तस्करी यूं तो गैर कानूनी हरकत है, ऐसा दण्डनीय अपराध है जिसमें कम से कम दस साल की कैद सजा भुगतनी पड सकती है लेकिन जब खुद भगवान ही तस्करों के भागीदार हों तो कैसा कानून और कैसी सजा ?
मध्य प्रदेश के सीमान्त जिला मुख्यालय नीमच से राजस्थान की झीलों की नगरी उदयपुर जाने वाली सडक पर, नीमच से मात्र 80 किलो मीटर दूर स्थित है - राजस्थान और मालवा का प्रख्यात तीर्थ स्थल : श्री सांवलियाजी । यहां, भगवान श्री कृष्ण का, 400 वर्ष पुराना, अत्यन्त भव्य और विशाल मन्दिर है और मन्दिर में विराजित भगवान को 'भगवान श्री कृष्ण' के बजाय 'सांवलिया सेठ' के नाम से जाना-पहचाना-पुकारा जाता है । जिस गांव में यह मन्दिर बना है उसका नाम है - मण्डपिया । यह गांव राजस्थान के चित्तौडगढ जिले की निम्बाहेडा तहसील के अन्तर्गत आता है । 'सांवलिया सेठ' यूं तो सबकी मनौतियां पूरी करने के लिए जाने जाते हैं लेकिन अफीम तस्करों में ये न केवल विशेष लोकप्रिय हैं बल्कि अफीम तस्करों के बडे भरोसेमन्द भगवान भी हैं । इतने भरोसेमन्द कि वे इन्हें अपना पार्टनर बनाए हुए हैं । भरोसे की पराकाष्ठा यह है कि 'सांवलिया सेठ' को इन अफीम तस्करों का भागीदार बनना मंजूर है या नहीं - यह जाने की जरूरत भी अनुभव नहीं होती ।
तस्करी अभियान पर जाने से पहले या अभियान शुरू करने से पहले, ये तस्कर इस मन्दिर पर दर्शन के लिए आते हैं और मनौती मानने के साथ ही अपने अभियान की सफलता पर 'सांवलिया सेठ' की भगीदारी भी तय करते हैं । यह भागीदारी कभी आय का एक निश्चित प्रतिशत होती है तो कभी अफीम की निश्चित मात्रा । स्वैच्छिक रूप से, एकतरफा तय की गई इस भगीदारी को निभाने में ये तस्कर बडी ईमानदारी बरतते हैं और अभियान की सफलता पर तयशुदा नगद रकम या अफीम 'सांवलिया सेठ' की दान पेटी में डाल देते हैं । यह दान पेटी प्रत्येक महीने की अमावस्या को, सबके सामने खुलती है । इस दानपेटी से निकलने वाल रकम प्रति माह बढती जा रही है । जून 2007 में खुली पेटी में से 76 लाख रूपये निकले जो अब तक की सर्वाधिक राशि साबित हुई है । जुलाई और अगस्त के आंकडे अभी सामने नहीं आ पाए हैं । नकदी के अलावा सोने-चांदी के गहने भी दान पेटी से निकलते हैं । इस लिहाज से यह मन्दिर मालवा, मेवाड एवम् मारवाड का 'तिरूपति' बनता जा रहा है ।
मालवा-राजस्थान में अफीम की खेती न केवल लाभदायक सौदा माना जाता है बल्कि यह सामाजिक प्रतिष्ठा का एक महत्वपूर्ण पैमाना भी है । अफीम उत्पादक किसान को सम्पन्न माना ही जाता है । जिसके पास जितनी ज्यादा अफीम खेती का पट्टा (लायसेंस), वह उतना अधिक हैसियतदार । न्यूनतम सीमा - 10 आरी । आरी याने भूमि रकबे की एक इकाई । पट्टे (लायसेंस) के आधार पर किसान को सरकार को दी जाने वाली अफीम की न्यूनतम मात्रा का निर्धारण सरकार करती है जो वास्तविक उपज से कम ही होती है । सरकार को अफीम जमा करा देने के बाद जो अफीम बचती