'प्रसंग-लेखन' मुझे आपवादिक ही भाता है। यह मुझे रस्म अदायगी या कि खानापूर्ति लगता है। कर्मकाण्ड की तरह। पुरोहित मन्त्रोच्चार कर रहा है, मन्त्र का अर्थ किसी को समझ नहीं पड़ रहा है और लोग पुरोहित के कहे अनुसार क्रियाएँ सम्पादित कर रहे हों। ठीक वैसे ही जैसे कि पाणिग्रहण संस्कार में वर-वधु कर रहे होते हैं।
इसलिए मैंने तय किया था कि ‘गणतन्त्र दिवस’ को विषय बना कर मैं कुछ नहीं लिखूँगा। फिर ध्यान आया कि इस बार का गणतन्त्र दिवस तनिक विशेषता और अनूठापन लिए हुए है। इसलिए, अपने निश्चय से हट रहा हूँ।
मुम्बई पर हुए, पाकिस्तान-पोषित/संरक्षित आतंकी आक्रमण के बाद का यह ठीक पहला गणतन्त्र दिवस है। उस आक्रमण ने पूरे देश को उद्वेलित, आक्रोशित, उत्तेजित और विचलित कर दिया था। सारा देश आड़ोलित हो उठा था। इस आक्रमण में हुए शहीदों के प्रति सम्मान जताने, आक्रमण का विरोध करने और देश के प्रति अपना प्रेम, समर्पण प्रकट करने के लिए लोगों ने अपने-अपने तरीके से आयोजन किए थे, शपथ ली थी, मानव श्रृंखलाएँ बनाई थीं, मोमबत्तियाँ जलाने के विराट् आयोजन किए थे। मुम्बई में तो बिना किसी निमन्त्रण के, मात्र परस्पर ‘एसएमएसीय सम्वाद’ से लाखों लोग सड़कों पर उतर आए थे। सब अपने नेताओं को बोरे में बाँध कर समुद्र में फेंक देने की बातें कर रहे थे। पाकिस्तान पर आक्रमण न करने के लिए अधिसंख्य नागरिक अपनी ही सरकार के पुंसत्व पर, सार्वजनिक रुप से सन्देह व्यक्त कर रहे थे और लगने लगा था कि सरकार यदि इसी तरह चुपचाप, हाथों पर हाथ धरे बैठे रही तो नागरिक खुद ही चल कर पाकिस्तान पहुँच जाएँगे।
वह सब देखना, उसके बारे में पढ़ना-जानना मुझे तब अच्छा तो लग रहा था किन्तु मुझे वह ‘श्मशान वैराग्य’ ही लग रहा था-किसी की भी नियत पर सन्देह किए बिना। आचरण की माँग करने वाले प्रसंगों को हम लोग उत्सवों में बदलकर, बड़ी ही कुशलता से, अपने-आप से झूठ बोल लेते हैं, आँख चुरा लेते हैं-सीनाजोर की तरह।
आज, जबकि बवण्डर की धूल बैठ चुकी है, (सरकार की ‘रणनीतिक सफलता’ के चलते) पाकिस्तान पर अन्तरराष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा है, वह अकेला पड़ कर अपने संरक्षक बदलने लगा है तब मुझे यह देखकर सचमुच में मर्मान्तक पीड़ा हो रही है कि मेरा सोचना सच साबित हुआ। ‘वह सब’ हमारा श्मशान वैराग्य ही था।
आज अपने आस-पास देखें तो सब कुछ वही का वही और वैसे का वैसा ही है जैसा कि 26 नवम्बर से पहले था। बड़ी-बड़ी बातें न करें, अपने ही गली-मुहल्ले की छोटी-छोटी बातें देखें। दैनिक भास्कर ने, शासकीय कर्मचारियों के, देर से कार्यालय पहुँचने और कामकाजी समय पर कार्यालयों से कर्मचारियों की अनुपस्थिति को लेकर एक समाचार कथा प्रकाशित की। खाली टेबलों-कुर्सियों के चित्र छापे। कलेक्टर को भी इसी से मालूम हुआ कि उनके अधीनस्थ ‘कामचोरी’ कर रहे हैं। उन्होंने कार्रवाई करने की घोषणा की रस्म अदायगी कर दी। हर कोई जानता है कि होना-जाना कुछ नहीं है। ‘फिर वही रतार बेढंगी’ वाली स्थिति अगले ही दिन लौट आएगी, इस पर सबको भरोसा था। वही हुआ भी।
‘मुम्बई-आक्रमण’ से ‘प्रभावित’ होकर कर्मचारियों के संगठनों ने कलेक्टोरेट में एक आयोजन किया था जिसमें अधिकांश कर्मचारियों ने बढ़-चढ़ कर भाग लिया था। शहीदों को भाव-भीनी श्रध्दांजलि दी थी और राष्ट्र के प्रति समर्पण की शपथ ली थी। वह शपथ ‘दो कौड़ी’ की साबित कर दी गई। समय पर कार्यालय पहुँचना और कार्यालय पहुँच कर अपनी कुर्सी पर बने रहकर काम करना शायद राष्ट्र-सेवा नहीं, कुछ और होता होगा!
