'अक्षर' के आगे नतमस्‍तक 'राज दण्‍ड'

आज की सुबह आंखों को ठण्‍डक और मन को तसल्‍ली देने वाली हुई है । 'नईदुनिया' के अन्तिम पृष्‍ठ पर प्रकाशित एक चित्र ने मानो 'मंगल प्रभाती' की प्रस्‍तुति दी है ।




इस चित्र में, दिल्‍ली की मुख्‍यमन्‍त्री श्रीमती शीला दीक्षित, शब्‍द पुरुष, कवि त्रिलोचन को प्रणाम कर रही हैं । चित्र गाजियाबाद का है । याने मुख्‍यमन्‍त्री, कवि के निवास पर पहुंच कर उन्‍हें प्रणाम कर रही हैं । मुख्‍यमन्‍त्री के मन में क्‍या है, यह तो चित्र से जान पाना असम्‍भ्‍व प्राय: ही है, लेकिन जिस तरह लगभग दोहरी होकर, नेत्र बन्‍द कर वे प्रणाम कर रही हैं उससे प्रथम दृष्‍टया अनुभव होता है कि वे अन्‍तर्मन से ही यह सब कर रही हैं । यदि यह वास्‍तविकता है तो इससे बढिया बात और क्‍या हो सकती है ? यदि यह दिखावा है तो भी बुरा नहीं है ।




चित्र में, कवि त्रिलोचन के पीठ-कन्‍धों पर, बादामी किनारी वाली सफेद शाल दिखाई दे रही है । लगता है कि प्रणाम करने से पहले मुख्‍यमन्‍त्री ने शाल ओढाई है । प्रत्‍युत्‍तर में कवि त्रिलोचन भी अपनी गरिमानुरूप, माथा झुका कर, दोनों हाथ जोड कर अभिवादन कर रहे हैं । उनके नेत्र भी बन्‍द हैं ।




'अक्षर' से विमुख होते जा रहे इस समय में यह चित्र मन को बडी तसल्‍ली दे रहा है । राजनीति के लिए साहित्‍य तभी आवश्‍यक होता है जब वह उसके लिए 'लाभदायक' या 'विवशता' हो । वर्ना, 'राज दण्‍ड' तो 'शब्‍द' को 'क्रीत दास' से अधिक की हैसियत देने को कभी तैयार नहीं होता । मैं यह गुंजाइश रख कर चल रहा हूं कि शीला दीक्षित भी 'शब्‍द' के प्रति अनुरागवश, कवि त्रिलोचन के निवास पर नहीं पहुंची होंगी । वे किसी सरकारी औपचारिकता की पू‍र्ति करने की विवशता के अधीन ही वहां पहुंची होंगी । किन्‍तु फिर भी यह चित्र मन को सुकून दे रहा है, उम्‍मीदें जगा रहा है । 'सत्‍ता' सदैव इसी मुद्रा में दिखती रहे - यह कामना मन में ठाठें मार रही हैं ।




'नईदुनिया' हमारे इलाके का वह अग्रणी अखबार है जो ऐसे प्रसंगों को प्रमुखता से छापता रहता है । इसे 'पत्रकारिता का मदरसा' कहा जाता है । लेकिन उपभोक्‍तावाद के इस विकट समय में यह भी अछूता नहीं रह पा रहा है । शायद इसी कारण, यह चित्र अन्तिम पृष्‍ठ पर जगह पा सका है । वर्ना होना तो यह चाहिए था कि इसे मुख पृष्‍ठ पर जगह मिलती क्‍यों कि 'अखबार' भी अन्‍तत: 'अक्षर तनय' ही है । लेकिन खराबी में अच्‍छाई देखने की अपनी आदत के कारण मैं इस स्थिति में भी प्रसन्‍न हूं । आज अन्तिम पृष्‍ठ पर जगह मिली है, कल मुख पृष्‍ठ पर मिलेगी ।




अपने तकनीकी अज्ञान के कारण मैं यह चित्र यहां प्रस्‍तुत नहीं कर पा रहा हूं । क्षमा प्रार्थी हूं । लेकिन उम्‍मीद करता हूं कि गाजियाबाद से सैंकडों मील दूर, इन्‍दौर के अखबार ने जब इसे छापा है तो देश के अन्‍य अखबारों ने भी इसे छापा ही होगा ।




'साहित्‍य' के आगे नतमस्‍तक 'राजनीति', हमारे समाज का सर्वकालिक स्‍थायी भाव हो ।

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