मनोरोगी की विशेषता यही होती है कि वह खुद को रोगी नहीं मानत। खुद को रोगी न मानने के इस 'जूनून' में वह अपने सिवाय सबको रोगी मानता है। यह अलग बात है कि उसकी यह हरकत उसकी बीमारी को और अधिक शिद्दत से उजागर करती है। इसीलिए उसका उपचार असम्भव नहीं तो असम्भवप्रायः तो होता ही है। इस ‘असम्भवप्रायः’ को सम्भव बनने के अन्तर्गत, उसे दी गई दवाइयँ भी या तो प्रभावी नहीं होतीं और होती भी हैं तो अत्यल्प और अत्यधिक विलम्ब से।
श्रीमान् अननीमस द्वारा,शीला दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी को टोकिए शीर्षक मेरी पोस्ट पर, पूरे सोलह दिन और बारह घण्टों बाद की गई टिप्पणी पढ़ कर मेरे मन में ये ही बातें आईं। मुझे क्रोध नहीं आया। सहानुभूति भी नहीं उपजी उनके लिए। दया आई। उन्हें तो पता ही नहीं कि वे क्या कर रहे हैं। बीमार आदमी (?) पर क्या तो गुस्सा और क्या शिकायत?
हम सबने एक कहानी, अपने जीवन काल में कम से कम एक बार तो सुनी ही है। एक चोर को, राजा ने चौराहे पर सूली चढ़ाने का दण्ड दिया। चोर से उसकी अन्तिम इच्छ पूछी गई। चोर ने कहा कि वह उसकी माँ के कान में अपनी बात कहना चाहता है। चोर की माँ को लाया गया। चोर ने, माँ के कान में कुछ कहने के बजाय माँ का कान काट खाया। माँ चिल्लाई। राजा ने चोर से इस हरकत का कारण जानना चाहा। चोर ने कहा कि उसकी (चोर की) पहली ही चोरी पर यदि उसकी माँ टोक देती, प्रतिकार कर देती तो आज चोर को इस तरह चौराहे पर, सूली पर नहीं चढ़ना पड़ता।
लेकिन श्रीमान् अननीमस तो उस चोर को कोसों पीछे छोड़ कर, अपनी माँ को ‘चोर की माँ की माँ’ अर्थात् 'चोर की नानी' बना रहे हैं।
मैं ने बहुत ही सहज भाव से शीला दीक्षित और मुरली मनोहर जोशी की ‘अलोकतान्त्रिक हरकतों’ पर अंगुली उठाई थी और कहा था कि अपना घर सुधारने की जिम्मेदरी खुद घर वालों को ही उठानी पड़ेगी। इसलिए कांग्रेसियों को चाहिए कि वे मुकुट धारण कर रही शीला दीक्षित को टोकें और भाजपाइयों को चाहिए कि वंशवाद की तरफदारी कर रहे जोशीजी को टोकें।
लेकिन श्रीमान् अनानीमस को मुरली मनोहर जोशी की अलोकतान्त्रिक हरकत के पीछे भी कांग्रेस ही नजर आई। उन्होंने जो भी लिखा उसीसे उनकी बीमार मनःस्थिति का आकलन भली प्रकार किय जा सकता है। होना तो यह चाहिए था कि कांग्रेस की गलतियों (और मूर्खताओं) से दूसरी पार्टियां सबक लेतीं और खुद को कांग्रेस से अलग तथा बेहतर सबित करतीं। लेकिन सत्ता पर कब्जा करने के कांग्रेसी शार्ट-कट तमाम पर्टियों को ऐसे रास आने लगे कि वे कांग्रेस से अलग और बेहतर बनने के बजाय कांग्रेस की निकृष्ट संस्करण बन गईं। सब देख रहे है कि इस काम मे भाजपा 'सबसे आगे और सबसे पहले' बनी हुई है।
मेरी निश्चत मान्यता है कि भारत के सारे कांग्रसी मिल कर भाजपा को नहीं सुधार सकते और देश के तमाम भाजपाई मिल कर कांग्रेस को नहीं सुधार सकते। कांग्रेस को सुधारने के लिए कांग्रेसियों को और भाजपा को सुधारने के लिए भाजपाइयों को ही श्रम करना पड़ेगा।
मेरी यह भी सुनिश्िचत धारणा है कि कांग्रेस और भाजपा ही वे राजनीतिक दल हैं जो देश की राजनीतिक आवश्यकताएँ पूरी कर सकते हैं। इसीलिए दोनों का शक्तिशाली और साफ-सुथरा बने रहना आवयक ही नहीं, अनिवार्य है।
सामने वले की गलती का उदहरण देकर अपनी गलती का औचित्य प्रतिपादित करना सिवाय 'सीनाजोरी' के और कुछ नहीं है। खेदजनक बात यही है कि दोनों पर्टियाँ यह 'सीनाजोरी' बरतती हैं जो अपने आप में अनुचित है।
