पता नहीं, पण्डित जसराज ने, किस सन्दर्भ और प्रसंग में ‘मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं’ कहा होगा। किन्तु वे विवादास्पद तो हो ही गए। मेरा इरादा विवादास्पद होने का बिलकुल ही नहीं है फिर भी स्वीकार करता हूँ - हाँ, मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। मैं लड़कियों को सतत् देखते रहना चाहता हूँ। चाहता हूँ कि अपने अन्तिम क्षण तक उन्हें, आँखों से पीता रहूँ। वे एक क्षण भी मेरी आँखों से ओझल न हों।
हम दोनों भाइयों को दो-दो बेटे हैं। बेटी एक भी नहीं। पिताजी को हम दोनों भाइयों ने पता नहीं कोई सुख दिया या नहीं किन्तु एक दुख से हम उन्हें आजीवन मुक्त नहीं कर पाए-‘पोती का दादा न बनने का दुख।’ जब भी कोई प्रसंग आता, वे गहरी निःश्वास छोड़ते हुए, हम दोनों भाइयों को दयनीय दृष्िट से देखते हुए कहते-‘अवश्य ही तुम दोनों ने ईश्वर के प्रति कोई अक्षम्य अपराध किया होगा, इसीलिए भगवान ने तुम दोनों को बेटी नहीं दी। तुम अभागे हो।’
वे जन्मना अपंग थे फिर भी यथासम्भव अधिकाधिक कर्मकाण्डी और रूढ़ी-प्रिय थे। किन्तु हमारे यहाँ बेटी न जन्मने को लेकर उन्होंने कभी भी कोई रूढ़ीवादी अथवा पारम्परिक उलाहना नहीं दिया। न ही कभी ‘जिन कन्या-धन को दान कियो, तिन और को दान कियो न कियो’ कह कर हमें धिक्कारा। उन्होंने ‘बेटी के होने’ को सदैव ही व्यक्ति के सामाजिक आचरण और बोलचाल (अर्थात् भाषा) के संस्कारों से जोड़ा।
उनकी कही बातें मुझे पल-पल याद आती हैं। घर में एक बेटी हो तो पूरे परिवार की भाषा शालीन और सुघड़ हो जाती है। आदमी, पर-पीड़ा तनिक अधिक सम्वेदनशीलता से अनुभव कर सकता है। उसके मुँहफट (साफ-साफ कहूँ कि ‘अशिष्ट’) होने की आशंका कम रहती है। महिलाओं के प्रति उसके दृष्िटकोण, सोच और व्यवहार में अनायास ही सम्मान-भाव आता ही है।
पिताजी की प्रत्येक बात मुझे खुद पर खरी होती अनुभव होती है। मुझे बेटी होती तो मैं सम्भवतः इतना शुष्क, इतना अव्यावहारिक, सामनेवाले की भावनाओं की चिन्ता किए बगैर ‘पत्थर-मार’ (जिसे हम मालवी में ‘भाटा-फेंक’ कहते हैं) बोलनेवाला न होता। मुझे दूसरों के कष्टों का तनिक अधिक अनुमान होता।
जब हमारा छोटा बेटा तथागत गर्भस्थ था तब हम पति-पत्नी ने कौन-कौन सी मनौतियाँ नहीं लीं? खूब देवी-देवता याद किए। मन्दिर-देवल पर माथा टेका। किन्तु सचमुच में मेरा अपराध ऐसा गम्भीर रहा होगा और कि ‘करुणा सागर’ भी नहीं द्रवित नहीं हुए और मैं ‘बेटी का बाप’ नहीं बन सका।
पत्नी के दोनों प्रसव चूँकि ‘सीजेरियन’ हुए थे, डाक्टरों ने ‘दो-टूक’ चेतावनी दे दी थी-‘तीसरा प्रसव आपकी पत्नी के लिए प्राणलेवा होगा।’ अन्यथा, ‘जनसंख्या नियन्त्रण’ में अटूट आस्था रखने के बाद भी मैं ‘बेटी की आस’ में तीसरी सन्तान अवश्य चाहता।
बड़े बेटे का विवाह हुआ तो हमने बहू में बेटी को देखना चाहा। किन्तु लगभग एक वर्ष पूरा होने वाला है, हमारी चाहत पूरी होती नहीं दीख रही।