इन्दौर यातायात पुलिस ने इन दिनों अपना पूरा अमला नगर के चार-पाँच क्षेत्रों में तैनात कर रखा है। इन क्षेत्रो को ‘इन्फोर्समेण्ट झोन’ घोषित कर, वहाँ लोगों का यातायात के साधारण नियमों का ज्ञान कराया जा रहा है और उनका पालन करवाया जा रहा है। लोग इससे असुविधा अनुभव कर रहे हैं। वे पुलिसकर्मियों के सामने ही नियमों का उल्लंघन कर रहे हैं। ताजा खबर है कि इस ‘पुलिसिया अत्याचार’ से बचने के लिए लोगों ने मुख्य सड़कों पर चलना बन्द कर दिया है और अब वे गलियों में होकर अपने गन्तव्य पर पहुँच रहे हैं। यातायात नियमों का ईमानदारी से पालन करना भी राष्ट्र-प्रेम नहीं होता!
विधिक विवादों के चलते, आजाद चौक उपेक्षा और अव्यवस्था का शिकार बना हुआ है। वहाँ अशोक स्तम्भ भी स्थापित है। अखबारों में खबर है कि ‘आजाद क्लब’ ने नगर निगम से माँग की है कि वहाँ व्यापक पैमाने पर सफाई और समुचित प्रकाश व्यवस्था करवा कर मंच और माइक की वैकल्पिक व्यवस्था की जाए (ताकि ‘आजाद क्लब’ वहाँ ‘गणतन्त्र दिवस समारोह’ सम्पन्न करा सके)। ‘अपना काम’ कराने के लिए हम हजारों रुपयों की रिश्वत दे देंगे, मांगलिक प्रसंगों के आयोजनों पर मूर्खतापूर्ण और अनावश्यक मदों पर हजारों रुपये खर्च कर देंगे, नेता के प्रति निष्ठा प्रदर्शित करने के लिए हजार-हजार पटाखों वाली बीसियों लड़ियाँ ‘छोड़’ देंगे। किन्तु गणतन्त्र दिवस जैसे ‘राष्ट्रीय त्यौहार’ पर अपनी ही झाँकी जमाने के लिए हम नगर निगम से व्यवस्थाओं की माँग करेंगे। हम देश के लिए खून देने की बातें तो करते हैं लेकिन हमारा आचरण बार-बार (और अत्यधिक निर्लज्जता से) साबित करता है कि हमारे खून में देश तो कहीं है ही नहीं!
ऐसे में, अपनी उनसठवीं वर्ष गाँठ के इन क्षणों में हमारा (साठवाँ) गणतन्त्र दिवस हमारे सामने आत्म-परीक्षण की कसौटी बन कर खड़ा है। निस्सन्देह हम समारोह करें, उत्सव मनाएँ किन्तु अपने आप से सवाल करने का साहस भी करें। मुमकिन है, हमारा जवाब हमें ही शर्मिन्दा करने वाला हो। लेकिन ‘जवाब’ और ‘जवाबदेही’ से बचते रहकर हम और सब कुछ हो सकते हैं, बस! राष्ट्र-भक्त नहीं होंगे। आजादी केवल अधिकार नहीं होती। अधिकार से पहले वह जवाबदारी होती है। अधिकार और जवाबदारी-आजादी के सिक्के के दो पहलू हैं। एक भी पहलू की अनुपस्थिति में सिक्का अपना मूल्य खो देता है। बात कड़वी है किन्तु क्या किया जाए-सच है कि हम अपनी आजादी को खोटे सिक्के में बदलने का राष्ट्रीय-अपराध (इसे राष्ट्र-द्रोह क्यों न कहा जाए?) कर रहे हैं।
देश प्रेम का अर्थ केवल, युध्द काल में सीमाओं पर प्राण दे देना नहीं होता। किसी भी कौम के राष्ट्र-प्रेम या कि देश-भक्ति की असली परीक्षा तो सदैव शान्ति काल में ही होती है। शान्ति काल में यदि हम अनुशासनहीन हैं, अपने ही देश के कानूनों का निर्लज्ज उल्लंघन कर रहे हैं, व्यवस्थाओं को भंग कर रहे हैं तो किसी को कितना ही बुरा क्यों न लगे, इसका एक ही मतलब है कि हम अपने देश से गद्दारी कर रहे हैं और गद्दारी के सिवाय और कुछ भी नहीं कर रहे हैं।
मेरी बातों की खिल्ली उड़ाई जा सकती है और हँस कर खारिज किया जा सकता है किन्तु यह सच है कि जिन छोटी-छोटी बातों को हम महत्वहीन मानते हैं वे ही बड़े मायने रखती हैं। मेरे हिसाब से तो यातायात के नियमों का पालन करना भी देश के प्रति वफादारी निभाना है।
