रोग से कम, दवाई से अधिक परेशान


क्या कोई ईलाज ऐसा हो सकता है जो बीमारी से अधिक झुंझलाहट पैदा कर दे? सामान्यतः नहीं। किन्तु अपवाद कहाँ नहीं होते? ऐसे ही एक रोचक अपवाद से अभी-अभी मेरा सामना हुआ है।

भगवानलालजी पुरोहित इस समय लगभग 70 वर्ष के हो चुके हैं। वे हायर सेकेण्डरी स्कूल के प्राचार्य के रूप में सेवा निवृत्त हुए। मालवा का ‘लोक’ उनका प्रिय विषय है। इसीलिए मालवी लोक कथाओं, मुहावरों/लोकोक्तियों और मालवा के (भित्ती तथा धरातल के) माँडनों का अच्छा-खासा संग्रह उनके पास है। मालवी बोली में छुटपुट अतुकान्त कविताएँ भी लिखते हैं। ज्योतिष उनका दूसरा सर्वाधिक प्रिय विषय है। वे साप्ताहिक ‘उपग्रह’ में नियमिति रूप से ‘साप्ताहिक राशिफल’ (भविष्‍यफल नहीं) लिखते हैं जिसके नीचे ‘ज्योतिष अनुमान’ लिखना नहीं भूलते। उनकी मालवी कविताएँ और ज्योतिष से सम्बन्धित लेख ‘नईदुनिया’ सहित अखबारों में कभी-कभार छपते रहते हैं।

गए कुछ दिनों से वे आँखों में पीड़ा और चुभन से परेशान हैं। स्थानीय चिकित्सकों से सन्तुष्‍ट नहीं हुए तो रेल में 'भेड बकरियों की तरह ठुंस कर' कोई एक सौ तीस किलोमीटर की 'प्राणलेवा कष्‍टदायक रेल यात्रा' कर, नीमच (म.प्र.) जाकर वहाँ के ‘गोमाबाई नेत्रालय’ के चिकित्सकों को ‘आँखें दिखा’ आए। डाक्टर ने पूछा-‘दवाई 15 दिनों की दूँ या एक कहीने की?’ पुरोहितजी ने सोचा कि कौन 15 दिनों में चक्कर लगाए? सो कहा-‘एक महीने की।’ डाक्टर ने कहा मान लिया।

अब पुरोहितजी को चार दवाइयाँ आँखों में डालनी हैं - दो दवाइयाँ दो-दो घण्टों के अन्तराल से, एक दवाई चार-चार घण्टों के अन्तराल से और एक दवाई छः-छः घण्टों के अन्तराल से। लेकिन शर्त यह है कि चारों दवाइयाँ एक साथ नहीं डाल सकते। चारों में थोड़ा-थोड़ा अन्तराल रखना है। बस, यह अन्तराल पुरोहितजी के जी का जंजाल बन गया है।

वे सवेरे सात बजे से दवाई डालने का क्रम शुरु करते हैं जो रात नौ बजे तक चलता है। लेकिन लिखना जितना आसान है, करना उससे कई गुना अधिक कठिन। इन चैदह घण्टों में उन्हें बाईस बार दवाई डालनी पड़ती है। सवेरे सात बजे, साढ़े सात बजे, आठ बजे, साढ़े आठ बजे, नौ बजे, साढ़े नौ बजे, पूर्वाह्न ग्यारह बजे, साढ़े ग्यारह बजे, मध्याह्न बारह बजे, एक बजे, डेड़ बजे, अपराह्न ढाई बजे, तीन बजे, साढ़े तीन बजे, चार बजे, शाम पाँच बजे, साढ़े पाँच बजे, सात बजे, याढ़े सात बजे, रात्रि आठ बजे, साढ़े आठ बजे और नौ बजे।

यह सब याद रख पाना किसी के लिए सम्भव नहीं। सो, पुरोहितजी ने पूरा चार्ट बना रखा है - बिलकुल रेल्वे समय सारिणी की तरह।

लोक कथाएँ और मुहावरे/लोकोक्तियाँ मुझे सदैव से आकर्षित करती रही हैं। सो ‘कुछ न कुछ नया मिल जाने के लालच’ में मैं महीने-पन्द्रह दिनों में उनसे मिलने जाता रहात हूँ। लोकाचार निभाने के लिए वे भी दो-तीन महीनों में मेरे मुहल्ले का चक्कर लगा लेते हैं।

