इस समय शाम के साढे छ: बजने वाले हैं । मेरा छोटा बेटा तथागत अनमना, इधर-उधर घूम रहा है । थोडी-थोडी देर में बुध्दू बक्सा चालू करता है, रिमोट के बटन दबा-दबा कर, चैनलें बदल-बदल कर देख रहा है । जिन चैनलों पर क्रिकेट का स्कोर दिखाया जा रहा है, उन चैनलों को कुछ क्षणों तक देखता है और झुंझला कर बुध्दू बक्सा बन्द कर, रिमोट फेंक कर अपने कमरे में जा रहा है । उसे चैन नहीं पड रही है । दरअसल, 'एन पॉवर ट्राफी' क्रिकेट प्रतियोगिता में आज भारत और इंगलैण्ड के बीच श्रृंखला का तीसरा, अन्तिम और निर्णायक टेस्ट मैच है । पहला मैच अनिर्णीत कराने में सफल हो और दूसरा जीत कर भारत इस श्रृंखला में 1-0 की बढत लिए हुए है । भारत यदि यह मैच जीत जाता है तो बरसों के बाद वह इंग्लैण्ड को उसी की धरती पर हराने का श्रेय ले सकता है । लेकिन फिलहाल मेरा बेटा संकटग्रस्त और तनावग्रस्त है । मेरे शहर में यह मैच बुध्दू बक्से पर नहीं दिखाया जा रहा है और यही मेरे बेटे की बेचैनी का सबब बना हुआ है । उसे अपनी टीम की 'क्षमता' पर पूरा भरोसा है और मान कर चल रहा है कि उत्साह के अतिरेक में भारतीय टीम हारने का क्रम बनाए रख सकती है । सो, वह बेकल हुआ पडा है । भुनभुना रहा है ।
लेकिन अभी-अभी उसने मुझे चौंका दिया है । भुनभुनाते हुए वह भारतीय खिलाडियों को यह परामर्श देते हुए अपने कमरे में गया है - 'देखना रे ! महारथियों ! जीत नहीं सको तो मैच ड्रा ही करा लेना ताकि सीरीज पर तो कब्जा बना रहे ।' उसकी यह प्रार्थना मुझे 40 बरस पीछे खींच ले गई है । जिस ड्रा के लिए मेरा बेटा प्रार्थना कर रहा है उसी पर तो सचिन दा' (श्री एस. डी. बर्मन) ने तंज करते हुए क्रिकेट की मट्टी पलीद की थी !
वह सन् 1967 की मई की एक शाम थी ।
दादा (श्री बालकवि बैरागी) पहली बार विधान सभा का चुनाव लडे थे और जीते थे । कांग्रेस की राजनीति में 'लौह पुरूष' के रूप में पहचाने जाने वाले पं. द्वारकाप्रसाद मिश्र ने 'अपने उम्मीदवार' के रूप में दादा को मनासा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का उम्मीदवार बनाया था । भारतीय जनसंघ के श्रीसुन्दरलाल पटवा 1957 और 1962 के चुनावों में लगातार जीत कर, अपनी आक्रामक वाक् शैली से विधान सभा में कांग्रेस सरकार की नींद हराम किए हुए थो । मनासा विधान सभा क्षेत्र से कांग्रेस का जीतना दूसरी प्राथमिकता थी, पहली प्राथमिकता थी - पटवाजी से मुक्ति पाना । चुनाव परिणाम ने मिश्रजी के दांव को कामयाब साबित कर दिया । मिश्रजी के प्यादे ने भारतीय जनसंघ के फरजी को पीट दिया था । महत्वपूर्ण बात यह रही कि मन्दसौर जिले की सात विधान सभा सीटों में से बाकी 6 पर भारतीय जनसंघ ने कब्जा किया था । केवल मनासा सीट कांग्रेस को मिल पाई थी । मिश्रजी ने इस जीत को यथोचित सम्मान देते हुए, दादा को अपने मन्त्रि मण्डल में संसदीय सचिव के रूप में शामिल किया था ।
उन दिनों, गरमी के मौसम में मध्य प्रदेश की राजधानी, सतपुडा की साम्राज्ञी पचमढी में स्थानान्तरित हो जाया करती थी । पूरा मन्त्रिमण्डल वहीं डेरा डाल लेता था । सो, दादा को तो जाना ही था, वे हम सबको भी साथ ले गए थे । वहां दादा को 'पंचायतन' नामक बंगला आवंटित हुआ था ।
