सवेरे-सवेरे कोई पाँच-सात किलोमीटर हो आया हूँ। नहीं। पैदल नहीं। मोटर सायकिल पर।
कहीं कुछ असामान्य और विशेष नहीं है। रेल्वे स्टेशन पर टिकिट खिड़िकियों के सामने लम्बी कतारें, प्री-पेड बूथ पर पर्चियाँ बनवाते लोग, ‘प्लेटफार्म पर नहीं छोड़ूँगा, गाड़ी में आपको बैठाकर, आपके पास आपका सामान रख कर आऊँगा‘ जैसी बातें कह कर अपना पारिश्रमिक तय करने के लिए जद्दोजहद करते कुली, अपने-अपने मुकाम के ‘रूट’ वाले टेम्पो को तलाश में लगभग बदहवास लोग।
तीन स्कूलों के सामने से जानबूझकर निकला। किन्तु वहाँ भी सब कुछ प्रतिदिन जैसा। आटो रिक्शा से उतरते बच्चे, अपने बच्चों को छोड़कर घर लौटने को उतावले पिता, बच्चों से पहले स्कूल में पहुँचने के लिए लगभग दौड़ कर आ रही अध्यापिकाएँ, गेट पर खड़ा, निर्विकार भाव से सब-कुछ देखते हुए खड़ा चैकीदार। औत्सुक्य भाव लिए कहीं कुछ अनूठा नहीं।
घर से बाहर जाते समय भी और लौटते समय भी वे ही और वैसी की वैसी ही सड़कें, झाड़ू लगाती, कचरे के ढेर बना कर उन ढेरों में चिंगारी सुलगाती सफाई कर्मचारी, दो बत्ती पर और राम मन्दिर के सामने, अपने पसीने के खरीददार की प्रतीक्षा के लिए ‘मण्डी’ बनने के लिए पहुँचते मजदूर, चाय का पहला कप धरती को अर्पित कर रहा होटल मालिक और उस चाय को आँखों से पी जाने की कोशिश कर रहा भिखारी। सब कुछ ऐसा मानो समूची सृष्िट, यन्त्र हो गई हो।
वांछित की असफल तलाश से लस्त-पस्त हो मैं घर लौटा हूँ। यहाँ भी सब कुछ ‘वही का वही’ है। गेट के पास पड़े अखबार, चाय बनाकर प्रतीक्षा कर रही पत्नी, पड़ौसी को आवाज लगा रहा दूधवाला, भोपाल पेसेंजर पकड़ने के उपक्रम में अपने आसपास को भी भूल जाने वाले जैन साहब।
मैं ‘उदास सा’ होने से बचने के लिए अपना अतीत खँगालने लगता हूँ। आज के दिन पिताजी सवेरे जल्दी उठा देते थे-लगभग ‘हाँक’ लगा कर। मैं भागकर, पास के गाँव ‘पुरोहित पीपल्या’ के बाहर खड़े आम के वृक्ष से कुछ ‘बौर’ तोड़ता और भाग कर ही घर लौटता। स्नान कर तैयार होता उससे पहले ही माँ ‘तरबेणे’ (सम्भवतः ‘त्रिवेणी’ का अपभ्रंश पुल्लिंग, ताँबे का बना तसला, जिसमें ठाकुरजी को स्नान कराया जाता था) में गुलाल रख कर ले आती। मैं, आम के ‘बौर’ को उस तरबेणे में रखता और बीच रास्ते खड़ा हो जाता। आते-जाते लोगों के माथे पर गुलाल लगाता। वे प्रसन्न होकर आशीष देते। उनमें से कुछ, 'तरबेणे' में छोद वाला ताँबे का एक पैसा, अधन्ना (आधा आना) डाल देते। मुझे अच्छा लगता। खुश हो जाता और अपेक्षा करता कि वे सब, जिनके माथे पर मैं गुलाल लगा रहा हूँ, कुछ न कुछ ‘तरबेणे‘ में जरूर डालें। लेकिन ऐसा नहीं होता। मैं शिकायत भरी नजरों से पिताजी की ओर देखता। वे हँस कर कहते - ‘अपन साधु हैं। अपने को अपने पास कुछ भी नहीं रखना है। अपने को तो देना ही देना है। आज बसन्त पंचमी है। लोगों को तो अपने