कांग्रेस ने गाँधी पर कब्जा कर रखा है लेकिन भाजपा को भी यह बात समझ आ गई है कि गाँधी का नाम लिए बिना उसका भी काम नहीं चलने वला । सो, वह भी ‘गाँधी-जाप’ में शामिल हो गई है। लेकिन दोनों पार्टियाँ भूल रही हैं कि गाँधी ने सदैव खुद को देखा। 'आत्म निरीक्षण, आत्म परीक्षण और आत्म शोधन' की प्रक्रिया गाँधी के सम्पूर्ण जीवन में अनवरत बनी रही। उन्होंने किसी पर अंगुली नहीं उठाई अपितु अपनी ओर उठी तीन अंगुलियों को देखा।
श्रीमान् अनानीमस भाजपा के ‘अन्धानुयायी’ बने रहें या कोई भी किसी भी पार्टी का अनुयायी बन रहे, इस पर भला किसी को आपत्ति क्यों होने लगी? वे ऐसे ही बने रहें किन्तु भाजपा में आए विकारों, विकृतियों के लिए दूसरों को दोषी न मानें। और यदि मानें तो उन विकारों, विकृतियों को दूर करने का जिम्मा तो दूसरों पर न छोड़ें।
किन्तु लगता है कि श्रीमान् अनानीमस खुद कुछ नहीं करना चाहते। अपनी अक्षमता और अकर्मण्यता से वे सम्भवतः भली-भांति परिचित हैं। जिम्मेदार तो वे पहले से ही नहीं हैं। होते तो बेचारे अपना नाम छुपाने का शिखण्डीपन नहीं बरतते।
श्रीमान् अनानीमस के तर्क को आधार बनाया जाए तो मानना पड़ेग कि उनका वंश चलाने के लिए किया जने वाला ‘श्रम’ और भोगी जाने वाली ‘पीड़ा’ उनके बूते की बत नहीं है। ये दोनों जिम्मेदारियां उनके पड़ौसियों को ही निभानी पड़ेंगी।
श्रीमान् अनानीमस सचमुच में दया के पात्र हैं। ऐसा गैर जिम्मेदार, इतना दयनीय, इतना अक्षम, ऐसा 'कापुरुष' जिस पार्टी का अन्धनुयायी हो उस पार्टी को शत्रुओं की क्या आवश्यकता?
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विष्णु भाई को भी गुस्सा आता है ! अन्याय के खिलाफ़ क्रोध और सबके प्रति प्रेम !पुण्य-प्रकोप कहें ?
ReplyDeleteसप्रेम,
आपका
अनॉनीमस बन कर तो अपने अस्तित्व को ही झुटलाना है! आप ऐसा करें की अपने कॉमेंट बॉक्स में से अनॉनीमस की सुविधा हटा दें.
ReplyDeleteaapki lekhni sashkat he
ReplyDeletema sarswati ka asirwad sada aapke ke sath
nav varsh ki shubkamna
regards
makrand bhagwat
चलिए आपकी एक पोस्ट ने तो एनोनिमस जी को भी कुछ लिखने का मौका दिया. ;)
ReplyDeleteमुद्दा ये है कि हम कब तक अपना दोष दूसरे पर मढ कर पाक साफ़ बने रहेंगे । इसी वजह से आज हालात यहां तक आ पहुंचे हैं । वैसे आपने लगातार लिखना शुरु कर दिया , देखकर अच्छा लगा । लेकिन गांधीवादी शख्स को इतना तमतमाता देख कर कुछ अजीब सा लगा । जाने दीजिए अनानिमसजी को आप तो अपनी ही शैली का लेखन करें जिसे पढकर तरावट मिलती है हम सभी को और कुछ सीखने भी मिलता है । क्षमा बडन को चाहिए छोटन के उत्पात .....
ReplyDeleteजिन पे कभी आता था गुस्सा बहुत,
ReplyDeleteजाने क्यूँ अब केवल दया आती है।
महोदय एक बार फिर आपका ब्लॉग पड़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ और साथ ही अत्यंत दुख हुआ क्योंकि मेरे बारे मे इतनी तल्ख़ अंदाज मे टिप्पणी की गयी है . क्योंकि वो अनानिमसजी मे ही हू. एक नियमित ब्लागर नही हू पर पता नही कैसे आपके ब्लॉग मे पहुँच गया यू ही सर्फिंग करते हुए इसलिए बिना नाम के अपने विचार लिख डाले. महोदय सर्वप्रथम तो आपको ये बता देना चाहता हू की मे कोई भाजपाई नही हों हमारा पूरा परिवार कॉंग्रेसी है. मेरे पिताजी जबलपुर क्षेत्रा मे कॉंग्रेसी पार्षद है और मे भी कॉंग्रेस का सक्रिया कार्यकर्ता हू और यही वजह है की अपने घर की बुराई को देख कर जो मान मे आया लिख डाला. पर आप शायद भाजपा की बुराई तो सुनना चाहते थे लेकिन कॉंग्रेस की बुराई सुनने की शक्ति आप मे भी नही है आप बनते तो निष्पक्ष है पर कॉंग्रेस के बारे मे सुन कर आप का भी छद्म निष्पक्षता उद्वेलित हो गयी. महोदय म न इतना खट्टा हो गया की शायद अब आपके ब्लाग मे आने का दुस्साहस ना करू .
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