आजादी की साठवीं वर्ष गाँठ मैं ने दो कारणों से तनिक खिन्नता और उदासी के साथ मनाई । पहला कारण तो मेरा ब्राड बेण्ड कनेक्शन का 'डेड' हो जाना रहा । इस कारण मैं बारह अगस्त से लेकर अब तक 'संजाल सम्पर्क' से वंचित रहा । लेकिन वास्तविक वजह दूसरी थी । मुमकिन है, जो मैं ने भुगता-अनुभव किया वह सबके लिए सामान्य और रोजमर्रा की बात हो, लेकिन मुझे बडा मानसिक सन्ताप रहा ।
हमारे जिले के नवागत पुलिस अधीक्षक ने, मेरे शहर के यातायात को नियन्त्रित और व्यवस्थित बनाने की नेकनीयत से शहर के लोगों की खुली बैठक बुलाई । बैठक के लिए कोई औपचारिक निमन्त्रण नहीं था । यह बैठक सबके लिए खुली थी - जो चाहे सो आए । मेरे शहर के अनियन्त्रित और स्वच्छन्द मानसिकता वाले यातायात से मैं बहुत ही परेशान और चिन्तित रहता हूं और आए दिन कुछ न कुछ उठापटक करता रहता हूं । सो मुझे तो इस बैठक में जाना ही था ।
बैठक में मैं ने पाया कि तमाम वक्तव्य-वीर और रायचन्द पहले से ही मौजूद थे, जैसी कि मैं ने उम्मीद की थी । विषय वस्तु की भूमिका स्वरूप, यातायात सूबेदार ने एक सीडी प्रदर्शित की । इसके ठीक बाद, लोगों से सुझाव मांगे गए । जैसा कि होना ही था, धुरन्धर और धन्धेबाजों ने माइक पर कब्जा किया और लगे अपनी-अपनी राय जताने । यातायात के प्रति वे जितने चिन्तित थे, उससे अधिक वे इस कोशिश में थे कि नवागत पुलिस अधीक्षक की नजरों में 'चढ' जाएं । इसके साथ ही साथ, अपना ज्ञान बघारना और खुद को बाकी सबसे अलग और विशेष साबित करना भी उनमें से प्रत्येक का मकसद था । अपने इस मकसद को हासिल करने के लिए भाई लोगों ने जो मांगें पेश कीं, उन्होंने मुझे गहरे अवसाद में धकेल दिया ।
इन 'रायचन्दों' ने जो मांगें पेश कीं उनकी बानगी देखिए - दुपहिया वाहनों पर तीन सवारियों का बैठना रोका जाए, बिना लायसेंसे वाहन चलाने वाले लोगों पर (खास कर अवयस्क किशोरों पर) कार्रवाई की जाए, वाहनों पर अतिरिक्त रूप से लगवाए गए तेज और कर्कश ध्वनियों वाले हार्नों को हटवाया जाए, यातायात सिग्नल का उल्लंघन करने वालों पर जुर्माना किया जाए, वाहनों की नम्बर प्लेटें कानून के अनुसार करवाई जाएं ।
ये माँगें सुन कर मुझे अचरज तो हुआ ही, अन्तर्मन तक गहरा दुख भी हुआ । मुझे लगा ही नहीं कि हम आजादी की साठवीं सालगिरह मनाने वाले हैं । हम ऐसे समाज के रूप में विकसित होते जा रहे हैं जो आजादी का मतलब केवल अधिकार लेना ही जानता है जबकि आजादी अपने आप में एक जिम्मेदारी पहले है । अधिकार और जिम्मेदारियां, किसी भी आजादी के सिक्के के दो पहलू हैं । लेकिन हम जिम्मेदारी वाले पहलू को नजरअन्दाज कर रहे हैं और शायद इसीलिए अपनी आजादी हमें ही किसी खोटे सिक्के जैसी लगने लगी है । मजे की बात यह है कि इस दशा के लिए हममें से प्रत्येक, खुद के सिवाय बाकी सबको जिम्मेदार मानता है ।