काम से ही फुरसत नहीं होती। उन्हें कौन याद दिलाए कि आज बसन्त पंचमी है। आज से ऋतु बदल रही है। आम के बौर के ‘दर्शन’ करा कर तू उन सबको इस बदलाव की याद दिला रहा है। इससे उन्हें खुशी होगी। तू गुलाल नहीं लगा रहा है, उन्हें खुशियाँ बाँट रहा है। उनके मन में जो आनन्द पैदा होता है उसका कोई मोल नहीं है। पैसों का क्या है? पैसा तो हाथ का मैल है। परवाह मत कर। प्रसन्न मन से गुलाल लगा।’ आज सोच-सोच कर हैरत में पड़ रहा हूँ कि भिक्षा वृत्ति पर आश्रित परिवार का मुखिया पैसे को हाथ का मैल कैसे कह पा रहा होगा? वह भी हँसते-हँसते? शायद यह भी वसन्त-आगमन से उपजे उल्लास का ही प्रभाव होता होगा कि भिखारी भी पैसे को हाथ का मैल कह दे।
जब थोड़ा बड़ा हुआ तो, सेवेर गुलाल लगाने की ‘ड्यूटी’ पूरी करने के बाद स्कूल पहुँचता तो स्कूल पूरा का पूरा बदला हुआ नजर आता। मुख्य द्वारा पर आम के पत्तों की बन्दनवारें सजी होतीं। प्रधानाध्यापकजी और सारे गुरुजी किसी न किसी उपक्रम में व्यस्त होते। स्कूल के अन्दर वाले खुले मैदान के एक कोने में टेबल के ऊपर कुर्सी रख कर उसे रंगीन पकड़े से ढक दिया गया होता था और उस पर विद्या की देवी, माँ सरस्वती की तस्वीर रखी होती थी। सीनीयर बच्चे ‘बेटी के बाप’ की तरह व्यवस्थाएँ कर रहे होते। घण्टी बजती। प्रार्थना होती और उसके ठीक बाद सरस्वती पूजा का आयोजन शुरु हो जाता। हम छोटे बच्चों को जो भी कुछ ‘गीत-कविता’ याद होती, प्रस्तुत करते। मेरी माँ के पास लोकगीतों का खजाना था और कोयल का कण्ठ। उसी के खजाने से मैं कुछ ‘बधावे‘ गाता और वाहवाही पाता। बड़े बच्चे पाठ्य पुस्तकों की कविताएँ प्रस्तुत करते। हिन्दी वाले ‘सर‘ घनानन्द के छन्दों का पाठ करते जो हमारी समझ में नहीं आता। संस्कृत वाले 'शास्त्री सर' अत्यन्त गर्वपूर्वक ‘जाने क्या-क्या’ उच्चारते। बरसों बाद समझ आया कि वे सरस्वती स्तुति करते थे। सबसे अन्त में हमारे प्रधानाध्यापकजी का भाषण होता। कार्यक्रम का समापन जलेबी से होता। हम लोग उस पूरे दिन सरस्वती पूजन और जलेबी की बातें करते।
आज सेवेर से मैं वही सब कुछ तलाश करने निकला था। लेकिन खाली हाथ लौटा हूँ। मुझे न तो ‘वसन्त’ मिला और न ही उसके आने की ‘पदचाप’ ही सुनाई दी है। अखबार के मुख पृष्ठ पर जरूर वसन्त है किन्तु त्यौहार की तरह नहीं, ‘इवेण्ट’ के रूप में।
सोच रहा हूँ, नहा-धो कर आज किसी से बीमा की बात करने के बजाय पहले पुलिस स्टेशन जाऊँ और दरोगाजी से गुहार लगाऊँ-'मेरी मदद कीजिए। मेरा वसन्त खो गया है। ढूँढ दीजिए।'
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यह सब शहरों की प्रगति या विस्तृत हो जाने का प्रतीक है. और इस दौड़ में हम खोते चले जा रहे हैं अपने आप को.वसंत पंचमी की आगाज़ को भूली स्मृतियों में खोजने के प्रयास की अभिव्यक्ति जीवंत रही. आभार.