एक चुटकुला मेरी सहायता करेगा। पति-पत्नी मन्दिर गए। दोनों ने मौन प्रार्थना की। लौटते में पति ने पत्नी से पूछा-‘मैं ने तो भगवान से धन-दौलत माँगी। तुमने क्या माँगा?’ पत्नी ने कहा-‘सद्बुद्धि।’ पति ने सरोष पूछा-‘क्यों, धन क्यों नहीं माँगा?’ पत्नी ने कहा-‘जिसके पास जो नहीं होता, भगवान से वही माँगता है।’
मेरी भी यही दशा है। मेरे घर में कोई ‘लड़की’ नहीं है। इसीलिए मैं लड़कियाँ देखता रहता हूँ। उन्हें अपनी आँखों से पी लेना चाहता हूँ। लड़कियाँ : गोद में, पालने में किलकारियाँ मारती लड़कियाँ, आँगन में फुदकतीं, छोटे भाइयों के मुकाबले उपेक्षित/प्रताड़ित होती, पैदल, सायकिल, रिक्शे में स्कूल जाती लड़कियाँ, किताबें छाती से चिपटाए, झुकी-झुकी नजरों को चपलता से घुमाते-फिराते अपने आस-पास के खतरों को भाँपती लड़कियाँ, सारी दुनिया की वर्जनाओं को ठेंगा दिखाकर, बेलौस, आकाश-फाड़ हँसी हँसती लड़कियाँ। बस, लड़कियाँ ही लड़कियाँ।
मेरी अपनी कोई लड़की नहीं है सो मैं लड़कियों से सम्पर्क बनाने का कोई मौका नहीं छोड़ता। किन्तु उनसे सम्पर्क बनाए रखते हुए लगातार डरता भी रहता हूँ कि कहीं नाराज होकर वह मुझसे सम्पर्क न तोड़ ले।
मैं भूल जाना चाहता हूँ कि मेरे घर में कोई लड़की नहीं है। मैं अपने घर के इस (कभी न भरे जाने वाले) अधूरेपन को बार-बार भूल जाना चाहता हूँ। इस तरह कि फिर कभी याद न आए। लेकिन बार-बार भूलने की कोशिश ही प्रमाण है कि मैं यह बात अब तक, एक बार भी भूल नहीं पाया हूँ।
आज तो मेरे पास भूलने का कोई बहाना भी नहीं रहा। अखबारों के पन्ने आज -‘राष्ट्रीय बालिका दिवस’ के नाम पर लड़कियों पर केन्द्रित विज्ञापनों और समाचारों से अटे पड़े हैं।
जो लड़की ‘न होकर’ भी मेरी आत्मा पर चैबीसों घण्टे ‘हुई होकर’ बनी रहती है उसी लड़की को मैं रोज की तरह आज भी दिन भर देखने की कोशिश करता रहूँगा : आती-जाती लड़कियो को देखते रह कर, निर्निमेष और अपलक नेत्रों से।
मेरे घर में, अखबारों में छपी लड़की है। लेकिन कागजी लड़की की अपनी सीमाएँ हैं। मुझे ऐसी लड़की चाहिए जो मेरे कान उमेठे, जिद करे, रूठ कर खाना खाने से इंकार करे और मैं उसे मनाऊँ, जिसे बड़ा होते देख कर मेरी नींद हराम हो जाए, जिसकी शादी की चिन्ता मुझे दुबला बना दे, जिसकी खिन्नता मुझे डराती रहे, जिसमें मैं अपनी माँ प्राप्त कर सकूँ ।
इसीलिए, मुझे लड़कियाँ अच्छी लगती हैं। मैं लड़कियों को अतृप्त नजरों से लगातार देखते रहना चाहता हूँ। तब तक, जब तक कि मेरे प्राण न निकल जाएँ।
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aapne sahi kaha jiske paas jo nahi hota hai vo vahi maangataa hai beti vaalon kaa haal janna hai to meri kahani jaroor padhen betion ki maa------www.veeranchalgathaablogspot.com
ReplyDeletekabhi mai bhi yahi sochti thi magar aaj sochti to vahi hoon lekin ekchote se badlaav ke sath ke ladka ladki dono ka hona jaroori hai magar ----
हमारी भी यही स्थिति है. हमें भी लड़कियाँ खूब भाती हैं. आभार.