एक शाम, वहां के प्रसिध्द 'राजेन्द्रगिरी उद्यान' में जाना हुआ तो देखा कि मध्य प्रदेश के वित्त मन्त्री पं. कुंजीलालजी दुबे विराजमान हैं । दादा उन्हें प्रणाम करने के लिए झुके तो दुबेजी ने दादा को बांहों में भर लिया और आशीर्वाद देते-देते बोले - 'बैरागी, भगवान तुम्हारा भला करे । तुमने पंछी के पर कतर दिए । उसने विधान सभा में जीना मुश्किल कर दिया था ।' 'पंछी' से उनका मतलब पटवाजी से था ।
पचमढी प्रवास में सूचना मिली कि प्रख्यात संगीतकार सचिन देव बर्मन भी पचमढी में ही हैं और 'होटल न्यू ब्लाक' में ठहरे हुए हैं । दादा बच्चों की तरह खुश हो गए । ताबडतोड सम्पर्क कर, सचिन दा' की एक शाम अपने लिए तय की ।
जिस शाम सचिन दा' 'हमारे यहां' आने वाले थे उस दिन सवेरे से ही हम सब रोमांचित थे । पूरा दिन अधीरता से कटा । शाम को बर्मन दम्पति जब बंगले के सामने अवतरित हुए तो हम लोगों की सांसें थमी हुई थीं । संगीत महर्षि साक्षात् हमारे सामने थे । लालिमा को छूता गोरा रंग, सफेद धोती-कुर्ता । वे बेहद दुबले थे । इतने दुबले कि कलाई में घडी बांधने के लिए कलाई पर पहले रूमाल लपेटना पड रहा था । वे खूब लम्बे-ऊँचे थे । लेकिन उनके हाथों की लम्बाई अतिरिक्त रूप से ध्यानाकर्षित करती थी । उनके हाथ, उनके घुटनों को स्पर्श कर रहे थे - बिलकुल 'आजानबाहु' को शब्दश: साकार करते हुए । उनकी धर्मपत्नी (अब तो मुझे उनका नाम भी याद नहीं रह गया है) उनके मुकाबले ठिगनी थीं । लेकिन गोरेपन में वे सचिन दा' को बिना किसी कोशिश के पल-पल मात दे रही थीं । सचिन दा' के चेहरे पर गम्भीरता और 'खोयापन' था तो भाभीजी के चेहरे पर 'भुवन माहिनी' मुस्कान का साम्राज्य था । उनका चेहरा मुझे बहुत ही जाना पहचाना लगा । इस अनुभूति ने मुझे हैरत में भी डाला और परेशान भी किया । लेकिन कुछ ही क्षणों में बात समझ में आ गई । उनके इकलौते बेटे राहुल देव बर्मन के चित्र कहीं छपे देखे थे । भाभीजी को देख कर समझ पडा कि राहुल देव ने अपनी मां की शकल पाई थी । इसीलिए भाभीजी को पहली बार देखने पर भी वे मुझे जानी-पहचानी लग रही थीं ।
दादा और सचिन दा' की बातें शुरू हुईं तो अविराम चलती रहीं । उन दिनों 'प्रेम पुजारी' बन रही थी । सचिन दा' उसके संगीतकार थे और नीरजजी उसके गीतकार । सचिन दा' मुक्त कण्ठ से नीरजजी की प्रशंसा किए जा रहे थे । वे नीरजजी की शब्दावली के तो मुरीद साबित हो रहे थे लेकिन उनसे मेहनत भी पूरी करवा रहे थे । सचिन दा' ने बताया था कि 'रंगीला रे, तेरे रंग में रंगा है ये मन । छलिया रे, किसी जल से न बुझेगी ये अगन' वाला मुखडा हासिल करने के लिए उन्होंने नीरजजी से इतने मुखडे लिखवाए कि 194 पृष्ठों वाली दो कॉपयाँ भर गईं । नीरजजी की प्रशंसा करते हुए सचिन दा' ने कहा था - 'मैं एक-एक कर, मुखडे रिजेक्ट करता रहा लेकिन नीरजजी एक बार भी न तो थके, न चिढे और न ही निराश हुए ।' बातों ही बातों में सचिन दा' ने फिल्म 'मेरी सूरत तेरी ऑंखें' के, मन्ना दा' के गाए कालजयी गीत 'पूछो न कैसे मैं ने रैन बिताई' की सृजन गाथा विस्तार से सुनाई थी ।
