सत्य की चोरी


‘सत्यम घपले’ की जानकारी होने के बाद मेरे मन मे सबसे पहला विचार यही आया था कि यदि इस कम्पनी के आडिटर ईमानदारी से अपना काम करते तो देश को और औसत-मझले निवेशकों को यह दिन न देखना पड़ता। किन्तु आर्थिक मामलों की और इनकी प्रक्रिया की जानकारी न होने से मैं कुछ कहने की स्थिति में नहीं था। ऐसे में, सान्ध्य दैनिक प्रभातकिरण (इन्‍दौर) के, 8 जनवरी 2008 के सम्पादकीय पर आज नजर पड़ी तो लगा कि इसमें वही सब कुछ कहा गया है जो मैं सोच रहा था। मुमकिन है कि और लोग भी ऐसा ही सोच रहे हों। ‘बात मेरी थी, तुमने कही, अच्छा लगा’ की तर्ज पर, प्रभातकिरण का यह सम्पादकीय अविकल रूप में प्रस्तुत है।

सत्य की चोरी

चौकीदार ही यदि चोरी करें तो चिन्ता स्वाभाविक है। सरकारी घोटालों और भ्रष्‍टाचार से डरे निवेशक का भरोसा यदि सत्यम कम्प्यूटर जैसी देश की बड़ी आईटी कम्पनी की कारगुजारी से टूट जाए और शेयर बाजार हिल जाए तो गलत कुछ भी नहीं। सत्यम के असत्य में बड़ा दोष कम्पनी के बेईमान और चोर संचालकों से ज्यादा आडिटर कम्पनी और चार्टर्ड अकाउण्टेण्ट का है जिसने कम्पनी को चोरी करने की छूट दी और उसके झूठ को सच बताया।

यदि ये दोनों ईमानदार और देशभक्त होते तो शायद मन्दी के खतरनाक दौर से उबरने की कोशिश कर रहे देश को यह बड़ा झटका सहन नहीं करना पड़ता। कम्पनी घोटाला कर ही इसलिए सकी कि इन दोनों ने देश और निवेशक दोनों को धोखा दिया। कम्पनी से बड़ा अपराध तो इनका है जिन पर यह जिम्मेदारी थी कि कम्पनी अपने निवेशकों से बेईमानी न कर पाए। यदि आज तिरेपन हजार लोगों की रोजी रोटी खतरे में है, लाखों शेयरधारकों के आठ हजार करोड़ रुपये डूब गए हैं और करोड़ों भारतीयों का निजी तन्त्र से भरोसा उठ गया है तो जिम्मेदार ये आडिटर और सीए ही हैं, जिन्होंने यह सब होने दिया और न केवल होने दिया बल्कि इन्होंने झूठे और फ्राड हिसाब- किताब पर सच होने की मुहर लगाई। इनका अपराध कम्पनी संचालकों से भी बड़ा और अक्षम्य है।

हर्षद मेहता शेयर घोटाले के समय ही लोगों को आशंका हो गई थी कि देश के कम्पनी कानून की खामियों और रिसन का लाभ चालाक लोग उठा रहे हैं और जनता का निवेश चुनिन्दा जेबों में जा रहा है, जिसमें नेताओं और नौकरशाहों का संरक्षण शामिल है। गुजरात की सहकारी बैंकों के हजार करोड़ रुपये डूबने की नौबत इसी साँठगाँठ का नतीजा थी और तब से कम्पनी कानून सख्त बनाने और कम्पनियों पर नियन्त्रण करनेवाली संस्थाओं की जिम्मेदारी तय करने की माँग उठती आ रही है, जिस पर ध्यान इसलिए नहीं दिया जा रहा कि नेताओं और अफसरों की शाही चाकरी सत्यम जैसी घोटालेबाज कम्पनियाँ जी-जान से करती आ रही हैं।

अब भी समय है कि सरकार इस घोटाले पर सख्त रुख अपनाए, सभी जरूरी कदम उठाए जिससे निवेशकों का भरोसा निजी तन्त्र पर कायम हो सके। सरकारी तन्त्र से उठा भरोसा यदि निजी तन्त्र से भी पूरी तरह से उठ गया तो देश की अर्थ व्यवस्था बनाए रखना कठिन हो जाएगा और आर्थिक अराजकता आ जाने की आशंका रहेगी। बेहतर हो कि सरकार समय रहते सबक ले ले। सत्यम घोटाले में यदि कठोर कार्रवाई नहीं हुई, तो यह सिलसिला थमनेवाला नहीं है। सत्यम के झूठ और उसकी सजा पर सच्चाई से अमल होना अनिवार्य है।
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5 comments:

  1. सही कहा आपने ! बाड ही खेत खाने लगे तो क्या किया ज सकत्ता है !

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  2. विष्णु जी,
    आप अपनी राय भी तो लिखते.

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  3. ऑडिटर शक के घेरे में तो हैं ही। और सूचनायें मिलें तो कुछ साफ कहा जा सके।

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  4. आप का कहना सही है। यदि किसी देश के प्रोपेशनल्स अपना काम सही तरीके से नियमपूर्वक करें तो देश के हालात सुधर जाएँ।

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