है वह तस्करी के जरिए बेच दी जाती है । इसमें खतरा तो अच्छा खासा होता है लेकिन लाभ उससे भी ज्यादा अच्छा खासा होता है । सो, प्रत्येक किसान कम से कम 10 आरी का पट्टा (लायसेंस) प्राप्त करने के लिए जी-जान लगा देता है । पट्टा (लायसेंस) जारी करने के प्रावधान इतने स्पष्ट और सख्त हैं कि इसमें राजनीतिक सिफारिश नहीं चल पाती है । ऐसे में किसानों और तस्करों को 'सांवलिया सेठ' का ही भरोसा होता है । 'लोक विश्वास' है कि 'सांवलिया सेठ' को 'पार्टनर' बनाने पर शत प्रतिशत सफलता सुनिश्चित है ।
दान पेटी में डाली गई रकम तो मन्दिर के बजट में आ जाती है लेकिन अफीम का क्या किया जाए ? उसे बेचना तो कठोर दण्डनीय अपराध है । सो, आसान और अनूठा रास्ता यह निकाला कि इस अफीम का घोल बना कर 'सांवलिया सेठ का चरणामृत' के रूप में दर्शनार्थियों को वितरित कर दिया जाए । सो, जब-जब भी 'सांवलिया सेठ' (अब आप चाहें तो इन्हें, 'तस्करों का पार्टनर' होने के कारण 'तस्कर सांवलिया सेठ' भी कह लें तो खुद 'सांवलिया सेठ' भी शायद ही प्रतिवाद करें) की दान पेटी में अफीम निकलती है तो 'अफीमचियों' की लॉटरी खुल जाती है ।
भगवान और धर्म के इस 'अनुपम उपयोग' पर नारकोटिक्स विभाग, राज्य सरकार और तमाम राजनीतिक दल 'एक ही थैली के चट्टे-बट्टे' की तरह चुप हैं । कौन बोले और क्या बोले ?
उदयपुर, नीमच, चित्तौड और निम्बाहेडा ये चारों नगर/कस्बे रेल्वे से जुडे हुए हैं (मुमकिन है कि ज्ञानदत्तजी ने इस मन्दिर की यात्रा की हो) और 'श्री सांवलियाजी' (याने मण्डपिया गांव) जाने के लिए ठसाठस भरी जीपें उपलब्ध रहती हैं । मण्डपिया में ढेरों धर्मशालाएं और दाल-बाटी वाले भोजनालय आपकी प्रतीक्षा कर रहे हैं । एक बार जाइए और इस विवरण की पुष्टि कीजिए । हां, यह जरूर बताइएगा कि 'सांवलिया सेठ का चरणामृत' का पान करने के बाद आप किस गति को प्राप्त हुए और उस गति में कितनी देर रहे ।
सांवलिया जी का मन्दिर उन गिने चुने मन्दिरों में है जहां से गुजरे पर मन्दिर में नहीं गये. कृष्ण वहां अलग सी दुकान जमा कर बैठे थे! :)
ReplyDeleteमें सोच रहा हूँ की नौकरी छोड़ कर इस मन्दिर में पंडित बन जाऊं. शायद ज्यादा कमाई हो जायेगी :)
ReplyDelete~अभिषेक
http://luckyabhishek.blogspot.com
आपका ब्लॉग पढ कर अच्छा लगा.......सेठ सांवलिया "अफीम की तस्तरी " करने वालो के कारन ही प्रसिद्ध नहीं अपितु वे तो "सेठो के सेठ" है आपने सायद थोडा प्रकाश "लख्खा भगत पर भी डाला होता तो लेख और अच्छा होता क्योकि लक्खा भगत न तो तस्तर था और न ही अमिर एक गरीब के गर पर ही विराजे है आज भी "श्री सांवलिया सेठ'................. गाय चराते लक्खा भगत को सपने मे ये मूर्ति दिखी थी .... और आपने जो अफीम तस्तारो की बात कही वो जोगनिया माता और कालिका माता चित्तोर्गढ़ के मंदिरों पर सटीक बैठती है
ReplyDeleteक्योकि हिस्सेदारी वहा ही डाली जाती है .....