इस बार उन्हें आए तनिक अधिक समय हो गया है। सो जब उनसे मिलने गया तो सहज भाव से पूछ लिया कि वे कब आ रहे हैं? मेरे प्रश्‍न ने जैसे बिच्छू के डंक सा प्रभाव किया। विचित्र स्वर और उससे भी अधिक मुख-मुद्रा और अटपटी तिलमिलाहट में मानों वे फट पड़े। चार्ट मुझे दिखाते हुए बोले-‘अब बताओ! मैं कैसे, कहाँ जाऊँ? हर आधे घण्टे में तो मुझे दवाई डालनी पड़ती है। कैसा लगेगा कि मैं आपके यहाँ आऊँ और आते ही पूछूँ कि बिस्तर कहाँ है? मुझे लेटना है। आप आने की कह रहे हो! अरे! इन दवाइयों के पीछे तो मेरा भोजन करना भी मुश्‍िकल हो गया है।’

मेरे पास उनकी बातों का कोई उत्तर नहीं था किन्तु उनकी झुंझलाहट, उनकी खीझ, उनकी विवशता, उनकी दयनीयता-सब मिला कर जो चित्र प्रस्तुत कर रही थी उसे ‘हँसते-हँसते रोना’ और ‘रोते-रोते हँसना’ वाली स्थिति की कल्पना करके ही समझा सकता था जो मेरे बूते के बाहर की बात थी।

फिलहाल पुरोहितजी को इन दवाइयों से आराम हो रहा है। वे नीमच के डाक्टरों को दुआएँ दे रहे हैं। आँखों की पीड़ा और चुभन कम होने से बहुत खुश भी हैं किन्तु जैसे ही आधा घण्टा बीतता है, दवाइयों का आतंक उन पर छा जाता है और वे भूल जाते हैं कि एक क्षण पहले तक वे खूब खुश थे।

इस दशा में पुरोहितजी मुझे ‘विचित्र किन्तु सत्य’ लगते रहे। अपनी इस दशा पर वे खुद ही ‘हो! हो!’ कर जोर-जोर से हँसे तो वे मुझे और बड़ा अजूबा लगे। बाईस जनवरी को उनकी दवाइयों का एक महीना पूरा होगा। उनका बस चले तो आज ही बाईस जनवरी ले आएँ। किन्तु केलेण्डर उनकी पकड़ से बाहर है।

सो, बाईस जनवरी तक वे बीमारी से कम और दवाइयों से ज्यादा परेशान होते रहने को विवश हैं। स्वैच्छिक रूप से ग्रहण की गई यह ऐसी विवशता है जिससे वे मुक्त हो जाएँ तो और अधिक परेशान हो जाएँ।


कैसी रोचक विसंगति है?

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8 comments:

  1. मुझे लगता है कि पुरोहित जी को इतनी बार दवा डालने की जरूरत है। लेकिन यदि आराम हो रहा है तो उन्हें यह अवधि अवश्य ही पूरी कर लेनी चाहिए। लेकिन तब दवा बंद करने के बाद भी चुभन रहे तो दूसरी कोई चिकित्सा तलाश करनी चाहिए। वैसे चिकित्सक ने पहले 15 दिन की दवा देने को कहा था। 15 दिन पूरे होने के बाद चिकित्सक से राय कर लेनी चाहिए। शायद वह दवा का अंतराल बढ़ा देता।

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  2. पुरोहित जी की आँखें शीघ्र ठीक हो -मेरी शुभकामनाएं !

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  3. मैं रोऊं या हंसूं , करुं मैं क्या करुं .....? इलाज कराना और उसमें वक्त खपाना भी एक तरह का शगल है और टाइम पास का अच्छा ज़रिया । वैसे बुरा ना मानें मालवियों को अपनी बीमारी और सेहत से जुडे मुद्दों पर घंटों वार्तालाप करने का एक अजीब सा शौक होता है । ऎसा मेरा व्यक्तिगत अनुभव कहता है ।

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  4. अपनी स्थिति पर वे हँस पाते हैं, यही खुशी की बात है. स्थिति में सुधार है यह तो और भी खुशी की बात है. जब तक वे अपने चार्ट में उलझे हुए हैं, आप ही उनसे मिलने जाने की आवृत्ति बढ़ा लीजिये!

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  5. स्थिति मे सुधार हो रहा है और क्या चाहिए. हम उनके शीघ्र स्वास्थ्य लाभ की कामना करते हैं.

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  6. स्थिति में सुधार लाने के लिए ये तो करना ही पड़ेगा.....
    वो जल्द ठीक हो जाए...ऐसी हमारी शुभकामनाएं

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  7. हमारी आँख तो दवा डालने की सारणी पढ़कर ही दुखने लगी.

    वैसे अब आराम मिल रहा है तो क्या कहें? पुरोहित जी को शुभकामनाऐं.

    गरदन बार बार उठाना और हाथ बार बार आँख के उपर ले जाने के कारण गरदन और हाथ के क्या हाल हैं??

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  8. हम क्या कहें - हमारी डेढ़ पाव की दवाओं की मासिक खुराक आती है। रोज की ६-८ गोलियां!

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