ReplyDeleteबैरागीजी,
ReplyDeleteआप्कि बहुत मार्मिक व्यथा पढी.दरसल लड़कियां इस धरती पर कुदरत की एक सौगात है.वह लग्ती ही अच्छी हैं अगर आपकी बेटी होती तो भी कोई भी लड़की आपको उत्नी ही अच्छी लगती,जितनी अभी .
अभी जब मै आपका ब्लोग पढ़ रहा था तभी मेरा बेटा घर से बाहर गया उसने देखा कि रास्ते मे सेटी पर चादर बेतरतीब है वह उसे नज़रन्दाज़ करके बाहर चला गया पत्नी ने बताया कि देखो लड़के की जगह लड़की होती तो वह खुद ब खुद इसे ठी्क कऱती तब बाहर जाती.इसलिये लड़की होती ही कुछ अलग चीज़ है...
बैरागी जी, पंडित जसराज नहीं शायद बाँसुरी वादक चौरसिया जी ने लड़कियों के बारे में यह कहा है… एक बार कन्फ़र्म कर लें… बहरहाल, हम भी एकमात्र पुत्र के पिता हैं और भारत की भलाई के बारे में सोचते हुए चाहकर भी दूसरा चांस नहीं लिया… इसलिये हम भी "भाटा-फ़ेंक" हुए… :) :)
ReplyDeleteसही कहा , जिसे जो नहीं मिलता वही चाहता है.....समस्याएं तो लडके और लडकियों दोनो में है.....भले ही उनका रूप अलग अलग हो.....लेकिन लोग नहीं समझते....
ReplyDeleteआप की बेटी की चाहत अच्छी लगी। परन्तु यही यदि कोई बेटे की चाहत में लिखता तो हम उसपर झपट पड़ते। कारण यह कि सदियों से लोगों में पुत्र की चाह। और पुत्रियों को नकारना। मुझे लगता है कि बेटी बेटा जो भी हो उसे ही बस एक संवेदनशील अच्छा मनुष्य बनाया जाए ताकि दोनों ही समाज में अच्छे नागरिक बन पाएँ व स्नेह देना सीखें।
ReplyDeleteघुघूती बासूती
मुझे लगता है मेरी ही तरह हर वो मां जिसकी बेटी नहीं होती , इन्हीं भावनाओं के साथ जीती है । हर पल एक नया ख्वाब बुनती और अगले ही पल खुद उसे उधेडती होगी । इस पोस्ट का हर एक शब्द मेरी भावनाओं का प्रतिबिम्ब सा लगा ।
ReplyDelete@सुरेश चिपलूनकरजी
ReplyDeleteआपने बिलकुल सही कहा। वे हरिप्रसादजी चौरसिया ही थे। आपने याद दिला दिया और मुझे सुधार दिया। भगवान आपका भला करे।
मुझे याद नहीं आता तो भी आपकी बात आंख मूंदकर मानता। संगीत/फिल्म/ललित कलाओं के क्षेत्र की जानकारियों के मामले में मैं आपको 'प्राधिकार' ही मनता हूं।
इसी प्रकार मुझ पर नजर बनाए रखिएगा।
पुन: आभार।
बिटिया तो मेरे भी नहीं है. अब बहु आ गई है तो घर पूरा हुआ-एक दम हरा भरा.
ReplyDeleteमेरे एक बेटी है और एक बेटा। बेटी करीब पांच बरस से बाहर है पहले अध्ययन के लिए और अब अपने कर्म के लिए। जब भी वह घर आती है। घर स्वर्ग बन जाता है।
ReplyDeleteलड़कियाँ प्रकृति की सब से अनुपम कृति हैं। प्रकृति ने ही उन्हें सब से अधिक जिम्मेदारियाँ भी दी हैं। उन के बिना जीवन की कल्पना भी नहीं की जा सकती।
sahi kaha apne
ReplyDeleteबहुत मार्मिक लिखा आपने।
ReplyDeleteभगवान सबके दिन फेरता है, बेटियों के दिन भी आयें। यहां तो बेटे की आस में लोग जनसंख्या बढ़ाये जाते हैं।
बेटियाँ तो घर की रुनझुन हैं .मीठा संगीत है .. अच्छा लिखा है आपने ..काश जो बेटी को इस दुनिया में आने ही नही देते वह इस बात को अच्छे से समझ पाते ...