सभागार में बैठे-बैठे, सयानों और रायचन्दों की मांगें सुनते-सुनते मुझे झुंझलाहट होने लगी थी । ये तमाम मांगें ऐसी थीं जिन पर हम अपने-अपने घरों में ही अमल कर इन्हें दूर कर सकते थे । हम अपने बच्चों को कभी सलाह नहीं देते कि वे दुपहिया वाहनों पर तीन नहीं बैठें, हमें पता है कि 18 वर्ष से कम आयु के बच्चों को लायसेंस नहीं मिल सकता फिर भी हम खुद उन्हें दुपहिया वाहन सौंप देते हैं, वाहन हमारे घरों में खडे रहते हैं लेकिन हममें से कोई भी उनमें लगे अतिरिक्त हार्नों को हटवाने के लिए अपने बच्चों से कभी नहीं कहता, हम अपने बच्चों को यातायात शिक्षा के नाम पर कभी कोई बात नहीं बताते । ऐसी तमाम बातों पर पुलिसिया कार्रवाई करने की मांग करते लोगों को देख कर मुझे लगा कि हम अभी भी मानसिक रूप से गुलात ही हैं, हमें व्यवस्थित बनाने के लिए चाबुक चाहिए, कोई आए और हमें ऐसे हांके जैसे जानवरों को हांका जाता है ।
गांधीजी ने उस शासन व्यवस्था को सर्वोत्कृष्ट माना था जो अपने नागरिकों के दैनन्दिन जीवन व्यवहार में कम से कम हस्तक्षेप करे । इसका मतलब यह कतई नहीं था कि सरकार कुछ भी नहीं करे या कि नागरिक उच्छृंखल हो जाएं । इसका एकमेव मतलब यही था कि नागरिक अपनी-अपनी जिम्मेदारी इस सीमा तक निभाएं कि सरकार को हरकत में आना ही नहीं पडे । लेकिन मैं देख रहा था कि यहां तो लोग सरकार को न्यौता दे रहे थे - आओ और हमें डण्डे से हांको ।
सभागर में बैठे-बैठे, तमाम गैरजिम्मेदाराना मांगें सुनते हुए मुझे पल-पल लगता रहा मानो हम हम अंग्रेजों को बुलावा दे रहे हैं - हे ! अंग्रेजों, तुम कहां हो ? तुम इतनी जल्दी क्यों चले गए ? लौट आओ । यह आजादी हमसे नहीं सम्हल रही । आओ और एक बार फिर हमें गुलाम बनाओ और हम पर राज करो ।
अरे बैरागी जी, रायचन्दों के बच्चों को छोड़िये, ये रायचन्द ही अपनी सलाह का उल्लन्घन करते मिल जायेंगे! :)
ReplyDeleteदिक्कत ऐसे ही रायचंदों से ही तो है आदरणीय!
ReplyDeleteये वे ही हैं जिन्हे ये खबर नही होती कि उनके अपने घर का बच्चा क्या करता है लेकिन इन्हें यह खबर होती है कि किस व्यक्ति ने कब अपने लेखन के माध्यम से धर्म का अपमान किया है। ये वे ही हैं जिन्हें शाम के सुरमई अंधेरे मे वे सभी काम करते देखा जा सकता है जिसके विरोध में दिन भर इन्हें बोलता देखा जा सकता है।
पापा लेख पड़ कर अपने रतलाम वाले दिन याद आ गए .... बड़े बड़े शहरो की खाख छान कर समझ मे आया की अपने रतलाम जैसे छोटे शहर मे यातायात आसानी से व्यवस्थित और नियंत्रित किया जा सकता है. आवश्यकता एस बात को समझने की है की आप लोग हम बच्चो को केवल गाड़ी देते हो या उनको चलाने कि सुरक्षित और सहूलियत भरी सड़क भी देते हो ...... एक अच्छी ख़बर .... मेरे पोस्ट अब देवनागरी मे आया करेंगे ये सम्भव हुवा है गूगल की बदोलात, एक लिंक है ईसे फैला दीजिये एस के जरिये अंग्रेजी मे लिखा हुवा ९० से ९५ प्रतिशत अपने आप हिन्दी मे परिवर्तित हो जाता है. लिंक है :- http://www.google.com/transliterate/इंडिक
ReplyDeleteजल्दी ही रतलाम मे आप से मुलाकात होगी
बाकी तो सब कह चुके मगर शीर्षक बहुत मारक है. :)
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