ReplyDeleteसीनीयर बच्चे ‘बेटी के बाप’ की तरह व्यवस्थाएँ कर रहे होते।
ReplyDeleteआज सेवेर से मैं वही सब कुछ तलाश करने निकला था।
अखबार के मुख पृष्ठ पर जरूर वसन्त है किन्तु त्यौहार की तरह नहीं, ‘इवेण्ट’ के रूप में।
मेरा वसन्त खो गया है।
sirji
beti kaa baap aapne to yaad dilaa diyaa
magar beton kaa baap sadiyon se laapta hai
basant to kya prahlaad, kuber, raam, nahi milte kyonki dashrath ke gun baap ne sikh liye beton ko ghar se baahar nikaal dene ke
aur khushi ki talash kaise karen jab videshi beta tij tyohaar par des hi me nahi hota
mere blog par my father ko padhen kripayaa
अब देश मे वसंत नही वैलेंटाईन मिलता है। आपके दर्द मे मै सहभागी हूं।बहुत सही लिखा है आप्ने।
ReplyDeleteप्रिय भाई !
ReplyDeleteधूल , धुँआ और कोलाहल का ,
छाया हो ज हाँ साम्राज्य अनंत ,
शहरों में कैसे आये बसंत !
पहले 'पतझड़ ' की ऋतु का अंत होने पर ' बसंत ' का आगमन होता था , पर आजकल शहरों में
' गात' ( वस्त्र ) ' झड' ( कम होने ) का मौसम जोरों पर है और जो समाप्त होने का नाम ही नहीं ले
रहा है . ऐसे में बसंत आये तो कैसे ?
अब आप यह चाहें कि आपके बचपन वाला माहौल आ जाय तो यह हो नहीं सकता जी अब !
ReplyDeleteआज ब्लॉग्स पर तो बहुत वसंत दिखा। इलाहाबाद में संगम जाती भीड़ भी मजे की थी - शायद वसंत तलाशने जा रही थी।
ReplyDeleteमार्मिक है ।
ReplyDeleteलेकिन बंबई की सुनिए । केसरिया कुरते पहने हैं महिलाओं और पुरूषों ने । केसरिया साड़ी दिखीं । किसी के पास पीला रूमाल दिखा । बस...इत्ता सा बसंत था । कपड़ों में था । परंपरा के लिए था, यहां की बोली में कहें तो फॉरमेलिटी कर लेनी चाहिए । वो सरस्वती पूजा वाला वसंत । वो फूलों वाला । वो सांस्कृतिक कार्यक्रमों वाला । वो शास्त्रीय संगीत वाला वसंत कहां बिला गया ।
रेडियोवाणी पर सुनिए क़व्वाली में बसंत
basnt ko sachmuch apne lekh main utar diya apne....
ReplyDeleteवसँत पँचमी भी आ गई ..आपको सपरिवार, शुभकामनाएँ
ReplyDeleteयहाँ की बर्फ के मध्य हम मानसिक "बसँतोत्सव" ही मना पाये हैँ
उदास ना होँ /
बसन्त तो हमारा भी खो गया था मगर आपने याद दिला दिया धन्य्वाद्
ReplyDeleteपतझड़ में यहॉं नंगे हो चुके पेड़ो पर जब दो दिन पहले जब कोंपलें फूटती देखी थी तो कुछ अंदाज़ा हुआ था कि या तो वसंत आ गया है या फिर आने वाला है। फिर रात को बीबीसी चैनल पर 'एंड ऑफ क्रिसमस सिज़न, वेलकम टू स्प्रिंग' के मौके पर चर्च से कुछ गीत सुने।
ReplyDeleteजब वसंत वहीं भारत में नहीं मिल रहा तो यहॉं हॉलैण्ड में तो उसके बारे में सोचना ही बेकार है।
मुझे भी अपने समय की सरस्वती पूजा याद आ गई. बच्चे थे तो सबसे खुशी की बात होती थी की उस दिन पढ़ना नहीं पड़ता था, किताबें पूजा घर में रख दी जाती थी, और शाम में सब मिल कर मूर्ती देखने जाते थे...मेला लगा होता था. आज कहीं भी वो रूप नहीं दिखता.
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