हिन्दी दिवस प्रसंग पर मैं, बैंक ऑफ बडौदा की स्टेशन मार्ग शाखा में मुख्य अतिथि के रूप में उपस्थित था । ऐसे आयोजनों को मैं 'राजभाषा अधिनियम के प्रावधानों के परिपालन हेतु, विवशतावश किए जाने वाले शासकीय पाखण्ड' ही मानता हूं । ऐसे आयोजनों में आत्मीयता और सहज प्रसन्नता पर खानापूर्ति की मानसिकता शुरु से लेकर अन्त तक हावी रहती है । इसके बावजूद ऐसे आयोजनों में मैं इसलिए शरीक होता हूं कि जैसे भी हों, अन्तत: ये हिन्दी के लिए हैं और हिन्दी न केवल मेरी मातृ भाषा है अपितु मैं अपने परिवार के लिए दो जून की रोटी भी हिन्दी से ही हासिल कर पा रहा हूं, इसलिए मेरी जिम्मेदारी और अधिक बढ जाती है । तिस पर भाई श्री प्रकाश अग्रवाल और श्री प्रकाश जैन का ऐसा आग्रह जिसमें वे मेरी मंजूरी पहले ही मान चुके थे और मुझसे उसकी पुष्टि भर चाहते थे । सो, मैं अपने पूरे मन से वहां पहुंचा ।
आयोजन का समय, बैंक के कामकाजी समय में ही था । इसलिए, जैसा कि होना ही था, श्रोताओं की उपस्थिति गिनती की थी, बैंक शाखा के कुछ कर्मचारी, चाह कर आयोजन में उपस्थित नहीं हो सकते थे । वे अपना काम करते हुए आयोजन को देख-सुन रहे थे । याने आयोजक, अतिथि और श्रोता - सबके सब न केवल एक दूसरे को भली प्रकार देख पा रहे थे बल्कि एक दूसरे को व्यक्तिगत स्तर पर जानते भी थे ।
कर्मचारी मित्रों ने 'क्या राष्ट्रीयक़त बैंक, निजी बैंकों की चुनौती स्वीकार करने में समर्थ हैं' विषय पर एक वाद विवाद प्रतियोगिता रखी थी । निर्णायक मैं ही था । पक्ष में बोलने वाले अधिक थे जबकि प्रतिपक्ष में कुल दो कर्मचारी बोले । श्रीमती सुरेखा सक्सेना पक्ष में और श्री प्रकाश जैन प्रतिपक्ष में प्रथम रहे । श्रीमती सुरेखा सक्सेना ने मुझे चौंकाया । मैं जब-जब भी बैंक में गया (मेरा बचत खाता इसी बैंक में है) तब-तब मैं ने उन्हें चुपचाप, अपना काम करते पाया । वे तभी बोलती हैं जब कोई उनसे कुछ पूछता है । लेकिन उस दिन वे जिस सुन्दर वाक्य रचना, शब्द चयन और धारा प्रवहता से बोलीं वह मेरे लिए अनूठा ही था ।
लेकिन जिस बात को लेकर मैं यह टिप्पणी लिख रहा हूं वह भाई प्रकाश जैन ने कही । निजी बैंकों के काम काज की विशिष्टताएं गिनवाते हुए उनकी दो बातों ने मेरा ध्यान विशेष रूप से आकर्षित किया । पहली तो यह कि निजी बैंकों के कर्मचारियों में नौजवानों का प्राधान्य है जबकि राष्ट्रीयकृत बैंकों में अधेडों-बूढों की भीड दिखाई देती । जाहिर है कि वर्तमान से जुडने और वर्तमान की आवश्यकताओं को अनुभव करने में बूढों-अधेडों के मुकाबले नौजवानों को अधिक कामयाबी मिलती है । वे किसी भी बदलाव के लिए तैयार रहते हैं जबकि बूढे-अधेड अपनी मानसिकता और मान्यताओं को बदलने के लिए शायद ही तैयार हो पाते हों । इससे भी आगे बढकर, वे तो नौजवानों की समझ पर भी विश्वास नहीं कर पाते । जिस समाज का 54 प्रतिशत युवाओं के कब्जें में हो, वहां यह बात बहुत ही महत्वपूर्ण है । पीढियों के इस अन्तर को इस तरह समझा जा सकता है कि प्रत्येक बाप अपने बेटे की पात्रता, योग्यता, क्षमता पर सन्देह करता रहता है, भले ही यह सन्देह वह अपने बेटे का हित चिन्तन करते हुए, शुभेच्छापूर्वक और सम्पूर्ण सदाशयता से करता हो ।