ReplyDeleteapne bilkul sahi likha hai
ReplyDeletekhoobsoorat ehsas.
ReplyDeleteभाई बैरागी जी
ReplyDeleteईश्वर ने लड़का और लड़की दोनों लिंग इस उम्मीद के साथ साथ बनाये है कि एक दूसरे के प्रति उनका आकर्षण बना रहे . बहुत ही भावपूर्ण अभिव्यक्ति . भाई मेरी भी कन्या नही है पर कन्या न होने का एहसास तो होता है ...
बिल्कुल सही कहा आपने .....मेरी बहन है इसलिए में समझ सकता हूँ की घर में लड़की होने से घर की काया और माहौल कितना बदल जाता है
ReplyDeleteअनिल कान्त
मेरा अपना जहान
घुघुतीजी की बात से सहमति। वैसे आपके पास तो दो बेटियों के पिता बनने का अवसर है। बहुरियां आयेंगी तो उनको लड़कियों के तरह रखियेगा। भाटा फ़ेंक से फ़ूल फ़ेंक बन जाइयेगा।
ReplyDeleteहम खुशकिस्मत हैं कि हमारी एक छोटी और एक बडी बहन है। छोटी बहन भी अब बडी हो गयी है। याद नहीं आता कि घर पर कभी माता-पिता जी ने हमारे इकलौते पुत्र होने पर कभी भाव दिया हो, अलब्त्ता एक किस्सा सुनाते हैं।
ReplyDeleteस्कूल में एक मित्र था शेखर रस्तोगी, वो बोला कि मैं तो इकलौता लडका हूँ, कुछ भी कर लूँ घर में मार नहीं पडती। मैने कहा कि इकलौता तो मैं भी हूँ लेकिन हम तो कभी कभी शहीद हो जाते हैं। अगली बार माताजी हमें शहीद करने वाली थी तो हमने कहा कि हमे न मारो, हम इकलौते लडके हैं। माताजी का हाथ रूक गया, बोली फ़िर कहो । हमने सोचा कि लगता है मंत्र हाथ लग गया। हमने कहा हम इकलौते लडके हैं, हमें न मारिये। माताजी जोर जोर से हंसने लगी और छत पर पडौसनों को बुलाकर किस्सा सुनाया। जैसे ही लगा कि हम बच गये, तुरन्त एक चाँटा पडा और हिदायत कि अगर फ़िर ये तुम्हारे मुंह से सुना तो जान निकाल दी जायेगी। पिताजी से एक लेक्चर अलग से मिला लेकिन सबक मिल गया था।
बेटी के लिए आपकी पीड़ा वाजिब है . बेटी के लिए इतनी ही चाहत औ र व्यग्रता यदि सबके मन
ReplyDeleteआ जाए तो कन्या भ्रू न हत्या का ग्राफ स्वयमेव नीचे आ जाए .कुलदीपक की लालसा मे अनेक दंपत्ति
एकाधिक कन्याओं के पालक बन जाने पर लड़का गोद लेने का उपक्रम करते हैं उसी तरह लड़की गोद
लेने के लिए निःसंतान होना जरूरी नहीं औ र न ही कोई कानूनी बाधा है .निकट संबंधियों / बाल-गृहों
आदि से मदद ली जा सकती है . बेटियों के प्रति आपके नज़रिए की मै तारीफ करता हूँ !
गणतँत्र दिवस सभी भारतियोँ के लिये नई उर्जा लेकर आये ..और दुनिया के सारे बदलावोँ से सीख लेकर हम सदा आगे बढते जायेँ
ReplyDeleteघुघूती जी की बात से सहमति
- लावण्या