इन्हीं सब बातों के बीच पता नहीं कैसे क्रिकेट पर बात आ गई । हममें से कोई भी न तो क्रिकेट का जानकार था और न ही शौकीन । मौसम की बातों की तरह ही क्रिकेट की बात हो गई तो हो गई । सो, जब सचिन दा' ने क्रिकेट पर बात शुरू की तो हम सबने केवल इस कारण ध्यान दिया कि सचिन दा' इस पर बात कर रहे हैं । लेकिन अगले ही क्षण उन्होंने हम सबको निराश कर दिया । उन्होंने पहले ही वाक्य में क्रिकेट से अपनी नापसन्दगी जाहिर कर दी । हम लोगों को तो कोई फर्क नहीं पडना था लेकिन इतना बडा आदमी क्रिकेट को नापसन्द करता है - हमारे लिए यही अजूबा था । हमारे चेहरों पर चिपकी जिज्ञासा को शायद सचिन दा' ने भांप लिया था । उन्होंने जो कुछ कहा था वह कुछ इस तरह था कि भला क्रिकेट भी कोई खेल है ? खेल हो तो हॉकी, फुटबाल जैसा कि घण्टे-पौन घण्टे खेले, पूरा दमकस लगाया और नतीजा लेकर मैदान से निकले । और क्रिकेट ? पूरे पांच दिनों तक (तब एक दिवसीय मैच तो कल्पना में भी कहीं नहीं था) 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' किया और मालूम पडा कि मैच ड्रा हो गया । भला यह भी कोई बात हुई ? पूरे पांच दिन भाग-दौड की, मैदान को छोटा साबित करते रहे और नतीजे में ड्रा ? उन्होंने 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' को जिस अन्दाज में कहा, वह मेरे लिए वर्णनातीत है । ऐसा लग रहा था मानो किसी बच्चे की लिखी कविता के लिए वे अपनी कोई धुन सुना रहे हों । उनके 'ठकाऽआऽआऽठक, 'ठकाऽआऽआऽठक' को सुन कर हम सब तो हंसे ही, उनकी धर्मपत्नी हम सबसे ज्यादा हंसीं ।
सचिन दा' से हुई यह मुलाकात मैंने तब 'माधुरी' में भेजी थी । उस समय मेरी उम्र केवल 20 वर्ष थी और 'माधुरी' में छपना तब उस आयु वर्ग वालों के लिए अतिरिक्त गौरव की बात हुआ करती थी । सचिन दा' न केवल मेरे इस गौरव के निमित्त बने थे बल्कि तब मुझे 'माधुरी' से 5 रूपयों का पारिश्रमिक भी मिला था ।
इस बात को चालीस वर्ष हो गए हैं । आज मेरा बेटा क्रिकेट मैच के ड्रा होने की प्रार्थना कर रहा है और तब इसी ड्रा के कारण सचिन दा' क्रिकेट को ही खारिज कर रहे थे । चालीस साल के अन्तराल में यह बदलाव आया कि सचिन दा' की पीढी जिस ड्रा को खेल का बैरी मान रही थी, वही ड्रा उनकी तीसरी पीढी के लिए प्रार्थना का विषय बन गया है ।
मैं कल्पना भी नहीं कर पा रहा हूं कि सचिन दा' यदि यह प्रार्थना सुनते तो प्रतिक्रया में क्या कहते ।
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(4 अगस्त की सवेरे से मुझे इण्टर नेट सेवाएं नहीं मिल रही थीं । आज, 9 अगस्त की शाम को यह सेवा उपलब्ध हुई तो शाम कोई साढे छ: बजे लिखना शुरू किया । इसी बीच क़पालु ग्राहकों और मित्रों का आना-जाना बना रहा, सो यह पोस्ट 9 और 10 अगस्त की दरमियानी रात में कोई पौन बजे पूरी हो पाई । ब्लाग दुनिया से इतने दिनों तक कटे रहना बडा ही कष्टप्रद रहा ।)
पुन: स्वागत
ReplyDeleteबेहतर जानकारी प्रदान की आपने
बधाई !
“आरंभ” संजीव का हिन्दी चिट्ठा
बहुत बेहतरीन उद्धहरण, आभार बैरागी जी.
ReplyDeleteबहुत सही बैरागी जी, दिल खुश हो गया पढ़कर । सचिन दा के कई किस्से हैं, कुछ उनकी कंजूसी के और कुछ उनके मनमौजी होने के । पर आप भाग्यशाली हैं कि लकीर के उस तरफ हैं और सचिन दा से मिल चुके हैं ।
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