दूसरी बात प्रकाशजी ने जो कही वह मुझे बहुत अधिक खतरनाक लगी । उन्होंने कहा कि निजी बैंक अपने अपनी लक्ष्य पूर्ति के लिए 'आक्रामक विपणन नीति' (एग्रेसिव मार्केटिंग स्ट्रेटेजी) अपनाए हुए हैं जिसमें न तो किसी की भावना की चिन्ता की जाती है और न ही किसी को सोचने का अवसर दिया जाता है । इसी बात ने मुझे गहरे सोच और चिन्ता में डाल दिया ।
उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण (एलपीजी) के चलते हमने हमारे बच्चों का बचपन छीन कर उन्हें पूरी तरह से 'कैरीयरिस्ट' बनने के लिए धकेल दिया । हमने उनसे त्यौहार छीन लिए और दादी-नानी की कहानियां छीन लीं । देश में छाया हुआ भौतिकतावाद और उपभोक्तावाद इन्हीं नीतियों की देन है । हमारी भाषा ही नहीं बदली, हमारा सोच, हमारी प्राथमिकताएं, हमारा व्यवहार याने सब कुछ बदल गया है । हममें से प्रत्येक व्यक्ति इस स्थिति से परेशान भी है और चिन्तित भी लेकिन सबके सब असहाय हैं । ऐसे में अपने संस्कारों, परम्पराओं को क्षरित होते देखते रहने के लिए हम सब अभिशप्त हो गए प्रतीत होते हैं । 'आक्रामकता' जहां होगी वहां 'भावुकता' सबसे पहले बिदा होगी । जबकि हम 'पूरबवाले' अपनी भावनाओं के कारण ही दुनिया भर में पहचाने जाते रहे हैं । 'आक्रामक विपणन नीति' के क्रियान्वयन में हमारे बच्चे अनजाने में ही पहले तो भावनाविहीन और अन्तत: सम्वेदनाविहीन नहीं हो जाएंगे ? हमारे बच्चे 'पेकेज' के आंकडों को अपने जीवन का अन्तिम लक्ष्य मान कर 'रुपया बनाने वाले यन्त्र' बन कर रह जाएंगे ? क्या 'कैरीयरिस्ट' होने का मतलब असम्वेदन हो जाना होता है ? कुछ पाने के लिए कुछ खोना ही पडता है । लेकिन क्या यह नहीं देखा जाना चाहिए अधिक मूल्यवान क्या है - जो प्राप्त कर रहे हैं वह या जो खो रहे हैं वह ? यदि यह व्यापार है तो व्यापार के आधारभूत सिध्दान्तों को भी नहीं भूला जाना चाहिए ।
यकीनन, हम जो खो रहे हैं वह अधिक मूल्यवान, अधिक आवश्यक तथा अधिक मानवीय है । लेकिन इसे शायद इसलिए अनुभव नहीं किया जा रहा है कि प्राप्तियां हमें भौतिक रूप में (वस्तु या मुद्रा के रूप में) सीधे-सीधे नजर आ रही हैं, हमारे हाथ में आ रही हैं और जो हम खो रहे हैं वह निराकार है और जिसके जाने से (और निरन्तर जाते रहने से) हमें तत्काल कोई फर्क नहीं पड रहा है ।
कहीं ऐसा तो नहीं कि हम 'सुविधा' के लिए 'संस्कारों' का, अपनी 'संस्कृति' का, 'सम्पूर्ण भारतीयता' का भुगतान कर रहे हैं ?
बात तो आपकी सही है.
ReplyDeleteहर युग बदलता है
यह युग भी बदल रहा है
मूल्य बदल रहे हैं,
विचार बदल रहे हैं
लोगों के आधार बदल रहे हैं.
नहीं बदलें तो खो जायेंगे कहीं,
इसीलिये तो अब
संस्कार बदल रहे हैं.
लेकिन समाधान क्या है?
आपने जिस बात को उठाया है - वह हर पहली पीढ़ी अगली के लिये उठाती रही है. अब यह और प्रासंगिक लगता है क्योंकि परिवर्तन बड़ी तेजी से हो रहे हैं.
ReplyDeleteहम लोग पुराने हो गये बैरागी जी!
बैंकों में मुख्यतः आँकड़ों figures पर आधारित ही होता है सारा कार्य। अब कम्प्यूटरीकृत बैंकिंग में तो डैटाबेस ही एकमात्र आधार है। लेकिन हिन्दी डैटाबेस अपने आप में एक समस्या है। देवनागरी कम्प्यूटिंग की जटिलता के कारण ही हिन्दी का विकास अवरुद्ध होता है। 'मानसिकता', 'राजनीति', 'राष्ट्रप्रेम', 'प्रेरणा', 'प्रोत्साहन' आदि शब्द सिर्फ भाषणबाजी के अंग हैं। वास्तविक तथ्य नहीं।
ReplyDeleteऐसे ही तो दुनिया चलती है बैरागी जी. परिवर्तन के साथ बहें, कहीं हम बहुत पीछे न छूट जायें.
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