मैं, स्‍वर्गवासी

'जब से बहू घर में आई है तब से घर स्‍वर्ग हो गया है और घर में रहने वाले हम सब स्‍वर्गवासी ।' जैसा मुहावरा भले ही आप मुझ पर फिट कर दें लेकिन मुझे कहने की इजाजत दीजिए कि गए दो दिनों से मैं खुद को सचमुच में 'स्‍वर्गवासी' अनुभव कर रहा हूं ।



वस्‍तुत: इस बार राखी के त्‍यौहार पर इस समय मेरे घर में हम 12 लोग मौजूद हैं । इनमें से 5 बडे हैं और 7 बच्‍चे । इन सात में एक, 27 वर्षीय मेरा बडा बेटा भी है लेकिन वह भी बच्‍चों में ही शरीक बना हुआ है । पूरा घर बच्‍चों की चहचहाट से गूंज रहा है । वे धमा चौकडी मचा रहे हैं, घर में यहां से वहां तक, नीचे से ऊपर तक दौड रहे हैं, उनमें से कौन किससे क्‍या कह रहा है-मुझे समझ नहीं पड रहा है लेकिन उन्‍हें सब कुछ सुनाई दे रहा है और समझ भी पड रहा है, भरपूर 'प्‍लाट एरिया' वाला मेरा मकान छोटा पड गया है, इतना छोटा कि मुझे लगने लगा है कि यह भाग-दौड करते हुए वे कहीं पडौस में, छाजेड साहब के घर में न घुस जाएं । उनकी आवाजें, महज आवाजें नहीं हैं । उनकी आवाजों में उल्‍लास, उन्‍मुक्‍तता, निर्बन्‍धता तो है ही, किसी और के होने से बेभान होने की सहज-कुदरती लापरवाही भी है । इस समय मुझे मेरा घर, घर नहीं, कोई पक्षी अभयारण्‍य लग रहा है जहां मुझे चुपचाप यह सब देखते-सुनते रह कर इसका अवर्णनीय आनन्‍द घूंट-घूंट पीते रहना है । ये क्षण, ईश्‍वर प्रदत्‍त ऐसे सुखद क्षण जो शायद मांगे से भी नहीं मिल पाएं ।



परिवार के नाम पर हम कुल चार सदस्‍य हैं - हमारे दो बेटे और हम पति-पत्‍नी । बडा बेटा नौकरी पर चेन्‍नई में पदस्‍थ है और छोटा बेटा हमारे साथ होते हुए भी हमारे साथ नहीं होता । वह अपने कमरे में, बुध्‍दू बक्‍से से उलझा रहता है या फिर 'आर्कुट' पर, अपने उन दोस्‍तों से सम्‍पर्क किए रहता है जो गांव के गांव में ही हैं । हमारा दाम्‍पत्‍य जीवन 31 वर्ष का हो चुका है और हम दोनो 'धणी-लुगाई' उम्र के इस मुकाम पर एक दूसरे के और एक दूसरे की आदतों के इतने आदी हो चुके हैं कि दो-दो, तीन-तीन घण्‍टे आपस में बात किए बिना ही एक दूसरे के काम करते रहते हैं । सो, नि:शब्‍दता या कि नीरवता हमारी ऐसी सहचरी बन गई है कि पत्‍ते का खडकना भी हमारा ध्‍यान भंग कर देता है ।



ऐसे में आप कल्‍पना कर सकते हैं कि मेरे घर का कण-कण कितना जीवन्‍त, कितना चहचहा रहा होगा । मुझे इतना अच्‍छा लग रहा है कि मैं ने अपने सारे काम स्‍थगित कर दिए हैं, बाहर जाने की इच्‍छा मर गई है, मैं इन पलों को पूरी जिन्‍दगी की तरह जी लेना चाह रहा हूं । अपनी आदत के मुताबिक बच्‍चे, किसी एक कमरे में बन्‍द होकर जब खेलना चाहते हैं तो मैं उन्‍हें अपने वाले हॉल में आकर खेलने की कहता हूं । वे अविश्‍वास और अचरज से मेरी ओर देखते हैं, कहते हैं -' आप डांटेंगे, चले जाने को कहेंगे ।' मैं उन्‍हें भरोसा दिला रहा हूं कि ऐसा नहीं होगा । बतौर 'ट्रायल' उन्‍होंने एक बार मेरा कहा माना । मैं अपनी बात पर कायम रहा और चुपचाप उन्‍हें देखता रहा । उसके बाद से वे बेफिक्र होकर 'हॉल' में ही बने हुए हैं । अपनी अधिकाधिक गतिविधियां यहीं पर संचालित, सम्‍पादित कर रहे हैं और मुझे इस बात पर भरोसा हो रहा है कि यदि सच्‍चे मन से कही जाए तो ईश्‍वर हमारी बात सुनता भी है और उसे पूरी भी करता है ।



