आरक्षण : कला या विज्ञान ?

'हरि ' और 'हरि कथा' की ही तरह यह बहस भी अनन्‍त है कि आरक्षण का संरक्षण किया जाना चाहिए या क्षरण । नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए यह अत्‍यन्‍त उपयोगी और सुविधाजनक झुनझुना है । जब वे सत्‍ता में होते हैं तो उनके लिए इसके मायने कुछ और होते हैं और जब वे प्रति पक्ष में होते तो कुछ और । कभी यह अपने बचाव के काम में आता है तो कभी प्रतिद्वन्‍दी पर घातक प्रहार करने के काम में । मजे की बात यह है कि खुली जाजम पर इसका विरोध कोई नहीं करता और बन्‍द कमरों में हर कोई इससे निजात पाने की कोशिशों में लगा रहता है । इसे लेकर ये राजनीतिक दल किस सीमा तक निर्लज्‍ज और पाखण्‍डी हो जाते हैं, यह इसी सोमवार, 30 जुलाई 2007 को मध्‍य प्रदेश विधान सभा में देखने को मिला ।


मध्‍य प्रदेश में इन दिनों भाजपा की प्रचण्‍ड बहुमत वाली सरकार है । उमा भारती ने कांग्रेस की जो धुलाई की उसके सदमे से कांग्रेस और कांग्रेसी अब तक नहीं उबर पाए हैं । 2003 के चुनावों में उमा भारती ने, 'अहर्निशम् सेवाऽमहे' सूक्ति को शब्‍दश: साकार करते हुए चौबीसों घण्‍टे मध्‍य प्रदेश में भाजपा के चुनावी अभियान की 'जोत' जगाई । उसीका परिणाम रहा कि भाजपा ने विधान सभा की तीन चौथाई सीटें जीतने का इतिहास रचा । यह अलग बात है कि उमा भारती आज भाजपा की देहलीज पर, मीरा बाई बन कर 'सुणो रे दयालु, म्‍हारी अरजी' का अनहद नाद कर रही हैं और पार्टी विधायकों की इस इफरात के चलते, विधायकों की पूछ-परख की जरूरत भी नहीं रह गई है ।


इन दिनों मध्‍य प्रदेश के जिला सहकारी बैंकों में अध्‍यक्षों के मनोनयन का सिलसिला जारी है । सामान्‍य समझ वाला सडक छाप आदमी भी जानता है कि ये बैंक, राजनीतिक सन्‍दर्भों में अत्‍यन्‍त महत्‍वपूर्ण, उपयोगी तथा प्रभावी संसाधन होते हैं । प्रत्‍येक जिले के लगभग सारे के सारे किसान इन बैंकों से ऋण या/अनुदान लेते हैं और इसीलिए इन बैंकों के पदाधिकारियों तथा अधिकारियों/कर्मचारियों के साथ कृतज्ञ-भाव से पेश आते हैं । ऐसे में, केवल एक किसान नहीं, उसका समूचा परिवार इन बैंकों से 'लाभिति' के रूप में जुडा रहता है । इन बैंकों का धन-बल (हिमालयी बजट) और जन बल (पूरे जिल में फैला अमला) चुनावों के समय बहुत काम में आता है और इन बैंकों के कार्यालय कमोबेश चुनावी कार्यालय बन जाते हैं । इन बैंकों पर अपना कब्‍जा बनाने के लिए और बनाने के बाद बनाए रखने के लिए, प्रत्‍येक सत्‍ताधारी दल इन बैंकों के चुनावों को यदि स्‍थगित नहीं करा पाता है तो विलम्बित जरूर करा देता है और फिर अगले चुनाव होने तक अपनी पार्टी के किसी 'क्षमतावान' कार्यकर्ता को इसका अध्‍यक्ष तथा अन्‍य कार्यकर्ताओं को इसके संचालक मण्‍डल का सदस्‍य बना देता है ।