सो, इस पावन प्रसंग पर यदि हम सचमुच में कुछ करना चाहते हैं तो बस इतना ही करें कि खुद से ईमानदारी बरतते हुए खुद से वादा करें कि हम अपने आचरण में देश को उतारेंगे और ऐसा करते हुए लोग हम पर कितना ही हँसे, हम अपने वादे से मुकरेंगे बिलकुल ही नहीं। वादा केवल वादा होता है, छोटा या बड़ा नहीं होता। कम से कम एक वादा हम खुद से करें और उसे पूरी ईमानदारी से इस तरह निभाएँ कि खुद से शर्मिन्दा न होना पड़े।
अपने प्रिय कवि-मित्र विजय वाते का एक शेर एक बार फिर प्रस्तुत कर रहा हूं जो हमारी असलियत (या कि बेशर्मी) को बड़ी ही बेबाकी से उघाड़ता है -
चाहते हैं सब के बदले ये अंधेरों का निजाम
पर हमारे घर किसी बागी की पैदाइश न हो
लेकिन अब तो पानी सर से ऊपर बह रहा है। अपने घर में बागी पैदा करने जितना वक्त भी नहीं है। अब तो खुद बागी बन जाने का वक्त आ गया है-फौरन।
आईए। अपने वतन के लिए बागी बन जाएँ।
(मेरी यह पोस्ट, रतलाम से प्रकाशित हो रहे, 'साप्ताहिक उपग्रह' के 'गणतन्त्र दिवस विशेषांक' के लिए लिखी गई है जो कल प्रकाशित होगा। इसे यहां देने का लोभ संवरण नहीं कर पाया।)
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आपका पिछला लेख लड़किया.... अपने साप्ताहिक ‘अचत विचार’ के १ फरवरी वाले अंक में प्रकाशित कर रहा हूं।
ReplyDeleteआपका पिछला लेख लड़किया.... अपने साप्ताहिक ‘अक्षत विचार’ के १ फरवरी वाले अंक में प्रकाशित कर रहा हूं
ReplyDeleteराषट्रीय पर्व सरकारी हो कर रह गये हैं राष्ट्र चेतना जगाने के लिए व्यक्तिगत स्तर पर कोशिश होना ज़रुरी है । जब हम छोटे थे तो इन पर्वों के लिए स्कूल में पहले से उत्सवी माहौल बन जाता था । गणवेश ,जूते से ले कर रिबन तक को चमकाने की जुगत में भिड जाते थे हम सब । अल सुबह उठकर तैयारी करना चूल्हे के धुएं से सुवासित हो चुका हलुआ खाकर स्कूल के लिए दौड लगाना अब तक याद है । हमारे पिता तो इन पर्वों पर खास तौर से मीठा बनवाते हैं अब भी । मैंने भी इस परंपरा को काफ़ी वक्त तक निभाया लेकिन देश के दिनों दिन बिगडते हालात ने सब कुछ सकारात्मक हो जाने की मेरी सोच को हिला कर रख दिया है । आसपास के लोगों की राय में मेरे जैसा अकेला चना भाड नहीं फ़ोड सकता । लेकिन देश प्रेम से लबरेज़ ये दिल है कि मानता नहीं । इसलिए व्यक्तिगत स्तर पर मेरे प्रयास जारी हैं । इस उम्मीद में कि मेरे जैसे कई अकेले चने जब एक जुट हो जाएंगे ,तो निश्चित ही हालात बदलेंगे ।
ReplyDeleteबैरागी जी,
ReplyDeleteअच्छा आलेख है. हर जनवरी को और हर आतंकवादी घटना के बाद काफी रस्म-अदायगी और कागजी खानापूरी होती है और नतीजा फ़िर ढाक के तीन पात
एकदम खरी-खरी लिख दिये बागीजी………ओह क्षमा करे बैरागी जी। ऐसा ही होता है जैसा आपने लिखा है।दमदार पोस्ट और गणतंत्र दिवस की बधाई।
ReplyDeleteबेहतरीन पोस्ट.
ReplyDeleteआपको गणतंत्र दिवस की शुभकमानाऐं.
बैरागी जी, अलख जगाने की जरूरत है।
ReplyDeleteवाह बैरागी जी वाह...
ReplyDeleteदेखो भिया !
ReplyDeleteवो सब तो ' भियाओं ' की शान मे करना पड़ता है . खून देने की बातें तो सिर्फ बातें है , दिखावा है .
जरूरत पड़ी तो ढूँढते रह जाओगे..............! हमारी हालत तो कुछ इस तरह है ---
किसको फिक्र है कि कबीले का क्या हुआ ?
सब इस बात पे अड़े हैं कि सरदा र कौन है ?