कल राखी का त्‍यौहार हो गया है । बाहर से आए आठ में से दो-एक लोगों को शायद आज जाना पड सकता है । सबके अपने-आपने काम और नौकरियां हैं । चाह कर भी रूक पाना उनके लिए मुमकिन नहीं होगा । उन्‍हें रोकने की इच्‍छा तो हो रही है लेकिन उनकी विवशताओं को अनुभव करते हुए, ऐसा कर पाने की हिम्‍मत नहीं हो रही । ऐसे में मैं ईश्‍वर से यही प्रार्थना कर रहा हूं कि वे भले ही जाएं लेकिन अपने बच्‍चों को यहीं छोड जाएं । लेकिन मै जानता हूं कि यह भी सम्‍भव नहीं होगा । अव्‍वल तो बच्‍चे अपने मां-बाप के बिना रहेंगे नहीं । और यदि अन्‍य बच्‍चों के संग के लोभ में रह भी गए तो दूसरे बच्‍चों के जाते ही उन्‍हें अपने मां-बाप याद आने लगेंगे और तब वे जो क्रन्‍दन करेंगे, उसे शमित कर पाना हममें से किसी के भी बस से परे ही होगा । सो, इस आनन्‍द की समाप्ति की शुरूआत के लिए अभी से अपने आप को तैयार कर रहा हूं । जानता हूं कि ऐसे क्षण सदैव अस्‍थायी होते हैं । शायद, इनका अस्‍थायी होना ही इनका वास्‍तविक आनन्‍द भी है । सो, इस क्षण तो मैं 'सर्वानन्‍द' से सराबोर, अपनी बात लिख रहा हूं ।



जो होनी है, उसकी अग्रिम प्रतीति होने पर भी उसे रोक पाना हममें से किसी के बस में नहीं । सो, मैं वर्तमान के इस आनन्‍द को, इस स्‍वर्गीय सुख का निमिष-निमिष आत्‍मसात किए जा रहा हूं । आंखें झपकने को जी नहीं करता लेकिन वे झपकती हैं । जिन्‍हें जाना है, वे जाएंगे ही । (जाएंगे नहीं तो वापस कैसे आएंगे ? और और यदि वापस नहीं आएंगे तो यह स्‍वर्गीय सुख भोगने का चिराकांक्षित अवसर मुझे कैसे मिलेगा ?) सो मैं अपने आप को तैयार कर रहा हूं ।



हमारी लोक कथाओं का समापन अंश इस समय मुझे सर्वाधिक सहायता कर रहा है जिसमें लोक मंगल की अकूत भावना प्रकट होती है - 'जैसे उनके दिन फिरे, वैसे सबके फिरें ।' मैं ईश्‍वर से याचना कर रहा हूं - 'जो और जितना सुख मुझे मिला है, वह सब, उससे करोड गुना आप सबको मिले ।'


आमीन

10 comments:

  1. बहुत सुन्दर चित्रण किया है आपने । आपके ऐसे पल बार बार लौटें यही कामना करती हूँ ।
    घुघूती बासूती

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  2. आजकल मेरा घर और मेरा मन भी आपके घर और मन जैसा ही है

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  3. बहुत सुन्दर चित्रण किया है।

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  4. काश ये समय यही रुक जाये..

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  5. सुंदर । सच मानिए आंखें छलछला गईं ।

    मेरी एक कविता की पंक्ति है--
    परदेस में रहने वाले बच्‍चे
    नदी नाले और पहाड़ लांघकर पहुंचते हैं
    अपने छोटे से शहर में
    जब याद आती हैं उन्‍हें मां के हाथ की रोटी की
    और पिता की प्‍यार भरी डांट की ।।

    जब तक पहुंचते रहेंगे बड़े शहरों में रहने वाले बच्‍चे
    अपने छोटे शहरों में रहते मां बाप के पास

    तब तक विश्‍वास बना रहेगा
    कि अभी नष्‍ट नहीं होगी धरती
    अभी बचे रहेंगे परिवार
    अभी बचा रहेगा प्‍यार

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  6. बहुत जबरदस्त चित्रण रहा-वर्तमान के इस आनन्‍द को,जिसे आप इस स्‍वर्गीय सुख का निमिष-निमिष आत्‍मसात किए जा रहा हूं , को हमे चखाने का बहुत बहुत आभार.

    यूनूस भाई द्वारा पेश कविता भी दिल को छू गई..

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  7. स्वर्गवास का ऐसा सुकद अनुभव कौन प्राप्त नहीं करना चाहेगा? :)
    आपने लिखा इस तरह मानों मैं भी आपके उसी हाल में बैठा हुआ बच्चों की किलकारियाँ देख सुन रहा होऊं।

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  8. कुछ भी कहना लेख की गरिमा को कम करता है.

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  9. बहुत सुंदर!!
    उपरवाला ऐसे पल आपको बारम्बार नसीब करवाता रहे!!

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  10. घर घर की कहानी, एकदम अपनी सी बात
    वाह वाह...

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