मध्‍य प्रदेश में इन दिनों यह सिलसिला चल रहा है और इस खेल की रग-रग से वाकिफ कांग्रेसी इन नियुक्तियों को टुकुर-टुकुर देखने के सिवाय और कुछ भी नहीं कर पा रहे हैं । लेकिन इस बार कांग्रेसियों ने एक पत्‍ता फेंका । उन्‍होंने सरकार से आग्रह किया कि नियुक्तियां तो वह बेशक अपनी पसन्‍द की करे लेकिन इन नियुक्तियों में आरक्षण प्रावधानों का पालन जरूर करे । मांग ऐसी थी कि कांग्रेसी तो कांग्रेसी, भाजपा के कई विधायक भी इसके समर्थन में उठ खडे हुए । सरकार के लिए यह स्थिति 'लफडे' से कम नहीं रही । बात यदि बहस में बदल जाए तो लेने के देने पड जाएं । सो सहकारिता मन्‍त्री ने इस सुझाव को फौरन, सिरे से ही नकार दिया और दलील दी कि सहकारिता अधिनियम में, मनोनयन करते समय आरक्षण की कोई व्‍यवस्‍था नहीं है । मजे की बात यह है कि मनोनयन में आरक्षण का निषेध भी कहीं नहीं किया गया है । याने सरकार चाहे तो, ऐसे मनोनयन में, आरक्षण के प्रावधानों को उपयोग करते हुए, आरक्षित वर्ग के लोगों को नेतृत्‍व के अवसर प्रदान कर सकती है । लेकिन ऐसा करना, सत्‍ता पक्ष के लिए सुविधाजनक और लाभदायक नहीं रहा होगा, सो इस बात को सिरे से ही खारिज कर दिया गया । कांग्रेसियों ने फिर एक पत्‍ता फेंका कि समस्‍त आरक्षित वर्गों को भले ही अवसर न दें किन्‍तु कुछ महिलाओं को तो अध्‍यक्ष पद पर मनोनीत कर दें । इस पत्‍ते की फेंट में भी भाजपा के कुछ विधायक आ गए और खडे होकर कांग्रेसियों का समर्थन करने लगे । लेकिन सहकारिता मन्‍त्री अपने इंकार पर 'अंगद-पद' की तरह अडे रहे । मन्‍त्रीजी ने एक और दलील दी कि प्रदेश के कई सहकारी बैंक घाटे में चल रहे हैं ऐसे में इन बैंकों पर कोई प्रयोग करना मुनासिब नहीं होगा । कांग्रेसियों ने ध्‍यानाकर्षण की कोशिश तो खूब की लेकिन नाकामयाब रहे और अन्‍तत: सुझाव निरस्‍त हो गया ।


समाचार तो यहां समाप्‍त हो गया लेकिन असल बात यहीं से आगे बढती है । वोट मांगते समय तमाम नेता और पार्टियां इसी आरक्षण की दुहाइयां देती हैं, इसे लागू करने के लिए अपनी प्रतिबध्‍दता जता-जता कर आम सभाओं में तालियां पिटवाती हैं और वोट बटोरती हैं । लेकिन जब वास्‍तव में कुछ करने का अवसर आता है तो वह करती है जो इस समय मध्‍य प्रदेश में हुआ । याने, आरक्षित वर्गों के लोगों को यदि नेतृत्‍व के अवसर हासिल करने हैं तो उन्‍हें चुनाव लडकर ही आना पडेगा, सत्‍ताधारी दल अपनी ओर से तब भी उन्‍हें मौका नहीं देगा जबकि वह आसानी से, बिना किसी रोक-टोक के, उन्‍हें यह मौका दे सकता है । मौका भी कैसा कि खुद प्रतिपक्ष इसके लिए सत्‍ताधारी दल से आग्रह कर रहा है ।


यह संयोग ही है कि मध्‍य प्रदेश में इन दिनों भाजपा सत्‍ता पर काबिज है और इस सवाल पर कुछ समय के लिए कटघरे में खडी हो गई है । लेकिन यदि कांग्रेस सत्‍ता में होती तो जरूरी नहीं कि वह भी आरक्षण के प्रावधानों का पालन कर ही लेती । विधायी सदनों की कार्रवाइयों के अभिलेख इस बात के गवाह हैं कि सदन में अपने बैठने के स्‍थान बदलने के साथ ही इन सबकी भाषा भी बदल जाती है ।


ऐसे में यह तो समझ पडता है कि आरक्षण के प्रति नेताओं और पार्टियों की असलियत क्‍या है लेकिन यह समझ पाना मुश्किल है कि अपने इस दोहरे व्‍यवहार को ये नेता और उनके दल, इतनी कुशलता से (भले ही इसके लिए उन्‍हें चरम निर्लज्‍जता ही क्‍यों न बरतनी पडे) कैसे साध लेते हैं, कैसे औचित्‍यपूर्ण बना लेते हैं ?


यह सवाल मैं ने, 'शालीग्राम' का रूतबा हासिल किए हुए एक नेताजी से पूछा तो वे ठठा कर हँस पडे । उन्‍होंने मेरी ओर ऐसे देखा जैसे दुनिया के सबसे बडे मूर्ख को पहली बार देख रहे हों । बॉंयी ऑंख दबा कर, रान पर हाथ फटकारते हुए बोले - समझ जाओ तो यह कला है वर्ना विज्ञान है ।

3 comments:

  1. उमा भारती की मेहनत की मलाई भाजपाई गटक रहे हैं. यह न कला है न विज्ञान. यह भाग्य है.

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  2. "नेताओं और राजनीतिक दलों के लिए यह अत्‍यन्‍त उपयोगी और सुविधाजनक झुनझुना है" बहुत सही कहा है आप ने -- शास्त्री जे सी फिलिप

    हिन्दी ही हिन्दुस्तान को एक सूत्र में पिरो सकती है
    http://www.Sarathi.info

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  3. Aapke vichr padhe. Achha lagaa.
    - Dr. Abhay Pathak.

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