मानो कि उससे जबरन बुलवाया जा रहा हो) बोला - ‘साहबजी! इतनी जल्दी?’ और उसने चित्र देखना शुरु किया। वह चित्र देख रहा था और मैं उसका चेहरा। चित्रों के रंग उसके चेहरे पर फैलते जा रहे थे। उसकी खुशी देखते ही बन रही थी।


कोई तीस-पैंतीस चित्र देखने में कैलाश को बहुत अधिक समय नहीं लगा। दोनों हाथों में चित्र थामे उसने मेरी ओर देखा और मानो पाताल की गहराई में खड़ा होकर बोल रहा हो, कुछ इतनी ही धीमी आवाज में बोला - ‘साहबजी! यह तो मैंने बिलकुल ही नहीं सोचा था।’ यह वाक्य कहने में कैलाश को पलक झपकने जितना भी समय नहीं लगा। किन्तु निमिष मात्र में यह सब जो हुआ, वह सामान्य और छोटी घटना नहीं थी। इतनी बड़ी और इतनी व्यापक कि उसने मेरे मन-मस्तिष्क को ढक लिया।


कैलाश की आँखें झलझला आई थीं और उसका मन्द स्वर इतना भारी और इतना भीगा हुआ मानो आषाढ़ के पहले दिन बरसनेवाला वह बादल जिसके आसपास अकूत-असीमित खुशियों की बिजलियाँ नाच रही हों।


निमिष मात्र में उठी कैलाश की वह सजल कृतज्ञ दृष्टि और कहा गया वह एक वाक्य मेरी अमूल्य जीवन निधि बन गया। जो कुछ मैंने किया था उसका और चित्रों का आर्थिक मूल्यांकन तो पल भर में हो सकता है किन्तु इससे जो खुशी कैलाश को हुई और उस खुशी से उपजी उसकी एक नजर और एक वाक्य ने मुझे खुशियों से जिस तरह निहाल किया, उसका आर्थिक मूल्यांकन तो कुबेर भी नहीं कर सकेगा। मेरे लिए तो यह सब ‘राज तिहुँ पुर को तजि डारो’ जैसी निधि बन गया।


खूब सुना है और कई बार कहा भी है - ‘किसी को खुशी देने से बड़ी खुशी और कोई नहीं होती।’ किन्तु यह ‘सुनी और कही’ अब समझ पड़ रही है, जीवन के पैंसठवे बरस में - इस एक निमिष के माध्यम से।

5 comments:

  1. दूसरों के लिए किया गया छोटा सा कार्य भी ख़ुशी देता है , सच ही !

    ReplyDelete
  2. छोटे-छोटे लेकिन सार्थक सुखद पल.

    ReplyDelete
  3. पल शब्‍द भी पलक झपकने से बना होगा, निमिष या निमेष का प्रयोग होता है, निर्निमेष यानि अपलक.

    ReplyDelete
  4. एक निमिष में सुख के बाँध खुल जाते हैं, अचानक से।

    ReplyDelete
  5. विष्णु जी, आपकी यह पोस्ट हृदय को आर्द्र कर गयी। आभार!

    ReplyDelete

आपकी टिप्पणी मुझे सुधारेगी और समृद्ध करेगी. अग्रिम धन्यवाद एवं आभार.